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बेदर्द जमाने में इन्द्र भूषण रस्तोगी किसे याद हैं?



      ये इन्द्र भूषण रस्तोगी, कोई गुमनामी बाबा नहीं हैं जो देश-भर में इनको कोई जानने वाला न हो! राजेश श्रीनेत जी के अमर उजाला , बरेली में सीनिअर रह चुके श्री रस्तोगी देश भर में पत्रकारिता जगत खासकर संपादक मंडली में कभी परिचय के मोहताज नहीं रहे. उनका एक भरा-पूरा सम्पादकीय जीवन का इतिहास रहा है, यदि अभी भी उनके शेष जीवन का संरक्षण हो गया तो देश के भविष्य के निर्माण में इनका महत्वपूर्ण योगदान होगा. आज जब देश भर में अक्षय तृतीया को कार्पोरेटीय अवसर बनाते हुए सोने की खरीद में सारे पूंजीपति व्यस्त थे तब मैं अपने वरिष्ठ साथी राजेश श्रीनेत जी के साथ आज के हृदयहीन समाज के लिए इस गुमनाम हो चुके व्यक्ति के खंडहरनुमा घर में दस्तक दे रहे थे. उनसे जब मिला तो लगा उनमें अभी पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने की आग ज्वालामुखी के फूटने के ठीक पहले की जैसी अपने चरम पर विद्यमान है. बातों में ऊष्मा का स्तर ऐसा जैसे अभी उनका श्रेष्ठ कार्य आना बाकी है. परन्तु आज का समाज क्या उन्हें इस काबिल मानता है. एक तरफ इसी कानपुर से निकल कर राज्यसभा के सदस्य बने पत्रकार और मालिकान हैं और दूसरी तरफ अपने निवास स्थल पर टिमटिमाते बल्ब की रौशनी में अपनी पहचान और अस्तित्व की लड़ाई लड़ते  सूरज जैसे श्री रस्तोगी हैं.पत्रकारिता के कार्यकाल में पेशे के सभी संभावित बड़े पदों पर रह चुके इस व्यक्ति का आज का जीवन देखकर उसकी दशा पर कोई भी व्याख्या और विवेचना के लिए मेरे जैसे शब्दवीर के मन में चलती उथल-पुथल अकल्पनीय है.
         1976 में पत्रकार का कैरिअर अपनाने वाले श्री रस्तोगी ने कानपुर में दैनिक जागरण के अंग्रेजी अखबार से करिअर शुरू किया. फिर ‘पायनिअर दैनिक’ से होते हुए ‘समाचार’ न्यूज एजेंसी में चले गए. यहाँ से काम करते-करते वे ‘ट्रिब्यून’ में काम करने लगे. यहाँ से ‘पंजाब केसरी’ में अस्सिटेंट एडिटर के पद पर तैनात हुए.फिर वे अमर उजाला में बरेली एडिशन के चीफ बनाए गए.भास्कर के शुरूआती दिनों की बात है जब वे अमर उजाला की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़कर दैनिक भाष्कर के भोपाल एडिशन के प्रमुख संपादक बनाए गए. तब के दैनिक भाष्कर के सुधार और उत्थान में आपकी महती भूमिका थी. इसी बीच इन्हें लकवे का अटैक पड़ा.मालिकानों ने इनका इलाज कराया और कम महत्वपूर्ण और कम व्यस्त एडिशन ग्वालिअर का काम सौंप दिया. परन्तु वे मालिकानों की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सके . शीघ्र ही इन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा. हिसाब-किताब के बाद मिले धन को इनकी पत्नी और बेटिओं ने ले लिया. इनके किये गए कामों के प्रतिफल के रूप में मालिकानों ने इनकी एक बेटी को अखबार में काम दे दिया. बाद में पत्नी भी उसी दैनिक भाष्कर अखबार में काम करने लगीं. उन सभी ने ग्वालिअर की जगह भोपाल में रहना शुरू कर दिया. इसके बाद बेघर और बेसहारा अपंग श्री रस्तोगी ने कई छोटे-मोटे अखबारों और पत्रिकाओं में काम किया.परन्तु अपेक्षाओं के चरम के कारण आज के प्रतियोगी युग में वे टिक नहीं पाए.पत्नी, बेटे और बेटी आज उनकी बनायीं स्थिति से मजे कर रहे हैं. राजेश जी बताते हैं बरेली में सानिध्य के दौरान उनका वैभवपूर्ण जीवन पत्रकारों के लिए ईर्ष्या का कारण  होता था. वे अपने और अपने परिवार के रहन-सहन पर दिल खोलकर खर्च करते थे.परिवार के मन में उनके व्यवहार के प्रति कोई मलाल नहीं होना चाहिए था.परन्तु ये उनकी दूसरी पत्नी का परिवार था.पहली पत्नी के बेटे आज भी कानपुर में हैं. परन्तु वे स्वयं ही बदहाली में हैं. ऐसे में उनका मदद कर पाना अत्यंत दुष्कर है.खाने के लाले हैं.ऐसे में दैनिक दवाओं का खर्च भी कोढ़ में खाज जैसा ही है. संभव है की अपनी जवानी में उनसे भी कोई गलतियाँ हुयी हों जिन्हें वे आज हम सभी से साझा नहीं कर पा रहे हों.परन्तु उस परिवार की निस्पृहता और संवेदनशून्यता का ये चरम है की जीवन भर जिसके लिए उन्होंने काम किया और पाला, वो आज उन्हें पूरी तरह से भूल गया.ऐसा तो कोई रास्ते के फकीर के साथ नहीं करता जैसा उनके अपनों ने किया.उनकी काया की तरह ही उनका आवास भी अपनी बदहाली के आंसू रो रहा है. सालों से साफ़-सफाई का मोहताज आवास किसी भी द्रष्टिकोण से आवासीय सुविधाओं से हीन है. छत लगता है की अब गिरी तो तब गिरी. बदबू का झोंका ऐसा की दम घुट जाए. कपडे ऐसे की लगता ही नहीं की ये वाही रस्तोगी जी हैं जो अपने सम्पादकीय कार्य-काल में लांग-कोट और गले में महेंगी टाई के लिए मशहूर थे. उनकी पीढ़ी के साथी उनका साथ छोड़कर अपने कामों में व्यस्त हैं . और वे शून्य को ताकते हुए हालात ठीक करने का प्रयास कर रहे हैं.
    ऎसी हालत में जब कोई दूसरा व्यक्ति आत्महत्या जैसी तैयारी करता वे आज भी नौकरी की तलाश में हैं. ये उनकी खुद्दारी का चरम है. इस स्थिति में भी उन्हें चाय न पिला पाने का मलाल है.देश भर में मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देने वाली नोयडा की दो बहनों की कहानी अभी भुलाई नहीं गयी है. आज के महानगरीय समाज में पड़ोस में होने वाली मौतों से भी अनजान रहने वाला आज का समाज अगली पीढ़ी को क्या ऐसे ही संस्कार देकर जाएगा ? आज भी उनके दिमाग में सैकड़ों ख़बरें अधूरी रह जाने का दुःख है.उनका जीवन जीने का उत्साह अदम्य है. कानपुर और देश के पत्रकारों और संपादकों से अनुरोध है की उनकी आज की स्थिति के लिए उनका संवेदनशून्य रहना मानवता के साथ नाइंसाफी होगा. आशा करता हूँ की कानपुर का मालदार प्रेस क्लब स्वयं या फिर जिलाधिकारी के विवेकाधीन कोष सहित विभिन्न मदों से इस वरिष्ठ संपादक के मान-सम्मान और प्राणों की रक्षा में आगे बढ़कर सहयोग करेगा. उनके मालिकान रह चुके पून्जीपतिओं से भी उनकी इस दशा में सहयोग की आशा करता हूँ.     

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