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साम्यवाद या फिर परम्परावाद

मेरे मित्र और अग्रज ईशान अवस्थी ने कई दिनों पहले लिखा है "अपने-अपने सूरज हैं... किसी का सूरज आधी रात को निकलता है.. "
वों कहते हैं तों सही भी होगा.....
......
.........
पर इस बहाने हम भी कुछ कहना चाहते हैं.
वों ये की उसी तरह हर सूरज के अपने-अपने सूर्यमुखी भी होते हैं.
सूरजों ने जब से अपना ताप और आब खोयी है......
और अपने इन सूर्यमुखियों की संतुष्टि के हिसाब से सोंचना शुरू किया है स्थिति बदल गयी है.....
सूर्य के सूर्यत्व बनाए रखने का प्रश्न मौजूं हो गया है......
(जातीय खांचे में एक ब्राह्मण होने के नाते मेरा ये कथन संभव है जातीय श्रेष्ठता का द्योतक कहलाये.)
परन्तु सूर्यमुखियों का आज के जैसा सशक्तीकरण "कबीलावादी" संस्कृति का उदय सा है....
पर सूर्य का क्या अपराध है जी वजह से इतना कमजोर होने की सज़ा पा रहा है ???
सूर्य-मुखियों में अपने लिहाज और जरूरत के हिसाब से सूर्य को दिया जा रहा संताप साम्यवादी मानसिकता का द्योतक लगता है.

तों क्या अब इन सूर्य-मुखियों के उदय का स्वागत किया जाना चाहिए????
दुसरे शब्दों में - इसे शक्ति का विकेन्द्रीकरण भी कह सकते हैं ....और लोकतंत्र का व्यापकीकरण भी.
आगे मर्जी आपकी इसे क्या कहें और क्या नाम दें ????
परन्तु लोकतंत्र में परम्पाराओं की टूटन बहुत जरूरी है.
खासकर उन परम्पराओं की जो "वर्जनाओं" की श्रेणी में हों......

Comments

  1. samyawaad humesha hi naturalist hota hai to kya hua jo surya devta, nahi nahi samyawadi mansikta me devta nahi ho sakte,kher me kah raha tha ki to kya hua jo surya ke suntap me kuch waampanth aa gaya.ab surya ko brahumnwaad me to na fasai.

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