एक पुरानी दंतकथा है. बचपन में शायद पंचतंत्र में पढ़ी थी. अब तो बचपन में ये सब पढ़ा नहीं जाता. शायद अब तो वैसा बचपन भी नहीं आता. उसमें भी मशीन आ घुसी है. मशीनी और वर्चुअल स्पीडी खेलों वाले खिलौने तथा कार्टून फ़िल्में आ चुके हैं जो कामिक्स बुक्स को भी खा चुकी हैं, इन्होंने देशी खिलौनों और देशी नैतिक कथाओं वाले साहित्य को चलन से हटा दिया है. मैं भी, क्या ले बैठा ?? चलिए कोई बात नहीं, आपको सीधे कथा सुनाता हूँ. एक व्यापारी था. व्यापारी था तो कुछ बेचता भी होगा न. हाँ, वो टोपियाँ बेचता था. एक बार वो कई डिजाइन की टोपियाँ सैम्पल में लेकर जंगल के रास्ते किसी दूर के बाज़ार में जा रहा था.पैदल चलने के कारण हुयी थकान से उसने एक घने पेड़ के नीचे थोड़ी देर आराम करने की सोंची. जल्दी ही उसे झपकी लग गयी. जब उठा तो उसने देखा की उसके झोले में रखी सभी टोपियाँ गायब थीं. इधर-उधर देखने पर उसे पता चला की बंदरों ने उसकी टोपियाँ पहन ली है.उसने उनसे विनती की, रोया, गिडगिडाया, चीखा-चिल्लाया. बंदरों ने भी उसकी हर नक़ल की , पर टोपियाँ नहीं लौटाईं. थक-हार कर उसने अपनी टोपी उतार कर जमीन में