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Showing posts from September, 2022

दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी....

      वास्तव में, हमारे जीवन में इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि कल विश्व ह्रदय दिवस था? यह भी कि ह्रदय के दिल कहलाने से क्या फर्क पड़ जाता है?      शायद आपको सड़क-सुरक्षा को लेकर बरसों-बरस पहले दूरदर्शन पर आने वाले विज्ञापन की याद हो - जिसमें रेलवे के बंद क्रासिंग से निकलने पर दुर्घटना का शिकार हुए दिवंगत व्यक्ति की दीवार में माला के साथ टंगी फोटो के अन्दर से आत्मा कहती है- "भाई, फर्क तो पड़ता है" .      सभी शहरों में कल इस अवसर पर हुए सेमिनारों की समाचार-पत्रों में खूब कवरेज आई है, जिसमें खराब जीवन-शैली के कारण होने वाली बीमारियों जैसे- मधुमेह, उच्च रक्तचाप और मोटापा के कारण ह्रदय-घात और ब्लाकेज की समस्या पर परिचर्चा हुयी. पूरी समस्या आर्थिक विकास के कारण जीवन स्तर में अनियंत्रित परिवर्तन के कारण खान-पान व जीवन-शैली में नक़ल के कारण ह्रदय की बीमारी आम हो गयी है. कचौड़ी, पकौड़ी, जलेबी,परांठे, कुल्चे,भटूरे आदि तो हम हजम कर लेते थे पर पिज्जा, बर्गर, नूडल्स, मोमोज और शराब-कोल्ड ड्रिंक्स जैसे अनावश्यक खाद्य पदार्थों को भोजन की थाली में जोड़ने के दुष्परिणाम हमारी पीढ़ियों को भोगना पड़ रहा

अथ सौंधी हरड़ (हर्रे) कथा

 .      ........... गाँव बाहर के पीपल के पेड़ के नीचे एक पहुँचे हुए सिद्ध सन्यासी आए हैं, ये ख़बर पूरे गाँव में आग की तरह फैल गयी।      चुन्नू भी अपने मुँहबोले 'पंडित बाबा' को उन चमत्कारी बाबा के आने के बारे में बता चुका था। उसने बहुत ज़िद की, लेकिन पंडित बाबा पीपल के पेड़ के नीचे जमे बैठे सन्यासी से मिलने के लिए बिलकुल भी सहमत ना हुए।गाँव में सभी बच्चे, युवक, महिलाएँ और बूढ़े सरपट भागे जा रहे थे।     पंडित  बाबा ने अपने जीवन में पचासी बसंत देखे थे, उनका अनुभव और व्यक्तित्व विशाल था। उन्हें ऐसे तमाशाई सिद्धों और महंतों पर बहुत या थोड़ा भी यक़ीन ना रह गया था। इसे यूँ समझिए कि गाँव-जवार में 'पंडित बाबा' के नाम से प्रसिद्ध राजीव मिश्र जी, ज्ञान और अनुभव के मामले में किसी इंसाइक्लोपीडिया से कम ना थे। देश को आज़ादी उनके जीवन में ही मिली थी। असल में, लोहिया, जयप्रकाश, लाल बहादुर, इंदिरा, राजीव, अटल बिहारी, अन्ना हज़ारे और मोदी जी सभी के युग और आंदोलनों के एकमात्र साक्षात गवाह थे- "पंडित बाबा"। देश की हरित क्रांति, औद्योगिक क्रांति, दुग्ध क्रांति, मिसाइल युग, परमा

सुन मेरे चाचा, हाँ भतीजे

     ....कहते हैं, इतिहास खुद को दोहराता अवश्य है. पहली बार ये विभिन्न परिस्थितियों में घटता है, लेकिन दूसरी बार इसकी विद्रूप पुनरावृत्ति होती है.      जैसा कि हम सभी जानते हैं कि वर्तमान उत्तरप्रदेश अवध के राजा प्रभु श्रीराम के राज्य क्षेत्र का ह्रदय-स्थल रहा है. यहाँ के विभिन्न स्थल प्रभु राम की लीलाओं के गवाह रहे हैं. प्रभु की लीला को सर्वप्रथम महर्षि बाल्मीकि ने संकलित किया. आज देश की सभी भाषाओं में रामायण लिखी जा चुकी है, जो इसकी व्यापक स्वीकार्यता का परिचायक है. सामाजिक जीवन में सभी रिश्तों के कर्तव्य और मर्यादा के बारे में तुलसीदास की रामचरितमानस में विषद वर्णन है, जिनसे वर्तमान और आने वाली पीढियां प्रेरणा प्राप्त कर सकती हैं.     प्रभु राम की गाथा में कई चाचा-भतीजों का उल्लेख मिलता है- सुग्रीव-अंगद, विभीषण-मेघनाद, लक्ष्मण-लव-कुश आदि, जिनमें अंगद ने अपने चाचा सुग्रीव का नेतृत्व मान लिया और मेघनाद से डरकर विभीषण कभी युद्ध के मैदान में सामने नहीं आया. इनमें से प्रभु राम के साथ बालपन से साथ रहे नागराज शेष के अवतार श्री लक्ष्मण जी के सहयोग, बलिदान और समर्पण की युगों तक  मिसाल दी जात

जितना "बड़ा", उतना "सड़ा"

       .......कल खबर आई, पिद्दी समझे जाने वाले उक्रेन के खारकीव से महाकाय और विश्वशक्ति रूस की सेनायें खदेड़ दी गयीं.       कुछ बरस पहले इसी तरह वियतनाम से भी दुनिया की घोषित नम्बर- 1 देश अमेरिका की सेनाओं को मुंह की खानी पड़ी थी.       ऐसे लाखों उदाहरण हैं, जब किसी भी बड़े ने बहुत छोटे को दबाने में अपनी अथाह ताकत के घमंड से चूर होकर "बल" का दुरूपयोग किया है और उसे मुंह की खानी पड़ी. उक्रेन और रूस का प्रकरण ताजा उदाहरण है. ऐसा भी हो सकता है कि कल को रूस अधिकतम आयुध प्रयोग कर उक्रेन को पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर दे, लेकिन स्वाभिमान और मानवता की कीमत पर पाई गयी पाशविक जीत सम्राट अशोक द्वारा कलिंग विजय की तरह पूरी तरह निरर्थक और निरुद्देश्य साबित होगी. इस प्रकार, सदैव ही बल-प्रयोग की प्रवृत्ति मानवता को अधिकतम क्षति पहुंचाती है.      इस प्रकार की घटनाओं से साबित होता है कि किसी के आकार, प्रकार, पद-कद और सम्पन्नता-विपन्नता के आधार पर किया गया बल-प्रयोग कभी भी वास्तविक विजय नहीं दिलाता और सदैव ही निकृष्टता का प्रतिमान स्थापित करता है. हम सबने अपने इर्द-गिर्द के जीवन में ऐसे ढेरों उदाह

बेबी को डॉन पसंद है....

मेरी उमर के  (बुढ़ाते हुए) नौजवानों ,      तुम सब ने भी मेरी ही तरह खलनायक जैसे नायकों पर बनी फ़िल्में खूब देखी ही होंगी. जिनमें हीरो नियम-क़ानून को धता बताते हुए खूब गैर-कानूनी काम करता है और पुलिस को बार-बार चकमा देने में सफल होता है. कभी-कभी वो राबिनहुड की तरह सेठों से लुटे हुए धन से ग़रीबों की जरूरत पूरी करने जैसा कथित परोपकारी काम भी करता है. क़ानून को सर्वोपरि साबित करने और अपराध को बढ़ावा नहीं देने की सरकारी नीति के कारण कुछ फिल्मों में इन "कथित नायकों" को जेल जाने या मारे जाने के सीन भी फिल्माए जाते हैं, लेकिन तमाम एहतियातों के साथ, जिससे उनके फैन बेकाबू न हो जाएँ.      हाल में, तमाम कुख्यात अपराधियों और माफियाओं की बायोपिक फिल्मों को रुपहले परदे पर उतारा गया. शूटआउट एट लोखंडवाला, हसीना, सत्या, बुलेट राजा, वंस अपान इन मुंबई और जाने ही कितनी फिल्मों में असल जिन्दगी के खलनायकों को बड़े परदे पर बहुत खूबसूरत अंदाज में दयावान और महान के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया गया. इन सभी कहानियों में उन परिस्थितियों का विषद और भावनात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया कि विषम और विकट परिस

नाम में आख़िर कुछ तो ख़ास है

     आज़ादी के अमृत महोत्सव पर लाल क़िले से "ग़ुलामी के प्रतीकों" को अलविदा करने के माननीय प्रधानमंत्री जी के ऐलान ने हर भारतीय का मन गद-गद कर दिया।         इस ऐलान के परिणाम भी अब दिखने लगे हैं।      सेंट्रल विस्टा परियोजना के उद्घाटन के समय नेताजी सुभाषचंद्र बोष जी की प्रतिमा का अनावरण देश के लिए अत्यंत गर्व के पल रहे। इस प्रतिमा को ब्रिटिश राजा रहे जार्ज पंचम की प्रतिमा के स्थान पर लगाने में इतने बरस क्यों लगे, यह अत्यंत खेद और कुशासन का प्रतीक है।     इसी के साथ "राजपथ" का नाम "कर्तव्य पथ" में बदल दिया गया। मोदी जी ने अपनी पहली शपथ के दौरान ख़ुद को "प्रधान सेवक" घोषित किया था। इस वजह से "कर्तव्य पथ" के स्थान पर नामकरण "सेवा पथ"  अधिक उचित रहता। यदि "राज" शब्द ग़ुलामी का प्रतीक है तो एक साथ कम्प्यूटर में इसे डालकर एक साथ सेलेक्ट कर "कर्तव्य" के साथ रिप्लेस कर दिया जाए। राज भवन, राज मिस्त्री, राज कुमार, राज कपूर, राज निवास, राज पत्रित अधिकारी, राजस्थान, राज भाषा, राज भोग, राज कचौड़ी जैसे तमाम शब्द