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Showing posts from December, 2011

जय प्रकाश के बहाने अन्ना पर चिंतन

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो— इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है (दुष्यंत कुमार)

एक पुरानी कविता नये साल पर

शाम वही थी सुबह वही है नया नया क्या है दीवारों पर बस कलैंडर बदला बदला है उजड़ी गली, उबलती नाली, कच्चे कच्चे घर कितना हुआ विकास लिखा है सिर्फ पोस्टर पर पोखर नायक के चरित्र सा गंदला गंदला है दीवारों पर बस कलैंडर बदला बदला है दुनिया वही, वही दुनिया की है दुनियादारी सुखदुख वही, वही जीवन की, है मारामारी लूटपाट, चोरी मक्कारी धोखा घपला है दीवारों पर बस कलैंडर बदला बदला है शाम खुशी लाया खरीदकर ओढ ओढ कर जी किंतु सुबह ने शबनम सी चादर समेट रख दी सजा प्लास्टिक के फूलों से हर इक गमला है दीवारों पर बस कलैंडर बदला बदला है वीरेंद्र जैन

साम्यवाद या फिर परम्परावाद

मेरे मित्र और अग्रज ईशान अवस्थी ने कई दिनों पहले लिखा है "अपने-अपने सूरज हैं... किसी का सूरज आधी रात को निकलता है.. " वों कहते हैं तों सही भी होगा..... ...... ......... पर इस बहाने हम भी कुछ कहना चाहते हैं. वों ये की उसी तरह हर सूरज के  अपने-अपने सूर्यमुखी भी होते हैं. सूरजों ने जब से अपना ताप और आब खोयी है...... और अपने इन सूर्यमुखियों की संतुष्टि के हिसाब से सोंचना शुरू किया है स्थिति बदल गयी है..... सूर्य के सूर्यत्व बनाए रखने का प्रश्न मौजूं हो गया है...... (जातीय खांचे में एक ब्राह्मण होने के नाते मेरा ये कथन संभव है जातीय श्रेष्ठता का द्योतक कहलाये.) परन्तु सूर्यमुखियों का आज के जैसा सशक्तीकरण "कबीलावादी" संस्कृति का उदय सा है.... पर सूर्य का क्या अपराध है जी वजह से इतना कमजोर होने की सज़ा पा रहा है ??? सूर्य-मुखियों में अपने लिहाज और जरूरत के हिसाब से सूर्य को दिया जा रहा संताप साम्यवादी मानसिकता का द्योतक लगता है. तों क्या अब इन सूर्य-मुखियों के उदय का स्वागत किया जाना चाहिए???? दुसरे शब्दों में - इसे शक्ति का विकेन्द्रीकरण भी कह सकते हैं ....और लोकतंत्र

चुनाव का बजा बिगुल, राजनीतिक दल हत-बल

          आज देश के पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव घोषित हो गए हैं. उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दलों की गहमा-गहमी बढ़ गयी है. कांग्रेस, भाजपा, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी सत्ता के खेल के मुख्य खिलाड़ी हैं. इन सभी राजनीतिक पार्टियों ने इस बार के विधान सभा चुनाव को  केन्द्र की सत्ता तक पहुँचने की सीढ़ी मान अपना हर कस-बल दाँव पर लगा रखा है.           बिना संगठन के मजबूत ढाँचे के कांग्रेस अपने सबसे होनहार नायक राहुल गांधी के भरोसे है. एक पुराने कांग्रेसी नेता मानते हैं की बिना जनता में सीधे जाए कुछ नहीं होने वाला. आज प्रदेश में कांग्रेस  के प्रत्याशी  ये मानकर चल रहे हैं की जब और जिस भी विधान-सभा में राहुल या सोनिया जी आ जायेंगी बस सारे वोट उसे ही मिल जायेंगे. ऐसा नहीं है. जनता से बढ़ी दूरी इन कांग्रेसी प्रत्याशियों की सबसे बड़ी समस्या है. जिससे उबरने का मंत्र उनके पास नहीं है. 'वों' ये नहीं समझ पा रहे हैं की जनता उन्हें क्यों वोट करे ???  देश-व्यापी बढ़ती महँगाई, काला धन वापसी की मांग और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का प्रभाव इस बार के विधान सभा चुनाव  में जरूर पडेगा.  

आये चुनाव ,मीडिया कवरेज पक्की करने के लिए बँटने लगा पत्रकारों में "डग्गा"

आये चुनाव ,मीडिया कवरेज पक्की करने के लिए    बँटने लगा पत्रकारों में "डग्गा" चुनाव पत्रकारों और समाचार माध्यमों के लिए सहालग जैसा अवसर होते हैं. बहुत सारे अखबार और चैनल सिर्फ इसी अवसर में पैदा होते हैं. जिनके चमचमाते दफ्तर सिर्फ इसी समयावधि में गुलज़ार होते हैं. इनसे बहुत दूर-दराज के क्षेत्रों में जब राष्ट्रीय स्तर के राजनेता आते हैं तो स्थानीय पत्रकारों की चांदी हो जाती है. अब इन राजनेताओं ने मीडिया मैनेजर नियुक्त कर रखे हैं. जो अपनी पसंद के आधार पर ये सहालगी दक्षिणा वितरित करते हैं. पत्रकारों में ये "डग्गा" के नाम से प्रचलित है. जब से मीडिया हाउसेज ने सीधे राजनीतिक पार्टियों से सम्बन्ध स्थापित करके अपना दाम तय कर लिया है, तब से स्थानीय पत्रकारों में प्रिंट मीडिया के पत्रकारों के पास केवल जूठन-जाठन  ही रह गयी है. दूसरी तरफ इलेक्ट्रोनिक मीडिया  है जिसमें बिना वेतन-भत्ते के कैमरामैन सहित पूरी टीम लेकर चलने वाले पत्रकार हैं जिनके पास अपनी पहचान का संकट है. केवल माइक के आगे लगी आई. डी. के अतिरिक्त प्रेस-क्लब और प्रशासन में अपने केवल बेहतर संबंधों के दम प

कांशीराम का थप्पड़

नोएडा स्टेडियम में बामसेफ का सम्मेलन चल रहा है। यहां कई लोग मिले जो कांशीराम के युवा दिनों के साथी रहे हैं। बल्कि यह बताते रहे कि कांशीराम हमारे युवा दिनों के साथी हैं। पुणा की बात बताने लगे। कहा कि कांशीराम पुणे आर्डिनेंस फैक्ट्री में काम करते थे। तब उन्हें अंबेडकर के बारे में कुछ पता नहीं था। कांशीराम एक हंसते खेलते सिख नौजवान थे। एक दिन दिनामाना नाम के चपरासी से अपने अधिकारी कुलकर्णी से १४ अप्रैल को छुट्टी मांगी। कुलकर्णी ने अंबेडकर जयंती के लिए छुट्टी नहीं दी। दीनामाना ने नाराज़ होकर बात कांशीराम को बताई। कांशीराम ने कहा ये कौन है जिसके लिए तुम छुट्टी मांग रहे हैं। नहीं मिली तो क्या फर्क पड़ता है। तभी बामसेफ के संस्थापक डी के खापर्डे ने कांशीराम को बहुत डांटा। समझाया कि आपको नौकरी मिली है अंबेडकर की वजह से। वर्ना बिना आरक्षण के ये लोग नौकरी भी नहीं देते। ये सब चंद पल थे जिसने कांशीराम को कुछ सोचने पर मजबूर किया। गुस्से में कांशीराम ने कुलकर्णी को चांटा मार दिया। बस सस्पेंड हो गए। इसी बीच बामसेफ की स्थापना हो गई। ४० लोगों की टीम ने छुट्टी के दिनों में देश में घ

खुद के गिरेबां में भी झांके टीम अन्ना

इसमें कोई दोराय नहीं है कि आर्थिक आपाधापी और भ्रष्ट राजनीति के कारण भ्रष्टाचार के तांडव से त्रस्त देशवासियों की टीम अन्ना के प्रति अगाध आस्था और विश्वास उत्पन्न हुआ है और आम आदमी को उनसे बड़ी उम्मीदें हैं, मगर टीम के कुछ सदस्यों को लेकर उठे विवादों से तनिक चिंता की लकीरें भी खिंच गई हैं। हालांकि कहने को यह बेहद आसान है कि सरकार जवाबी हमले के बतौर टीम अन्ना को बदनाम करने के लिए विवाद उत्पन्न कर रही है, और यह बात आसानी से गले उतर भी रही है, मगर मात्र इतना कह कर टीम अन्ना के लिए बेपरवाह होना नुकसानदेह भी हो सकता है। इसमें महत्वपूर्ण ये नहीं है कि किन्हीं विवादों के कारण टीम अन्ना के सदस्य बदनाम हो रहे हैं, बल्कि ये महत्वपूर्ण है कि विवादों के कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन प्रभावित हो सकता है। आंदोलन के नेता भले ही अन्ना हजारे हों, मगर यह आंदोलन अन्ना का नहीं, बल्कि जनता का है। यह वो जनता है, जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्सा है और उसे अन्ना जैसा नेता मिल गया है, इस कारण वह उसके साथ जुड़ गई है। वस्तुत: जब से टीम अन्ना का आंदोलन तेज हुआ है, उसके अनेक सदस्यों को विवादों मे

संडास या मोबाईल फोन!

आज सुबह सुबह एक अंग्रेजी ब्लॉग  पर एक विदेशी की टिप्पणी दिखी कि सन 2011 में हिन्दुस्तान में जितने संडास हैं उनसे अधिक मोबाईल फोन हैं. इस खबर पर कई लोगों ने काफी चुटकी ली एवं कई लोगों ने हंसी की तो मैं ने एकदम टिप्पणी की “क्या आप लोगों को लगता है कि हिन्दुस्तान में लोग जान बूझकर संडास बनाने से किनारा करते हैं”. मैं ने कुछ और भी बातें लिखीं जिसका असर यह हुआ कि मूल टिप्पणी जिसने की थी उसने तुरंत एक माफीनामा मुझे भेजा और उस पूरी चर्चा को हटा दिया. उसके स्थान पर मेरी टिप्पणी छाप दी कि “यदि मोबाईल जिस कीमत में खरीदा जा सकता है उस कीमत में संडास बनाने की सहूलियत होती तो आज हर हिन्दुस्तानी के पीछे कम से कम दो संडास होते”. मुझे खुशी है कि मेरी बात उन लोगों को समझ में आ गई. समस्या यह है कि हिन्दुस्तान के विरुद्ध कोई भी देशीविदेशी व्यक्ति कोई टिप्पणी करता है तो उसका विश्लेषण करने के बदले हम लोग तुरंत उस बात को मान लेते हैं. फलस्वरूप निराशाजनक नजरिया आगे बढता जाता है. निम्न कथन जरा देखें: हिन्दुस्तानी लोग सुधर नहीं सकते हिन्दुस्तानी लोग सुधरना नहीं चाहते हिन्दुस्तान में उन्

बंद गली में खड़ी कांग्रेस

कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद गुरदास दासगुप्त का कहना है कि रिटेल में एफडीआई के फैसले को स्थगित करने का फैसला भारत सरकार का है, बंगाल सरकार का नहीं। इसकी घोषणा बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की। दो रोज पहले तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह रहे थे कि यह फैसला सुविचारित है और इसे वापस लेने की कोई सम्भावना नहीं है। ममता बनर्जी ने वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का हवाला देकर कहा है कि जबतक इस मामले में सर्वानुमति नहीं होती यह फैसला स्थगित रहेगा। प्रणब मुखर्जी का कहना है कि सरकार का दृष्टिकोण संसद में व्यक्त किया जाएगा। संसद का सत्र चल रहा है मैं कोई घोषणा नहीं कर सकता। बुधवार को पता लगेगा कि सरकार क्या कह रही है, पर लगता है कि यूपीए ने अपना मृत्युलेख लिख लिया है। क्या सरकार अपनी पराजय की घोषणा करने वाली है? मनमोहन सरकार के सबसे महत्वाकांक्षी सुधार कार्यक्रमों में से एक के ठंडे बस्ते में जाने के राजनीतिक संदेश साफ हैं। इसके आगे के सुधार कार्यक्रम अब सामने आ भी नहीं पाएंगे। ममता बनर्जी का कहना सही है कि गठबंधन सरकार में महत्वपूर्ण फैसले सहयोगियों से विमर्श के बाद होने चाहिए। पर का

मेरे पास वॉलमार्ट है

        किसी सरकारी स्कूल की एक कक्षा शोर-शराबे और हंगामे के लिए बहुत बदनाम थी. वहाँ के मास्टर भी उस क्लास को ढंग से डील नहीं कर पाते थे. कई बार तो    मॉनीटर ही क्लास को संभालता था. एक दिन हेडमास्टर खुद सारे मामले की तहकीकात करने क्लास में पहुँच गए. कक्षा में आदतन बच्चे बड़ा उधम मचाये हुए थे. डंडा लेकर हेडमास्टर को क्लास में घुसते देख अचानक चुप्पी पसर गयी.       कूटनीति में उस्ताद हेडमास्टर हंगामे की असल वजह जानना चाह रहे थे. सबसे बाँई तरफ बैठे बच्चे से उनहोंने पूछा,बेटा, इस हंगामे की वजह क्या है ? बच्चा बोला, मेरे पास बढती महंगाई के खिलाफ नारा है, स्थगन प्रस्ताव है. मेरे पास एफडीआई का पुतला है, जिसे फूंकने का कार्यक्रम है. पेट्रोल दाम बढाने के खिलाफ गुस्सा है. डीजल, केरोसिन और गैस की कीमतें बढाने के खिलाफ रणनीति है. मेरे पास सिस्टम के खिलाफ स्थायी गुस्सा है.       बच्चे के सयाने जवाब से हेडमास्टर हैरान थे. अब वह क्लास में दाई और बैठे बच्चे से मुखातिब हुए. उसकी छवि क्लास में विपक्ष के लीडर के तौर पर है.  हेडमास्टर ने अपना सवाल रिपीट किया. बच्चे ने जवाब दिया, सर, मुझे काले धन व

देश नहीं, सत्ताधारियों की आजादी

Punya Prasun Bajpai पहली बार विदेशी निवेश पर घिरे 'मनमोहनोमिक्स' ने मौका दिया है कि अब बहस इस बात पर भी हो जाये कि देश चलाने का ठेका किसी विदेशी कंपनी को दिया जा सकता है या नही। संसदीय चुनाव व्यवस्था के जरीये लोकतंत्र के जो गीत गाये जाते हैं अगर वह आर्थिक सुधार तले देश की सीमाओं को खत्म कर चुके हैं,और सरकार का मतलब मुनाफा बनाते हुये विकास दर के आंकड़े को ही जिन्दगी का सच मान लिया गया है तो फिर आउट सोर्सिंग या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरीये सरकार चलाने की इजाजत अब क्यों नहीं दी जा सकती। अगर 69 करोड़ वोटरों के देश में लोकतंत्र का राग अलापने वाली व्यवस्था में सिर्फ 29 करोड़ [ 2009 के आम चुनाव में पड़े कुल वोट लोग ]वोट ही पड़ते हैं और उन्हीं के आसरे चुनी गई सरकार [ कांग्रेस को 11.5 करोड़ वोट मिले ] यह मान लेती है कि उसे बहुमत है और उसके नीतिगत फैसले नागरिको से ज्यादा उपभोक्ताओं को तरजीह देने में लग जाते हैं तो फिर यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिये कि देश के 40 करोड़ उपभोक्ताओ को जो बहुराष्ट्रीय कंपनी अपने साथ जोड़ने का मंत्र ले आये देश में उसी की सत्ता हो जाये। असल में छोटे और मझो

गयासुद्दीन गाजी के पोते थे पंडित जवाहर लाल नेहरू

    जम्मू-कश्मीर में आए महीनों हो गए थे, एक बात अक्सर दिमाग में खटकती थी कि अभी तक नेहरू के खानदान का कोई क्यों नहीं मिला, जबकि हमने किताबों में पढ़ा था कि वह कश्मीरी पंडित थे।  नाते- रिश्तेदार से लेकर दूरदराज तक में से कोई न कोई नेहरू खानदान का तो मिलना ही चाहिए था। नेहरू  राजवंश कि खोज में सियासत के पुराने खिलाडिय़ों से मिला लेकिन जानकारी के नाम पर मोतीलाल नेहरू  के पिता गंगाधर नेहरू का नाम ही सामने आया। अमर उजाला दफ्तर के नजदीक बहती तवी के किनारे  पहुंचकर एक दिन इसी बारे में सोच रहा था तो ख्याल आया कि जम्मू-कश्मीर वूमेन कमीशन की सचिव  हाफीजा मुज्जफर से मिला जाए, शायद वह कुछ मदद कर सके। अगले दिन जब आफिस से हाफीजा के  पास पहुंचा तो वह सवाल सुनकर चौंक गई। बोली पंडित जी आप पंडित नेहरू के वंश का पोस्टमार्टम करने  आए हैं क्या? कश्मीरी चाय का आर्डर देने के बाद वह अपने बुक रैक से एक किताब निकाली, वह थी रॉबर्ट  हार्डी एन्ड्रूज कि किताब "ए लैम्प फार इंडिया- द स्टोरी ऑफ मदाम पंडित।" उस किताब मे तथाकथित  गंगाधर का चित्र छपा था, जिसके अनुसार

पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले...........

.................एक हाल में बहुत सारे खिडकी-दरवाजों को अंदर से बार-बार बंद करने का प्रयास करतीं फिल्म की नायिका हेमामालिनी . और उन्हें सौम्यता के साथ छेड़ते और इस कालजयी गीत को गुनगुनाते  देव आनंद..........         यूं तो ये फिल्म  मेरे जीवन में  पहली फिल्म न थी. परन्तु इस फिल्म के सारे किरदार और उसका कथानक आज भी स्मृति-पटल पर पुख्ता तरीके से अंकित है. याद पड़ता है इस फिल्म को मैंने आज तक लगभग पचास बार तो देखा ही होगा. उस समय बड़े भाई से सुना करता था की कैसे देव साहब को लाल और काले कपडे पहनने से सरकार ने रोक रखा था. पता नहीं सच था या फैंटेसी... पर बाल-मन में एक अजीब सा आकर्षण और जिज्ञासा  इस चितेरे के प्रति उपजा. टेलीविजन में मात्र दूरदर्शन में रविवार को फ़िल्म आती थी. सप्ताह भर  का इंतज़ार.... फिर कुछ समय बाद फिल्म  शनिवार को भी आने लगी.... चित्रहार और रंगोली भी इसी तरह से लोकप्रिय और इंतज़ार का केंद्र बनते गए. ये सब देखने के लिए अम्मा से मनुहार और बड़े भाई से बाग़ी तेवर दिखाकर लगभग विद्रोही तेवर अपनाना पड़ता था. खासकर तब जब फिल्म के  नायक देव आनंद हों.....            मेरे साथ

सर्वोच्च न्यायालय के नाम खुला पत्र

by  Himanshu Kumar  on Saturday, December 3, 2011 at 8:46p.m. माननीय न्यायाधीश महोद्य, सर्वोच्च न्यायालय, नईदिल्ली यह पत्र मैं आपको सोनी सोरी नाम की आदिवासी लड़की के सम्बन्ध में लिख रहा हूँ, जिसके गुप्तांगो में दंतेवाडा के एस.पी. ने पत्थर  भर दिये थे और जिसका मुकदमा आपकी अदालत में चल रहा हैІ उस लड़की की मेडिकल जाँच आपके आदेश से कराई गई और डाक्टरों ने उस आदिवासी लड़की के आरोपों को सही पाया और डाक्टरी रिपोर्ट के साथ उस लड़की के गुप्तांगो से निकले हुए तीन पत्थर भी आपको भेज दियेІ कल दिनांक ०२-१२-२०११ को आपने वो पत्थर देखने के बाद भी उस आदिवासी लड़की को छत्तीसगढ़ के जेल में ही रखने का आदेश दिया और छत्तीसगढ़ सरकार को डेढ़ महीने का समय जवाब देने के लिए दिया हैІ जज साहब मेरी दो बेटियाँ हैं अगर किसी ने मेरी बेटियों के साथ ये सब किया होता तो मैं ऐसा करने वाले को डेढ़ महीना तो क्या डेढ़ मिनट की भी मोहलत न देता! और जज साहब अगर यह लड़की आपकी अपनी बेटी होती तो क्या उसके गुप्तांगों में पत्थर डालने वालों को भी आप पैंतालीस दिनों का समय देते? और क्या उससे