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Showing posts from 2018

प्राथमिक शिक्षा और भ्रष्टाचार का समाजवादी माडल

प्रत्येक प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय में ग्राम शिक्षा समिति नाम के सरकारी बैंक खाते में ग्राम-प्रधान और प्रधानाध्यापक की साझेदारी होती है। प्रति वर्ष विद्यालय के बच्चों की ड्रेस, मध्यांह भोजन की कंवर्जन-कास्ट और विद्यालय की रंगाई-पुताई की लागत आदि इस खाते में आती है। विगत चार वर्षों से ड्रेस आपूर्ति करने की कम्पनी का निर्धारण केंद्रीय स्तर हो जाता है, जिसमें अघोषित रूप से सभी बेसिक शिक्षा अधिकारियों को गुप्त निर्देश दे दिया जाता है की ड्रेस की आपूर्ति फ़लाँ सप्लायर ही करेगा। जिस दर पर ड्रेस की आपूर्ति करनी होती है, उस दर की चेक सप्लायर  प्रधानाध्यापक से एकत्र कर लेता है।प्रधान, प्रधानाध्यापक, खंड शिक्षा अधिकारी और बेसिक शिक्षा अधिकारी तक पहुँचने वाली रक़म के बँटने के बाद शेष धन से बच्चों को ड्रेस उपलब्ध कराई जाती है। प्रत्येक विद्यालय को वार्षिक रंगाई-पुताई के नाम पर पाँच से साढ़े सात हज़ार रुपये प्रदान किए जाते हैं, जिसके लिए कड़े दिशा-निर्देश भी जारी किए गए होते है कि पेंट किस कम्पनी का होगा और पुताई किस रंग की होगी, आदि-आदि। आज के बड़े आकार के विद्यालय-परिसर की पुताई के ल

अहम का वहम है क्या??

हम और हमारा अहम एक तरफ़ और जीवन की वास्तविकताएँ दूसरी तरफ़। अपने इस "अहम" को 'वहम" कहें तो ज़्यादा ठीक होगा, क्योंकि जीवन के प्रत्येक कार्य, उसके कारण और परिणाम में हमारी भूमिका केवल दर्शनार्थी जैसी ही होती है। ईश्वर और दर्शन के व्याख्याता और हम जैसे क्षुद्र प्राणी भी इसी अहम के वहम में जी रहे हैं। आज आम आदमी को मोह-त्याग, तपस्या और विरक्ति की सीख देने वाले विद्वान भी मोटी फ़ीस वसूलने के बाद ही यह ज्ञान दे पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में एक भोला-भाला आदमी, जिसका लक्ष्य सनमार्ग की खोज करनी है, किस पर, क्यों और कैसे भरोसा करे? यह स्थिति तब और भी ख़तरनाक हो रही है जब अहम के वहम में फँसे लोगों को मार्ग दिखाने का भ्रम रखने वाले लोगों का असली और फ़र्ज़ी रूप सामने आता जा रहा हो।  तो जीवन ख़ुद के बनाए प्रश्न-व्यूह और आवरण से उबरने का नाम है, नाकि किसी अतृप्त और व्यामोह में फँसे व्यक्ति के अनुसरण की भेड़-चाल का।

मुफ़्त का इंटरनेट और किशोर मन

भारत ठहरा अनेक धर्मों, बोलियों और विविध वैशिष्ट्य वाला रंग-रंगीला परजातंतर, जिसमें सबसे अधिक बाशिंदे किशोरवय के हैं। किशोर वय में मनोमस्तिष्क में तमाम विचार बादल और तूफ़ान से भी तेज़ी से आते हैं। वह कभी रहा होगा पीपल के नीचे बैठा चुपचाप, पर आज उपग्रह के माध्यम से आने वाले द्रुतगामी अन्तर्जाल (इंटरनेट) ने किशोर वय को असीम उड़ान दी है। साथ ही, एक ऐसा व्यामोह का मायाजाल भी दिया, जिससे निकलना उसके वश में नहीं दीखता। अब तो पहले जैसे काका-मामा भी नहीं मिलते तो सगे होने या नहीं होने के फेर से दूर घरेलू और नज़दीकी रिश्तेदारों से ज़्यादा प्रभावी तरीक़े से संरक्षण और मार्ग-निर्देशन किया करते थे। आज की इस जिज्ञासु पीढ़ी के लिए यह अन्तर्जाल उसकी ज़रूरत भी है, तो समस्या भी बन रहा है। अपने स्कूली दिनों में हमारी पीढ़ी के लोग “विज्ञान-वरदान या विनाश” विषय जब भी निबंध लिखते थे, तो शायद सोंच पाए थे कि आज के समय तक आते-आते ज्ञान और विज्ञान का क्या रूप और प्रभाव होगा? ईमानदारी से मानिए, तो आज के समय में विज्ञान का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आने वाले प्रभाव को मापना या कहिए की विज्ञान के हमले के प्र

सम्मान की जंग को लग सकता है मुरचा

............."उंह ये भी कोई बात है, जिसे लिखे दे रहे हो!" ये कह चचा चकल्लसी ने मुँह फेर लिया। मैं अपने प्रिय चचा को मनाने में लग गया। ठीक वैसे ही जैसे रूठे चाचा अपने भतीजे से उम्मीद करते हैं।  थोड़ा मान-मनौव्वल, थोड़ा मनुहार, थोड़ा खाना-पिलाना, थोड़ा गिफ़्ट-विफ़्ट और थोड़ा दाना-ख़ज़ाना आदि इत्यादि के बाद भारत में भतीजों से रूठे चाचा आख़िर मान ही जाते हैं।  अक्सर उनके मान जाने का यही ट्रेंड रहता है। लेकिन जब बात उत्तरप्रदेश की एक राजनीतिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूठे चाचा की हो, तो मामला च्युंगम से भी ज़्यादा लचीला और रबर से भी ज़्यादा खिंचाव वाला होता जा रहा है। यूँ तो उस पार्टी में बहुत से चाचा हैं- रूठे चाचा, ऐंठे चाचा, सगे चाचा, भगे चाचा और इन सब पर सबसे भारी हैं एक हीरोईनी के साथ वाले छंटे अंकल। जब इन सबके कोप से ग्रसित भतीजे के बारे में सोंचता हूँ तो बहुत दया आती है और ख़ुद को केवल चचा चकल्लसी से घिरा पाकर ख़ुशक़िस्मत भी मानता हूँ। हाँ तो,  मैं बात कर रहा था "रूठे चाचा" की। वो आख़िर क्यों, कब और कैसे रूठे ये गहन जाँच का विषय है।  ना वो