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Showing posts from September, 2011

माँ-बहन का मान-सम्मान केवल नव-रात्रि के अठारह दिनों तक ही क्यों ???

               विगत दिनों अंतर्राष्ट्रीय बेटी दिवस था. आज माँ दुर्गा के पावन शारदीय नवरात्रि का प्रथम दिन है.उस दिन से आज तक मेरे  मन में लगातार उथल-पुथल जारी है. क्या आज के समाज में स्त्री का दोष ही उसका स्त्री होना है ? माँ और बेटी के पर्व के अवसरों के परिप्रेक्ष्य में कहूँगा कि आज का समाज बेटी और माँ दोनों में से किसी का सम्मान करना नहीं सीख पाया है. चाहे वो अपना देश हो या फिर विदेश.माँ दुर्गा को ये सम्मान देवताओं ने तभी दिया जब उन्होंने अपनी शक्ति को सिद्ध किया. जब हथियार  उठाये.राक्षसों का नाश किया.मधु-कैटभ, दुर्गम , रक्त-बीज और शुम्भ-निशुम्भ सहित तमामों को मौत के घात उतार दिया. क्या आज की नारी के समक्ष वैसी ही स्थिति नहीं  आ रही है कि वो भी हथियार उठाकर अपनी अस्मिता की रक्षा करे ! यदि हाँ, तो ये सभ्य कहलाने वाले समाज के लिए शर्मनाक है कि हम अपनी बेटियों , चाहे वो अविवाहिताये हों या विवाहिताएं, उनका सम्मान और गौरव नहीं बचा पा रहे हैं.                बलात्कार की घटनाओं में आयी तीव्रता किसी भी समाज के लिए अशोभनीय और शर्मनाक ही है.परन्तु ओनर किलिंग के मामले भी इसी घटिया श्रेणी क

लड़ाई झगडा+धक्का मुक्की+छीना झपटी = उगाही. यानी “साउथ कनपुरिया पत्रकारिता”

         कहने को तो कानपुर महान पत्रकार अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी जी का शहर है.ऐसा नहीं की उनके बाद ये परम्परा पूरी तरह से विलुप्त हो गयी. देश की राजनीति और पत्रकारिता जगत में तमाम बड़े नाम कानपुर कि धरती पर ही पले-बढे. लेकिन अब इसमें बाजार की जरूरतें और महेंगाई की मार के कारण सारी “लैमारी” और “लम्पटई” आ गयी है. पत्रकारिता थाना और पुलिस चौकी स्तर पर उतर आई है. प्रत्येक पुलिस थाने में अब ऐसे चैनलों और अखबारों के पत्रकारों का डेरा रहता है जो शायद ही आम जन-मानस को पढ़ने व देखने को मिलते हों. पर अब इस सबसे कोई मतलब रहा नहीं. मोबाइल चोरी की रिपोर्ट लिखाने से लेकर बड़ी-बड़ी घटनाओं की पैरवी और पैरोकारी यही सब करते हैं. यानी खुले शब्दों में आयोजित और प्रायोजित ख़बरों के बारे में चर्चा और बहस के बाद आम जनता को घटनाओं के बारे में जानकारी मिल पाती है.             रात बारह के बाद जब प्रिंट मीडिया की रिपोर्टिंग बंद हो जाती है तब रात के रखवाले – पुलिस , अपराधी और गुमनाम इलेक्ट्रोनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के पत्रकार कहलाने वाले प्रकट होते हैं. वैसे भी इस समय के जुर्म की कहानियां आम चर्चा नहीं ब

कनपुरिये फर्जी अन्नाओं पर प्रदेश सरकार की नजरें टेढ़ी

जब से कानपुर के कवि एवं पत्रकार प्रमोद तिवारी जी ने "मैं हूँ अन्ना"/ "हम हैं अन्ना" का नारा देश को दिया है देश इसी रंग में रंग गया.पूरे आंदोलन भर ये सुर्खियाँ बटोरता रहा. यद्यपि कानपुर के मीडिया कर्मी इस महान घटना में प्रमोद जी के श्रेय को समझ न सके और उनके योगदान को कम करके ही आंकते रहे पर देश ने उनके नारे और उसके सन्देश को आत्मसात किया. इस आंदोलन का लाभ उठाने में विपरीत मानसिकता वालों ने कोई कोर-कसर नहीं छोडी.गांधी और गांधीवादी अन्ना की मूल विचारधारा और नीतियों के विपरीत कानपुर के सभी अखबारों और चैनलों की सुर्खियाँ रहने वाले दो  युवा कांग्रेसी नेताओं को ये अन्नागिरी खूब रास आ रही है. समानता भी दोनों में ये है कि दोनों कभी भाजपायी थे , आज दोनों कांग्रेसी हैं, दोनों युवा है और दोनों ब्राह्मण हैं. सेवेन-क्रिमिनल एक्ट, आत्महत्या को प्रेरित करने सहित तमाम मुकदमें एक युवा पर हैं. दुसरे महोदय के कारनामे भी कम नहीं हैं. फिलहाल अखबारों में सुर्ख़ियों में रहना ये बखूबी जानते हैं.जैसा कि सरकार करती है सभी आंदोलनकारियों की फाइलें तैयार रखती है, इनकी भी अपराधिक रिकार्ड

“मैं हूँ अन्ना” के नारे का असल. बोये कानपुर, देश काटे फसल

आजादी की दूसरी लड़ाई में भी कानपुर ने अपने सशक्त हस्ताक्षर दर्ज कराये और प्रमाणित किया कि गणेश शंकर विद्यार्थी, चंद्रशेखर आज़ाद, हसरत मोहानी की धरती हक की लड़ाई में किसी से पीछे नहीं है. देश को जब भी बलिदान की आवश्यकता हुयी है कानपुर ने सदा आगे बढ़कर अपनी भूमिका अदा की है. वैचारिक सहयोग में भी यह शहर पीछे नहीं रहा है.        स्वतन्त्रता के प्रथम संघर्ष – 1857, में कमल-रोटी के बहाने प्रतीकात्मक सन्देश भेजने की मुहिम कानपुर के चमनगंज के बाग में रची गयी. इसी प्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जी के द्वारा अमर शहीद रोशन सिंह की पुत्री के कन्या-दान के द्वारा एक गहरा सामाजिक सन्देश दिया गया. उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता को देश की सबसे बड़ी जरूरत माना था. अपनी अंतिम सांस तक वे इस काम  में लगे रहे.इसी क्रम  में 1975 में आपातकाल के दौरान जब देश के लोकतंत्र पर ख़तरा मंडराया तो कानपुर के एक समाजवादी नेता मुरारीलाल पुरी ने एक नारा दिया ‘डरो मत ! अभी हम ज़िंदा हैं.’ जिसे बाद में जय प्रकाश नारायण जी ने दिल्ली में उद्घोषित किया . ये नारा पूरे आंदोलन को उसी तरह से एक सूत्र में बंधे रखने में सफल रहा जै