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Showing posts from January, 2011

कुछ खास वक्तव्य.......

विकास और प्रकृति के बीच समन्वय आवश्यक-वंदना शिवा कानपुर. कानूनी मदद से अमेरिकी पेटेंट से विश्व में भारतीय आयुर्वेदिक ज्ञान की रक्षा के लिए अनवरत संघर्ष करने वाली वंदना शिवा ने आई.आई.टी. में दिए गए अपने भाषण में कहा देश के नीतिनियामकों अब ऐसी नीतियां बनानी अति आवश्यक हो गई हैं जो विकास और प्राकृतिक संपदा के बीच सह समन्वय बनाए रखे. उत्तरांचल को ऊर्जा प्रदेश बनाने के फेर में वहाँ के बढते प्राकृतिक असंतुलन को उन्होंने खेदजनक कहा.ऐसी ही नीतियां देश के अन्य प्रदेशों में भी अपनाया जाना अत्यंत निन्दनीय और दुखद है. उन्होंने किसानों की आत्मघाती प्रवृत्ति उन्हीं प्रदेशों में अधिक बतायी जहां खेती में अधिकाधिक प्रयोग किये जा रहे हैं. ट्रांसजेनिक और कैशक्राप के मोह में फंस कर किसान ऋण के दुष्चक्र में आ जाते हैं जिसका अंतिम हल उन्हें आत्महत्या के रूप दिखने लगता है.उन्होंने भारतीय स्थितियों के अनुसार फसल-चक्र के चयन पर जोर दिया जिससे प्रकृति के संतुलन के साथ कोई खिलवाड न हो.अंधाधुंध धन कमाने के खेल में फंस कर महेंगे बीज और कीटनाशक प्रयोग में लाकर खेती योग्य भूमि के उपजाऊपन में आने वाली कमी को उन्होंन

गंगा के नाम पर सेमिनार या बाजार

कानपुर. जैसा की होता ही है सभी के अर्जुन की ही तरह से अपने-अपने लक्ष्य होते हैं और उनकी प्राप्ति के अपने तरीके होते हैं.आई.आई.टी. में 7 दिसंबर को आयोजित सेमिनार के भी अलग ही राग-ढंग थे.सबसे पहले तो सेमिनार का आयोजक कानपुर नगर निगम अपने सभागारों में सेमिनार न बुला कर आई.आई.टी. में सेमिनार क्यों करा रहा था यह स्पष्ट नहीं हो पाया. गंगा के नाम पर होने वाले इस सेमिनार में आये वक्ताओं के आने-जाने और खाने सहित सभी प्रकार के खर्चे सरकारी खजाने से जब कानपुर नगर निगम कर रहा था तो कानपुर के मेयर जो कि राष्ट्रीय गंगा रिवर बेसिन ऑथोरिटी के पदेन सदस्य हैं , को क्यों नहीं बुलाया गया.क्या कारण राजनैतिक थे ? उनके दल कि सरकार का केंद्र या प्रदेश में न होना ही उनकी अयोग्यता थी.रही बात स्थान चयन कि तो क्या आई.आई.टी. में ही बोला जाने वाला सच होता है या फिर आई.आई.टी. देश से अलग एक और विशिस्ट संगठन है ? इसी सेमिनार में हिस्सा लेने आये वैज्ञानिक,प्रोफ़ेसरऔर समाजसेवी डा. राजा वशिस्ठ त्रिपाठी ने बीच सेमिनार में ही प्रश्न खड़ा किया कि यदि यह सेमिनार गंगा के राष्ट्रीय स्वरुप को स्थापित करने के उद्देश्य से ह

नंबर अच्छे मिलेंगे

बात उस समय की है, जब हम मिडिल कक्षाओं के छात्र हुआ करते थे। हमारे उस स्कूल में उन दिनों घंटा नहीं हुआ करता था। घंटी के स्थान पर मास्टर जी स्वयं बजा करते थे, मेरा मतलब है कि जब मास्टर जी खाट पर लेट जाते थे, तो समझो छुट्टी की घंटी बज गई। उन दिनों मास्टर जी प्रायः विद्वान होते थे, जैसे आजकल के नेता लोग बाहुबली होते हैं। इतिहास पढ़ाते समय मास्टर जी मुहावरेदार भाषा बोलते थे। मामला लाखों वर्ष पहले से शुरू होता और सैकड़ों साल पर आकर टिक जाता। अकबर के बारे में पढ़ाते हुए मास्टर जी कहते, लाखों वर्ष पहले अकबर महान हुआ था। बाद में उन्हें लगता कि लाखों साल कुछ ज्यादा ही हो गए, तो वह हजारों और फिर थोड़ी देर बाद सैकड़ों वर्षों पर उतर आते थे। मास्टर जी का मुहावरा प्रयोग अद्भुत था। वह चाहते, तो एक मुहावरा कोश लिख सकते थे, लेकिन उन दिनों मास्टरों द्वारा किताब लिखने और उससे पैसे कमाने की परंपरा नहीं थी, इसलिए मास्टर जी अपने मुहावरों का प्रयोग शिक्षण कार्य में करते थे। भाषा, गणित, इतिहास, भूगोल आदि सभी विषय मुहावरे के जरिये ही पढ़ाए जाते। परीक्षा में अच्छे नंबर के लिए उत्तर लिखते समय मुहावरों का प्रयोग

मलाइका का झंडू बाम हो जाना

और 'वो 'अचानक झंडू बाम हो गईं. ऐसी भी उनको क्या जरूरत पड़ गई थी? आखिर 'वो' टाइगर बाम हो सकती थीं, अम्रतांजन बाम हो सकती थीं या फिर आयोडेक्स हो जातीं या कुछ और हो सकती थीं. पर 'वो' और क्यों हो जातीं ? उनकी मर्जी आखिर 'वो' जो चाहें हो सकती हैं क्योंकि 'वो' सलीम खान की बहू हैं,सलमान खान की भाभी हैं और सबसे बढ़कर अरबाज खान की पत्नी हैं . इस पूरे प्रकरण में होने वाले विरोध से सबसे ज्यादा 'चाचा चकल्लसी' को फिक्र ये है की जब वो अमिया से आम हुई तो किसी को कोई चिंता नहीं हुई की कहाँ का आम हुई ? मलीहाबाद का या हापूस का? अब चाचा को कौन समझाए की वो 'आम' नहीं हो सकती हैं फिर भी हो गई थीं क्योंकि आम तो ठहरा पुल्लिंग? पर भैया वो तो हो गईं जो उनको होना था. देश चिता में परेशान है. करोडो रुपये उनके घर आ गए. एक वो और दुखी प्राणी मिला, जिसने 'महेंगाई को डाएंन' बनाये देने वाला गाना लिखे था , वो आज मन ही मन अपनी मूर्खता पर कसमसा रहा था की उस गाने को लिखकर कुछ लाख ही कमा पाए. इधर मलैयका झंडू बाम हुईं और लोग उसे और उसकी डाएंन यानी महेंगाई की

कानपुर से शुरू हुआ ग्राम-स्वराज लाने का काम

कानपुर. नवम्बर का विगत महीना लोकतंत्र को मजबूत करने वाली कई घटनाओं का साक्षी बना.म्यांमार में लोकतंत्र को स्थापित करने के लिए संघर्ष करने वाली आँग सांग सू की नामक महिला को स्थानीय सैनिक सरकार की नजरबंदी से मुक्ति मिली.भारत में बिहार में संपन्न हुए विधान सभा चुनावों में नितीश कुमार के फिर से मुख्यमंत्री पद सम्हालने के साथ ही देश के राजनैतिक रूप से प्रौढ़ होने का संकेत मिलने लगा है. आजादी के इतने वर्षों के बाद भी 60 प्रतिशत के लगभग अशिक्षित बिहार ने राजनीति और विकास की बात को बिना किसी लाग-लपेट के समझ कर भारतीय लोकतंत्र को और मजबूत होने और करने के संकेत दिए हैं.ये संकेत पूरे देश के नकारे हो चुके नेताओं के लिए सबक बना. इसी क्रम में उत्तरप्रदेश में हाल में ही संपन्न हुए पंचायती चुनावों के बाद कानपुर के प्रशासनिक अधिकारिओं के प्रयासों से गांधी के ग्राम-स्वराज के उद्देश्यों को जन-जन तक पहुचाने के प्रयास को भी अति महत्वपूर्ण माना जा सकता है.पंचायतों के गठन की पूरी प्रक्रिया को सम्पन्न होने के बाद इन नव निर्वाचित प्रधानों को राष्ट्रीय और प्रदेश स्तरीय सरकारी जनहितकारी योजनाओं की जानकारी

प्रदेश में सरकारों के दौर में कालेजों की मान्यता के नियम-कानूनों पर भारी पड़ते ‘माननीय’ जनप्रतिनिधि

कानपुर. हिंदी फ़िल्में देश की दशा और दिशा का सदैव से आइना मानी जाती रही हैं.समाज के रूप और प्रारूप की जानकारी करने के लिए उस विशेष देश-काल की फ़िल्में देखकर जाना जा सकता है, उस समय क्या फैशन में रहा होगा. कभी समाज फिल्मों से कुछ लेता है तो कभी फ़िल्में समाज के लिए दिशा-निर्धारण का काम करती रही हैं. फिल्मो की बात यूं हो चली क्योंकि आजादी के बाद से हम राजनीति में किसी एक ऐसे महानायक को नहीं पैदा कर सके जैसा की फिल्मों में समय-समय पे होते आये है. हमारे देश ने दिलीप कुमार साहब को हिंदू भजनों पर अभिनय करने पर कभी कोई आपत्ति नहीं की क्योंकि उस समय का अपना ये देश आज के देश की अपेक्षा ज्यादा प्रौढ़ था. वो जानता था की ये अभिनय कर रहे हैं. पर कुछ सालों पहले जब अपने अमिताभ भैया अपनी मंडली के साथ किसी खास पार्टी के लिए कुछ कहते थे तो लोग दीवाने हो जाते थे. लोगों ने उस पार्टी को अमिताभ बच्चन के दम की कई बार प्रदेश की बागडोर सौपी. ऐसा न था की समाजवादी पार्टी के जनप्रतिनिधि फिल्मों से प्रेरित नहीं थे . वो जिन हिंदी फिल्मी गानों को गाते थे उन्हें पूरा करने में पूरे तंत्र को लगा देते थे. यहाँ स्पष्ट करना ज
जिला प्रशासन के साथ बिगडैल प्रधानों को सुधारने में लगे हैं गणेश बागडिया कल्यानपुर ब्लाक के सभागार में आई.आई.टी. और एच.बी.टी.आई. जैसे सम्मानित संस्थानों में शिक्षण का अनुभव रखने वाले प्रो. गणेश बागडिया ने अपने ही तरह की एक अलग कक्षा लगाई. मौका था नव-निर्वाचित प्रधानों को जीवन-दर्शन का ज्ञान देने का, जिसके माध्यम से गांधीजी के हिंद स्वराज के अनुसार ग्राम-पंचायत स्तर पर स्वराज लाया जा सके.कार्यक्रम में कानपुर जिलाधिकारी मुकेश मेश्राम सहित डी.डी.ओ. मोहम्मद अयूब,डी.पी.आर.ओ. के.एस. अवस्थी आदि मुख्य प्रशासनिक अधिकारी मौजूद रहे. पूरे प्रदेश में कानपुर में यह दूसरी बार ऐसा हो पाया की नव-निर्वाचित प्रधानों को इस प्रकार का कोई प्रशिक्षण दिया जा रहा है. अभी हाल में हो दस दिवसीय शिविर लगा कर इन प्रधानों को सरकारी योजनाओं और कर्तव्यों से अवगत कराते हुए तहसीलवार प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया था. १४ दिसम्बर के इस एक दिवसीय शिविर में प्रो. बागडिया ने प्रधानों को संपूर्ण ग्राम पंचायत को परिवार के मुखिया की तरह से पालन करने की शिक्षा दी. उन्होंने सामूहिक और सम्यक आचार-व्यवहार के

बिल्डर उड़ाते हैं नियमों की धज्जियां

उ०प्र० फ्लैट्स एक्ट २०१० के अनुसार प्रत्येक वह भवन, जिसमें चार से अधिक फ्लैट बने हों, उसे कई विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना होता है और ऐसे भवन ही इस एक्ट की सीमा में आते हैं. इस एक्ट के अनुसार भूमि की वैधता नक्शे की स्वीकृति के साथ ही उसकी ऊँचाई के लिए नगर के हवाई एक्ट को भी मानना होता है. विद्युत और अग्शिमन विभागों का भी इन भवनों के निर्माण के पूर्व अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना अनिवार्य होता है. ऐसे भवनों राजस्व के सभी विभागों की निगाहों में निर्मित होते हैं. कहा जा सकता है कि कोई भी बहुमंजिल आवासीय भवन चुपके से नहीं बन सकता. सूत्र बताते हैं कि कानपुर में १४ मंजिल तक ऊँची इमारतें है. बिल्डर सदैव इन्हें (+१) के नियम के तहत स्वीकृत कराता है और सदैव एक मंजिल कम करके बनाता है, जिसे वह जब चाहे तब बना व बेच सके. शहर में १४-१५ बड़े व ३०-३५ छोटे बिल्डर्स हैं. और लगभग १५० से अधिक ६ मंजिल से अधिक की इमारतें हैं, जिनमें हजारों लोग रह रहे हैं. कानपुर विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष रामस्वरूप अवैध बिल्डिंगों का निर्माण रोकने के लिए अपनी तैयारी बताते हैं, कि पूरे नगर को चार जोनों में बांट दिया गया

बाबा प्रखर के विपरीत कम ताम-झाम के साथ शुरू किया गया भ्रष्टाचार के विरुद्ध नव-युव संग्राम

‎................ आज २६ जनवरी फिर एक बार नयी इबारत लिख गया. कानपुर से हई ये शुरुआत आने वाले समय में क्या रूप लेगी ये अभी किसी कि समझ से परे है. मैंने नन्हीं से परी सबा कयूम से कहा आज तुम्हारे नन्हे-नन्हें क़दमों से मीलों लंबे रास्ते कि शुरुआत होगी. राह में सभी तरह के लोग मिलेंगे. जो डराएंगे , सतायेंगे और धमकाएंगे और पथ भ्रष्ट करने के ...सभी तरीके अख्तियार करेंगे. इन रास्तों में कठिनाई भी आएगी क्योंकि सभी तरफ भ्रष्टाचार का घना अँधेरा है. ऐसा भी होगा कि जो लोग आज यहाँ नहीं आये हैं उन्हें किसी कि शुरुआत करने का इंतज़ार हो या फिर ऐसा हो कि आज साथ चले लोगो रास्ता लंबा और कठिन देखकर साथ छोड़ दे .पर ऐसे में दुनिया कि आंधिओं से बचकर अपना और अपने उद्देश्य कि रक्षा करना ही मूल आवश्यकता होगी. शायद वो और उनकी छोटी सी भीड़ ये नहीं जान पायी कि कानपुर के आला प्रशासनिक अधिकारिओं के द्वारा उनकी एक-एक गतिविधिओं पर निगाह राखी जा रही थी. आजादी के इतने सालों के बाद भी प्रशासन का तरिका नहीं बदल पाया है. क्या ये हमारी गुलाम मानसिकता का द्योतक नहीं है ? अभी वो सभी ये नहीं जान पा रहे थे कि उन्होंने कितना बड़ा काम

कानपुर से भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक नए संग्राम का शुभारंभ..........

जैसा की सारी दुनिया जानती है, कानपुर देश में नया चलन शुरू करने के लिए जाना जाता रहा है. गांधी और भगतसिंह दोनों के आन्दोलनों का गर्भगृह रहा कानपुर इसके पूर्व में प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के लिए भी साक्षी बना था. यद्यपि इसकी शुरुआत मेरठ से अवश्य हुयी परन्तु कानपुर में इस टिमटिमाती लौ ने ज्वाला का रूप अख्तियार कर लिया.गांधी के कानपुर आगमन के बाद ...आजादी के लिए लड़ने वालों को नयी ऊर्जा मिली. कानपुर की उर्वरा भूमि सदा से आदोलनों के लिए जनि गयी है. आजादी के बाद चाहे संतिया कांड रहा हो या फिर शिक्षक आन्दोलन, कानपुर के रणबांकुरों ने केंद्र और प्रदेश की सरकारं को सदैव नाकों चने चबाने के लिए मजबूर किया है. भाइयों और बहनों, अब समय बदल रहा है. अब हमारा शत्रु भी बदल रहा है. अब हमें जान लेना चाहिए की आज हम चाहे क्यों न आजाद हो गए हों पर अभी शासन का तरीका नहीं बदला है. अभी भी आम भारतीय शासित हैं हमारे बीच के ही उन लोगों के द्वारा जो हमें अपना नहीं समझते हैं. हमारे देश के एक बहुत बड़े भाग की जनता आज भी इस आजादी का मतलब सरकारी योजनाओं के बंदरबांट से अनजान है. नयी दिल्ली और लखनऊ से

भ्रष्ट सिस्टम से ऊबकर वकील की आत्महत्या

यूं तो मौत के कई कारण और बहाने होते है पर इन सब का परिणाम एक ही होता है.दुनिया में अपने अधूरे सपनों को कभी पूरा न होने के लिए छोड़ जाना. दुनिया में अपनी और देश-दुनिया पहचान बनाने और अपने को सिद्ध करने की योजनाओं का बेसमय अंत हो जाना. जब बात चली ही है की मायावती की प्रदेश सरकार अपनी छवि सुधारने में लगी है और सरकार पर बोझ साबित होने वाले भ्रष्ट मंत्रिओं पर लगाम कसी जाने लगी है तो लगता है की अपना शहर कानपुर भी इसी क्रम में है. कानपुर की आशाओं के दुक्लौते केंद्र अनंत मिश्र के प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री बनने के बाद हुए आशाओं के संचार में अब कमी आ चुकी है. आम शहरी अब जान चुका है की वो अब वास्तव में सरकार बन चुके हैं और हम सब उनकी प्रजा हो गए हैं. उनके चारों ओर एक ऐसे काकस का अभेद्य घेरा बन चुका है जिसे तोड़कर अपनी बात पहचाना अब नामुमकिन सा प्रतीत होता है. उस घेरे को तोड़ने के लिए आवश्यक सिक्कों की खनक और रंगीनि़यत की व्यवस्था अब आम नहीं रही. ऐसे में एक खास वर्ग के लोग ही उनतक पहुँच पा रहे है. माया सरकार में से हटाये गए मंत्रिओं और विधायकों के कारनामों को देखा जाए तो कानपुर का

कुछ कही..... कुछ अनकही ............

                आज देश-दुनिया के बिगड़ते   हालातों को देखकर कभी सोचता हूँ की मैं भी लिखूं   और कभी सोचता हूँ की मैं भी क्यों लिखूं. जब सोचता हूँ देश के बिगड़ते हालात के बारे में और उन समस्याओं से मुह फेरते जिम्मेदार पदों पे बैठे विशिष्ट लोगों की मक्कारिओं के बारे में तो लगता है की मैं भी चुप रहूँ . पर ये तो मौलिकता नहीं है मेरी . मैं , जिसने कभी सपना देखा था , देश को उन ऊंचाइयों पे ले जाने का वो कैसे शांत हो सकता है. कभी   सोचता था की अपनी नाकामिओं से देश की स्थिति कैसे बदल सकता हूँ ? अब तो मैं इस काबिल भी नहीं रह गया था. पर जीवन में घटी किसी एक घटना के द्वारा लगा की जिंदगी कभी रूकती नहीं. और इस कभी न रुकने वाली और निरंतर चलते रहने वाली जिंदगी के ही पड़ाव होते हैं - ये नाकामी और सफलताएं.                 पर इस सब के बीच कहीं रह जाता देश और वो समाज , जिसे बेहतर और बेहतर बनाने का सपना सबने देखा होता है. उन्होंने भी जो देश को निरंतर गड्ढे में ले जाने का काम करते रहते हैं.मैं ये कह कर उन सभी भ्रश्ताचारिओं को क्लीनचिट नहीं दे रहा हूँ. पर मेरा

जनता और मीडिया के संघर्ष की जीत

दिव्या केस में नपे पुलिस अफसर नीलम , दिव्या, कविता, वन्दना और शीलू सहित न जाने कितनी बालिग-नाबालिग कन्याओं के साथ घटित यौन-शोषण और अंतत: हत्या तक किए गए जघन्यतम अपराधों के लिए जाना जाने वाला विगत वर्ष अपने साथ ही कई गहरे जख्म मानवता और भारतीय संस्कृति पर दे गया था. नया वर्ष परत-दर-परत खुलासे और कार्यवाहियों का वर्ष जाना जाने वाला है. एक ही दिन शीलू के बलात्कारी विधायक की गिरफ्तारी व कानपुर के बहुचर्चित दिव्या हत्याकाण्ड के मामले में लापरवाही बरतने के आरोपी पुलिस के आला अधिकारियों पर गिरी गाज एक सुखद एहसास देने वाला साबित हुआ. दिव्याकाण्ड में कत्र्तव्य की शिथिलता बरतने के आरोपी तत्कालीन डी०आई०जी प्रेम प्रकाश, एस०पी० (ग्रामीण) लालबहादुर, कल्याणपुर क्षेत्राधिकारी लक्ष्मी निवास मिश्र व कल्याणपुर थानाध्यक्ष अनिल कुमार सिंह पर अपराधियों को श्रय देने व केस की सही जांच न करने के कारण गाज गिरी है. इसी क्रम में नरैनी बांदा के बसपा विधायक पुरूषोत्तम नरेश द्विवेदी को गिरफ्तार कर प्रदेश सरकार ने संकेत देने में काफी देर की है कि दोषी चाहे कितना ही शक्तिशाली व उच्च पदस्थ क्यों न हो कानून से ऊपर नही