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Showing posts from 2020

यही महाभारत है......

हम कौन हैं, कहाँ हैं, किस के लिए हैं और जाना कहाँ है, यह जानने का प्रयत्न करें। साथ ही, यह भी कि राजनीति और सरकार मूलतः समाज की सेवा और रचना के लिए है अथवा राजनीति में लगे सभी लोगों की भोग-वृत्ति के लिए हैं। हम में से सभी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सभी के बारे में जानते हैं, परन्तु अर्थ, पद या झूठी प्रतिष्ठा के लिए विवश होकर इस चक्रव्यूह में फँसे हुए हैं। यही विवशता कभी महाभारत का कारण बनी थी। आज जाति और सम्प्रदाय से भी ज़्यादा विनाशकारी रूप राजनैतिक जातीयता और साम्प्रदायिकता ने ग्रहण कर लिया है।  यद्यपि अंग्रेज़ों को हमने अपना शासक मान लिया था, परन्तु उनके साथ बैठकर खान-पान और चरित्र को स्वीकार नहीं किया। भारत की जाति-प्रथा के कारण अंत्यजों में भंगी और डोम को सबसे निम्न श्रेणी में रखकर गाँव के बाहर रखा गया। सार्वजनिक तालाब और कुएँ से पानी लेने में भी रोक लगाकर रखा। उन्हें मंदिर में जाने से भी वंचित किया गया। फिर भी, धन्य हैं वे लोग जिन्होंने इस अपमान और प्रताड़ना को सहते हुए भी ख़ुद को हिंदू कहना स्वीकार किया और मुग़लों और अंग्रेज़ों के सामाजिक समता के प्रलोभन के बावजूद धर्म-परि

मजदूर नहीं मजबूर दिवस कहिए

..........ईस्ट के मैनचेस्टर कहलाने वाले "कानपुर" में मेरा जन्म हुआ था। जब होश सम्हाला तो मिलों और फैक्टरियों के सायरन, चिमनियों के धुएँ और ट्रेनों की आवाजाही का शोर चाहे-अनचाहे कानों में पड़ता रहता था। पिता रेलवे मेल सर्विस में ट्रेड यूनियन के लीडर थे, अतः मजदूरों की हक़ की बातें और संघर्ष का असर घुट्टी के रूप में मिला था। मजदूर आंदोलन के नाम पर राजनीति करने वाले धंधेबाज़ राजनेताओं की मिलीभगत से कानपुर के श्रम-मूलक उद्योग समाप्ति की ओर थे। नब्बे के दशक में पिता जी ने वर्कर यूनियन की राजनीति से त्यागपत्र दे दिया था।    स्नातक की पढ़ाई में इतिहास, अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र विषय के होने के कारण दुनिया के भूत, वर्तमान और भविष्य में इन सभी का असर समझ आया और अपने इर्द-गिर्द घट रही घटनाओं में साम्यता स्थापित करने में आसानी रही। लेकिन इस बीच देश की राजनीति में मुद्दे और विषय बदल रहे थे। हम युवा हिंदू और मुसलमान बन रहे थे। मंदिर और मस्जिद के मुद्दे ने आपसी दूरी बढ़ानी शुरू कर दी थी।  इक्कीसवीं सदी की पहली सुबह किताबों से मिले ज्ञान के अनुरूप कानपुर न था।  एक बड़ा परिवर्

बेदर्द जमाने में इन्द्र भूषण रस्तोगी किसे याद हैं?

      ये इन्द्र भूषण रस्तोगी, कोई गुमनामी बाबा नहीं हैं जो देश-भर में इनको कोई जानने वाला न हो! राजेश श्रीनेत जी के अमर उजाला , बरेली में सीनिअर रह चुके श्री रस्तोगी देश भर में पत्रकारिता जगत खासकर संपादक मंडली में कभी परिचय के मोहताज नहीं रहे. उनका एक भरा-पूरा सम्पादकीय जीवन का इतिहास रहा है, यदि अभी भी उनके शेष जीवन का संरक्षण हो गया तो देश के भविष्य के निर्माण में इनका महत्वपूर्ण योगदान होगा. आज जब देश भर में अक्षय तृतीया को कार्पोरेटीय अवसर बनाते हुए सोने की खरीद में सारे पूंजीपति व्यस्त थे तब मैं अपने वरिष्ठ साथी राजेश श्रीनेत जी के साथ आज के हृदयहीन समाज के लिए इस गुमनाम हो चुके व्यक्ति के खंडहरनुमा घर में दस्तक दे रहे थे. उनसे जब मिला तो लगा उनमें अभी पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने की आग ज्वालामुखी के फूटने के ठीक पहले की जैसी अपने चरम पर विद्यमान है. बातों में ऊष्मा का स्तर ऐसा जैसे अभी उनका श्रेष्ठ कार्य आना बाकी है. परन्तु आज का समाज क्या उन्हें इस काबिल मानता है. एक तरफ इसी कानपुर से निकल कर राज्यसभा के सदस्य बने पत्रकार और मालिकान हैं और दूसरी तरफ अपने निवास स्थल
जिला प्रशासन के साथ बिगडैल प्रधानों को सुधारने में लगे हैं गणेश बागडिया कल्यानपुर ब्लाक के सभागार में आई.आई.टी. और एच.बी.टी.आई. जैसे सम्मानित संस्थानों में शिक्षण का अनुभव रखने वाले प्रो. गणेश बागडिया ने अपने ही तरह की एक अलग कक्षा लगाई. मौका था नव-निर्वाचित प्रधानों को जीवन-दर्शन का ज्ञान देने का, जिसके माध्यम से गांधीजी के हिंद स्वराज के अनुसार ग्राम-पंचायत स्तर पर स्वराज लाया जा सके.कार्यक्रम में कानपुर जिलाधिकारी मुकेश मेश्राम सहित डी.डी.ओ. मोहम्मद अयूब,डी.पी.आर.ओ. के.एस. अवस्थी आदि मुख्य प्रशासनिक अधिकारी मौजूद रहे. पूरे प्रदेश में कानपुर में यह दूसरी बार ऐसा हो पाया की नव-निर्वाचित प्रधानों को इस प्रकार का कोई प्रशिक्षण दिया जा रहा है. अभी हाल में हो दस दिवसीय शिविर लगा कर इन प्रधानों को सरकारी योजनाओं और कर्तव्यों से अवगत कराते हुए तहसीलवार प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया था. १४ दिसम्बर के इस एक दिवसीय शिविर में प्रो. बागडिया ने प्रधानों को संपूर्ण ग्राम पंचायत को परिवार के मुखिया की तरह से पालन करने की शिक्षा दी. उन्होंने सामूहिक और सम्यक आचार-व्यवहार के पालन को व्यवहार मे

अन्ना हजारे के समर्थन में "चौथा कोना" का धरना

             गणेश शंकर विद्यार्थी की कर्मभूमि रहे कानपुर में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आमरण अनशन पर बैठे अन्ना हजारे के समर्थन में पत्रकारों का धरना आयोजित हुआ. इस धरने को "चौथा कोना" ने आयोजित किया था.ये कोई संस्था नहीं है बल्कि कानपुर के प्रमुख साप्ताहिक समाचार पत्र 'हेलो कानपुर' का एक स्थायी स्तम्भ है. नवीन मार्केट के शिक्षक पार्क के इस धरने में कानपुर के सभी अखबारों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकारों और छायाकारों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया. धरने का नेतृत्व शहर के जाने-माने  कवि एवं  पत्रकार प्रमोद तिवारी जी ने किया.उनसे जब इस धरने का कारण जान्ने का प्रयास किया गया तो उन्होंने कहा अन्ना हजारे के जन-लोकपाल बिल को लागू करने की मांग के समर्थन में और प्रेस क्लब,कानपुर  की निष्क्रियता और आत्म-मुग्धता के कारण ऐसा करना पडा. आज  वैभवशाली पत्रकारिता के इतिहास के बावजूद कानपुर के आम पत्रकारों पत्रकारों के पास अपनी समस्याओं की आवाज को सुर देने के लिए सक्षम मंच की कमी है. इसका फायदा समय-समय पर दलाल और फर्जी पत्रकारों के साथ-साथ प्रशासनिक अधिकारी भी उठाते हैं.हाल म

भ्रष्टाचार से संग्राम है मूल मुद्दा

भ्रष्टाचार से संग्राम है मूल मुद्दा by Arvind Tripathi on Friday, April 22, 2011 at 2:42pm            भष्टाचार के विरुद्ध लड़ने वालों से केंद्र और राज्य की सरकारें बहुत सुनियोजित और संगठित तरीके से लड़ रही हैं.आज भी देश में लोकतंत्र स्थापित हुए साथ से अधिक सालों के बाद भी "जन-वाद" स्थापित नहीं हो सका है. आवाज उठाने वालों की कुंडली तैयार कर आन्दोलन को कमजोर करने का भरसक प्रयास ब्रिटिश सरकार की तर्ज पर ही किया जा रहा है.बात इस सिविल सोसाइटी के सदस्यों की रक्षा नहीं कर पाने  की नहीं है. ये भी संसारी लोग हैं, इन्होने भी इसी देश में जन्म लिया है यहाँ वे आसमान से अवतरित नहीं हुए हैं .उन्होंने कब कौन सा फल खाया और कौन सा चखा था,इसे मिर्च-मसाले के साथ पेश करने में लगा मीडिया भी संदेह को जन्म दे रहा है. ऐसे में जबकि देश के अति जिम्मेदार  इलेक्ट्रोनिक मीडिया का पोषण विदेशी धन से हो रहा है.आम जन की समझ में कुछ नहीं आ रहा है. विदेशी ताकतें इस मीडिया कर्म के माध्यम से जनता में अन्ना सहित सरकारों के विरोध को और चरम तक पहुंचाने में लगी हैं.           लगता है की सरकारें
मुंबई. इंटरनेट पर बेहद लोकप्रिय हुए गीत 'कोलावरी डी' की मशहूर गीतकार जावेद अख्तर और बंग्लादेशी मूल की विवादित लेखिका तस्लीमा नसरीन ने तीखी आलोचना की है, वहीं इस गीत के बड़े प्रसंशकों में से एक और बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन ने अपनी आवाज में इसे गाने की कोशिश की है। इंटरनेट पर कोलावरी डी की दीवानगी का आलम यह है कि 16 नवंबर को पोस्ट किए जाने के बाद से ही यह यू् ट्यूब पर हिट लिस्ट में बना हुआ है। इस गाने की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके आधिकारिक वीडियो को अब तक 1 करोड़ 31 लाख से भी अधिक बार देखा जा चुका है। लेकिन इससे भी चौंकाने वाला तथ्य यह है कि अब तक यू ट्यूब पर ऐसे चार हजार वीडियो पोस्ट किए जा चुके हैं जिनके टाइटल में 'कोलावरी डी' है। महिला आवाज में पोस्ट हुए कोलावरी डी को करीब 20 लाख बार देखा जा चुका है। शरद पवार को पड़े तमाचे के वीडियो और कोलावरी की धुन को मिलाकर बनाए गए वीडियो को भी करीब दस लाख लोग देख चुके हैं। कई भारतीय भाषाओं के बाद अब इस गीत का इंडोनेशियाई वर्जन भी यूट्यूब पर आ गया है। लेकिन मशहूर गीतकार जावेद अख्तर ने इस गी

सुल्फेबाज़ी से सेल्फ़ीबाज़ी तक

. ...... आज के कोरोना काल में घर में रहते हुए टाइम-पास के साथ मनोरंजन के साधनों पर सभी जगह धूम मची है। महिलाओं के लिए रसोई, बातें और घर-गृहस्थी के कामों में व्यस्तता आम बात रही है। पुराने ज़माने की ही तरह आज भी ख़ुद से ख़ुद का खेल और उससे मिलने वाली आत्मानुभूति का सुख सर्वोपरि ही है। "जहाँ चार यार, मिल जाएँ वहाँ रात हो गुलज़ार" वाले युग से पहले दोस्तों में आपस में मिलते ही दिव्य आनंद की खोज की पूर्ति का साधन सुल्फेबाज़ी होती थी, जिसे कालांतर में दूसरे तरह के तम्बाकू के उपयोग ने बदल दिया। आज भी थोड़ा एकांत में ख़ुद से ख़ुद ही मज़े लेने वाले लोगों संख्या बढ़ने लगी है। लोगों में "सेल्फ़ी" का क्रेज़ बहुत बढ़ता जा रहा है। खाते, पीते, सोते, जागते, रोते, हँसते सभी क्षणों की "सेल्फ़ी"।एक मानसिक रोग की सीमा तक बढ़ गया है। सेल्फ़ी लेने के लिए केवल दो चीज़ों की आवश्यकता होती है, वो है फ़्रंट कैमरा की सुविधायुक्त मोबाइल फ़ोन और ख़ुद को दिव्य सुंदर मानने की सेल्फ़िश सोंच। सेल्फ़ी लेने की कोई ट्रेनिंग ना मिलने और फ़्रंट कैमरा मोबाइल सुविधा ना होने के कारण ही दुर्य