आज सुबह सुबह एक अंग्रेजी ब्लॉग पर एक विदेशी की टिप्पणी दिखी कि सन 2011 में हिन्दुस्तान में जितने संडास हैं उनसे अधिक मोबाईल फोन हैं. इस खबर पर कई लोगों ने काफी चुटकी ली एवं कई लोगों ने हंसी की तो मैं ने एकदम टिप्पणी की “क्या आप लोगों को लगता है कि हिन्दुस्तान में लोग जान बूझकर संडास बनाने से किनारा करते हैं”.
मैं ने कुछ और भी बातें लिखीं जिसका असर यह हुआ कि मूल टिप्पणी जिसने की थी उसने तुरंत एक माफीनामा मुझे भेजा और उस पूरी चर्चा को हटा दिया. उसके स्थान पर मेरी टिप्पणी छाप दी कि “यदि मोबाईल जिस कीमत में खरीदा जा सकता है उस कीमत में संडास बनाने की सहूलियत होती तो आज हर हिन्दुस्तानी के पीछे कम से कम दो संडास होते”. मुझे खुशी है कि मेरी बात उन लोगों को समझ में आ गई.
समस्या यह है कि हिन्दुस्तान के विरुद्ध कोई भी देशीविदेशी व्यक्ति कोई टिप्पणी करता है तो उसका विश्लेषण करने के बदले हम लोग तुरंत उस बात को मान लेते हैं. फलस्वरूप निराशाजनक नजरिया आगे बढता जाता है. निम्न कथन जरा देखें:
- हिन्दुस्तानी लोग सुधर नहीं सकते
- हिन्दुस्तानी लोग सुधरना नहीं चाहते
- हिन्दुस्तान में उन्नति इसलिये नहीं हो रही कि जनता विकास नहीं चाहती
- हिन्दुस्तानियों को भ्रष्टाचार की आदत लग गई है
सवाल यह है कि यदि भारत का असली स्वरूप हमेशा ऐसा रहा है क्या. यदि नहीं तो हम लोग क्यों ऐसे प्रस्तावों को चुपचाप मान लेते हैं?
दर असल जो देश सोने की चिडिया था वह २५०० साल तक नुचतापिटता और लुटता रहा, तब कहीं इस स्थिति में पहुंचा है. देश १९४७ में आजाद हुआ तो हर तरह से कंगाल था. लेकिन जिन लोगों ने पिचली ६ दशाब्दियों में हुए बदलाव को देखा है वे जानते हैं कि एक देश जिसके करोडों वासियों को मुगलों ने और अंत में अंग्रेजों ने नंगा करके छोडा था, वह पुन: एक विश्व शक्ति बनता जा रहा है. २५०० साल की लूट को ६० साल में काफी हद तक वापस पा लेना अपने आप में एक अद्भुत कार्य है.
यदि आप और मैं जीजान से और देशभक्ति के साथ लगे रहें तो सन २०२५ तक हम निश्चित रूप से एक महाशक्ति बन जायेंगे और २०५० तक वापस सोने की चिडिया बन जायेंगे. और सबसे बड़ी बात ये की मोबाइल से ज्यादा संडास बनाए जा सकेंगे.
bhaut acha sir aap asha hai likhte raha humery subh kamnaya aap ke shat hai
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