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दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी....

 

    वास्तव में, हमारे जीवन में इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि कल विश्व ह्रदय दिवस था? यह भी कि ह्रदय के दिल कहलाने से क्या फर्क पड़ जाता है?

    शायद आपको सड़क-सुरक्षा को लेकर बरसों-बरस पहले दूरदर्शन पर आने वाले विज्ञापन की याद हो - जिसमें रेलवे के बंद क्रासिंग से निकलने पर दुर्घटना का शिकार हुए दिवंगत व्यक्ति की दीवार में माला के साथ टंगी फोटो के अन्दर से आत्मा कहती है- "भाई, फर्क तो पड़ता है".

     सभी शहरों में कल इस अवसर पर हुए सेमिनारों की समाचार-पत्रों में खूब कवरेज आई है, जिसमें खराब जीवन-शैली के कारण होने वाली बीमारियों जैसे- मधुमेह, उच्च रक्तचाप और मोटापा के कारण ह्रदय-घात और ब्लाकेज की समस्या पर परिचर्चा हुयी. पूरी समस्या आर्थिक विकास के कारण जीवन स्तर में अनियंत्रित परिवर्तन के कारण खान-पान व जीवन-शैली में नक़ल के कारण ह्रदय की बीमारी आम हो गयी है. कचौड़ी, पकौड़ी, जलेबी,परांठे, कुल्चे,भटूरे आदि तो हम हजम कर लेते थे पर पिज्जा, बर्गर, नूडल्स, मोमोज और शराब-कोल्ड ड्रिंक्स जैसे अनावश्यक खाद्य पदार्थों को भोजन की थाली में जोड़ने के दुष्परिणाम हमारी पीढ़ियों को भोगना पड़ रहा है.

      बिचारे दिल का सबसे ज्यादा बंटाधार तो हिन्दी सिनेमा ने कियी. चिकित्सकीय भाषा में जो दिल पूरे शरीर में रक्त-आपूर्ति की मशीन है, उसे मोहब्बत और साजिश का अड्डा बना दिया. सोंचने और विचारने की क्षमता मस्तिष्क के पास होती है नाकि दिल के पास, लेकिन फ़िल्मी दुनिया के प्रयोगों के कारण दिल पर बोझ बढ़ चुका है. "दिल" जोड़कर सैकड़ों फ़िल्में और लाखों गाने बना डाले. सबसे ज्यादा फंतासी तो आनंद बक्शी ने एक गाने में की, जब ये लिख दिया- "तेरा दिल धडके मेरे सीने में-मेरा दिल धड़के तेरे सीने में". हद है, मोहब्बत दर्शाने के लिए दोनों के दिल निकालने और लगाने का खर्च और रिस्क तो बक्शी जी ने सोंचा ही ना होगा. उन्होंने तो ये भी नहीं सोंचा कि इतने जटिल ह्रदय-शल्य की ये सुविधा हमारे देश में है भी या नहीं...... बस, जो मन आया, लिख डाला.

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