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Showing posts from February, 2011

अच्छा होता अगर कुछ और ठहर जाते

प्रदेश की वर्तमान सरकार का सबसे बड़ा तोहफा कानपुर में मुकेश मेश्राम का जिलाधिकारी के रूप में नियुक्त किया जाना था. सालों के बाद कानपुर को एक जीवंत अंदाज का ऐसा अधिकारी मिला जिसने अपने आठ महीने से कुछ अधिक के अल्प कार्यकाल में बच्चों से लेकर अशक्त वृद्धों तक अपनी पहुच दिखाई. का...नपुर में सालों बाद आई गंगा में बाढ़ के पीडितों के दर्द बांटने के मामले हों या फिर पनकी के पास घटित रेल-दुर्घटना, वे सदा पीडितों के साथ रहे.यह जीवन्तता उनका कानपुर महोत्सव के देर रात के कार्यक्रम में सहभागी बनकर भी जाहिर किया गया. यद्यपि कानपुर की सूरत-ए-हाल बदलने में कोई बहुत अधिक उन्हें सफलता नहीं मिली. आज भी सड़कों में गड्ढे हैं. हत्या और लूट की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है. उनके काल में ही इंदिरा आवास के घोटाले हो गए.यहाँ तक की गरीब ग्रामीण बच्चों और युवाओं के लिए बनने वाले स्टेडियम में घोटाले भी हो गए. दिव्या कांड जैसी निंदनीय घटना भी उसी समय घटी.पर व्यापक रूप से होने वाले इन विरोध-प्रदर्शनों के केंद्र में श्री मेश्राम कभी नहीं रहे.कारण उनका व्यक्तित्व और कृतित्व था. अपनी तमाम सीमाओं को जानते हुए बीच का सुहृद

..... कहो , जय गंगा मैया

............पहचान पाए या नहीं ? ये है गंगा मैया . कहो जय गंगा मैया. अरे मजाक नहीं कर रहा हूँ. ये कानपुर के सरसैया घाट या फिर जाजमऊ का नहीं, निचली गंगा नहर का एक दृश्य है. वास्तव में , ये भी गंगा का एक भाग है.राजा सगर के कुछ ऐसे अनतरे वंशजो को तारने के लिए ही अब ये महानदी नहर के रूप में हैं. ज़रा गौर करो, ये गंगा ही तो है जो हम...ारे शरीर में खुल का एक-एक बूँद बनकर बह रही है. यदि ये पावन जल न होता तो कृषि कार्यों के आवश्यक पानी न मिल पाता और हम सब प्यासे ही नहीं भूखों से भी मर जाते.वो बात अलग है कि अब न्यायालय ने भी कह दिया है , नहरों में पानी नदिओं से ज्यादा नहीं होना चाहिए. नहीं समझे,मैं समझाता हूँ, बांधों के जरिये रोके गए पानी का रुख हमारे युग के मानव ने खेतों कि ओर मोड दिया है.बिना पानी के जीवन कि कल्पना ही नहीं कि जा सकती.पर क्या यही सही विकल्प है ? हमारे देश में तालाबों और दूसरे प्राकृतिक जल-श्रोतों कि स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाने से नदिओं पर हमारी निर्भरता का बढ़ना हितकारी नहीं. ये अब हमें जान-समझ लेना ही चाहिए. सुधरने का प्रयास करें और सोचें इस दिशा में कि हम में से ही कोई इस पा

क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी.........

‎...... अच्छा ज़रा एक बार फिर से दिमाग पर जोर देते हुए सोचिये , (अगर आपके पास हो तो ). क्या हम कन्पुरिओं को किसी भी प्रकार कि शुभकामनाओं कि जरूरत है क्या? मुझे तो नहीं लगती. कारण ये है कि हम सभी भगवान के सबसे प्यारे बंदे हैं. हम कह रहे हैं त...ो ठीक ही होगा, ये न समझिए, इसका कारण समझिए. कभी इकबाल ने लिखा होगा........'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, ........' मैं कोई बौधिक नहीं दे रहा हूँ. बस छोटी सी जानकारी दे रहा हूँ कि देश प्रदेश कि सरकारों में पिछले 63 से अधिक साल कि आजादी के बावजूद कानपुर का कोई स्वरुप न बदलना और हमारा खुद का कोई राष्ट्रीय और प्रादेशिक नेता न होने के बावजूद वैसे का वैसा स्वरुप बने रहना ही तो हमारी विशेषता है. कोई आर. विक्रम सिंह हमें नहीं बदल सकते. हम उनके कहने पे साफ़-सुथरे होने से रहे. सड़क पे जब झम्म कि आवाज के साथ गुप्ताइन चाची कि महरी सीमा पोलिथीएँ में कूडा फेंकती है तब हम सब जानते हैं कि बारह बज गए हैं. ऐसे शहर में जहां गली की शोभा बढाते हुए लड़के खड़े ही इसी लिए होते हैं कि रूबी चोकलेट खा कर जब रैपर फेंकने बाहर आएगी तो एक बार फिर देख लेंगे. ये स

भारत मिश्र से बहुत दूर.....

मित्रों आज मैंने अपने पिछले पोस्ट का हल पा लिया है. भारत मिश्र से बहुत दूर है . कितना ? बहुत ज्यादा. ये मेरा किसी भ्रम या राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत होकर कहा गया कथन नहीं है. ये मेरा विशवास और निर्णय है. कारण भी बताता चलूँ. भारत भाग्य पर आधारित जीवन जीने वाले बहुतायत जनसंख्या वाला देश है. हम अपनी समस्या खुद हल करने का रास्ता नहीं... खोजने वाले लोग हैं. अपनी सभी समस्याओं के लिए आसमान से किसी फ़रिश्ते या देव-दूत के आने कि प्रतीक्षा में रहने वाले लोग हैं. और दूसरी बात ये कि मिश्र आने के लिए वहाँ जैसी तानाशाही भी तो अनिवार्य रूप से होनी चाहिए. जो अभी हमारे देश में नहीं है. जुल्म अभी इतना नहीं बढ़ा है. अभी रोटी-बेटी पर ख़तरा नहीं आया है. आजाद देश का शासक वर्ग ये जानता ही कि क्या न करो जिससे बचाव बना रह सकता है और मिश्र को और दूर बनाए रखा जा सकता है.मध्यम वर्ग अभी भारत में एक मजबूत कड़ी है, जो करों कि मार अभी झेलने में सक्षम है.. इसलिए हम अभी मिश्र से कोसों दूर हैं.

भारत मिश्र से कितना दूर ?

दोस्तों,  देश के हालातों में और गिरावट आ रही है. तहलका मैग्जीन में कुछ नाम उजागर किये हैं. अभी भी हमारे देश में मिश्र जैसे हालात नहीं बने हैं. हमारा देश एक प्रौढ़ लोकतंत्र है. परन्तु नक्सलवाद इसी तरह की घटनाओं की आहट है..... देश के उच्च पदस्थ राजनीतिज्ञों को इस मिश्र की आहट को सुनना और समझना चाहिए. प्रदेश की मुखिया के दौरे के दौरान परेशान-हाल... शोषित दलित महिलाओं का अपनी बात कहने के लिए किया जाने वाला संघर्ष और आला अधिकारिओं द्वारा उन्हें रोकने का किया जाने वाला प्रयास ऐसे हालात कभी भी पैदा कर सकता है. जनहितकारी सरकारें और उनके तौर-तरीकों से ही लोकतंत्र जीवित और दीर्घजीवी होता है. यही भारत कि पूँजी ही जो अनाम राजनेताओं के द्वारा लूटी जा रही है. प्रदेश में सत्ताधारी विधायकों और मंत्रिओं के काले कारनामों को न सुनकर आवाज दबाने के लिए की गयी कार्यवाहियां लोकतंत्र के लिए हितकर नहीं हैं. ऐसी ही घटनाएँ मिश्र जैसी स्थिति ला देते हैं.

हम आज भी शर्मा जी कि तलाश में हैं ......

भारत के इतिहास में शर्माओं का भी अति महत्वपूर्ण स्थान रहा है. विष्णु शर्मा यानी चाणक्य से शुरू करिये और चलते चले आइये , तमाम शर्माओं ने टनों कागज़ काले करने लायक कारनामे किये हैं. सत्यनारायण कि कथा में पंडित जी कहते हैं कि ‘अमुक नाम शर्मा’ और कहते हैं कि अपना नाम लो. बचपन से इसी तरह से मैं इस कथा को सुनता आ रहा हूँ. पिताजी के पिता जी भी इसी तरह से कथा सुनते आ रहे हैं. यानी हर युग में था तो ये एक ‘चिरजीवी शर्मा’. आजादी के बाद इन शर्माओं का जोर-जुलुम कुछ ज्यादा ही बढ़ गया. एक से बढ़कर एक शर्मा हुए हैं जिनके काले कारनामे हरी कि कथा कि तरह ही अनंत हैं. बी.एल.शर्मा ‘प्रेम’, सुखराम शर्मा, आर.के. शर्मा आदि-आदि. कानपूर के पहले नगर प्रमुख रतनलाल जी भी शर्मा ही थे. उनके अति नाम कमाऊ सूअर भगाऊ बेटे अनिल शर्मा भी कानपुर में इसी पद पर जनता के द्वारा चुने गए थे. ज्यादा दूर मत जाइए वर्ष 2011 में कानपुर में हुए लक्षचंडी यज्ञ के माध्यम से भ्रष्टाचार को भगाने में लगे दो शर्मा, एक शराब माफिया शर्मा और दूसरा धूप बत्ती वाला शर्मा, अति सक्रिय रहे. कानपुर में तैनात रहे पूर्व डी.आई.जी. हरी राम शर्मा का

एक सत्य......

मित्रों, अंतिम समय, जब छोड़ देते हैं सब साथ, तब भी एक वृक्ष ही,भले ही हो वो मृत, देता है साथ, अपनी चिडिओं,गिलहरिओं,घोसलों और मौसमों को छोड़कर, हमें बचाने का अंतिम प्रयास करता सा,वही करता है हमारे पहले अग्नि में प्रवेश, जलते तो हम रहेते ही हैं पूरे जीवन भर,पर अंतिम चिता में जलने में भी जरूरी होता, वह अकेला,हाँ , एक अकेला, जीवित नहीं मृत, एक वृक्ष . ... .... ..... ...... और हम हैं कि लक्ष-चंडी यज्ञ जैसे आयोजनों के माध्यम से हजारों-हज़ार आम के वृक्षों कि लकड़ी कि आहुति दे चुके हैं. प्रखर बाबा और हम जैसे अन्य पापात्माओं ने आम के क्या एक बबूल भी नहीं रोपा है. हमें अपने अंतिम संस्कार के बारे में सोच लेना चाहिए. मुझे तो लगता है कि हम सभी 'बेशर्म की लकडीओं' के ढेर में जलाए जायेंगे. क्योंकि जैसा चरित्र हो गया है अब हमारा उस स्थिति में आम से जलाए जाने लायक तो रहे नहीं. रही बात घी कि तो उसे छोडिये हम सभी नरसिम्हाराव से भी गए गुजरे साबित होंगे और उन्हें तो मिट्टी का तेल नसीब हो गया था हमारे जैसों को मिटटी का तेल भी नहीं नसीब होगा.उसको गरीबी के रेखा से नीचे के लोगों के लिए सुरक्षि