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Showing posts from October, 2022

जहाँ सजावट, वहाँ फँसावट

चेहरे पर चेहरा      मुझे अपनी जन्म और कर्मस्थली तथा उत्तर प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी कहलाने वाले कानपुर से प्रदेश की मूल राजधानी लखनऊ में बसे हुए तीन वर्ष होने को हैं। मूलतया पत्रकार होने के नाते मेरे देखने के नज़रिए में अन्य लोगों से पर्याप्त भिन्नता है। सम्भव है, मेरा मत और दृष्टिकोण लोकप्रिय और सर्वमान्य ना हो।     इसके बावजूद मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूँ कि आर्थिक-सामाजिक और व्यावहारिक आधार पर इन दोनों  शहरों की बनावट, बसावट, खान-पान, और बाशिंदों के व्यवहार में ज़मीन-आसमान का अंतर है। इन अंतरों के बारे में मैं सदा से स्पष्ट था। कानपुर की अपेक्षा लखनऊ घूमने और रहने के लिए निःसन्देह अधिक सुविधाजनक और चमकदार शहर है। इसके बावजूद कानपुर की संकरी और कम रोशनी वाली गलियों में दिल धड़कता है, जोकि उसकी जीवंतता का परिचायक है। कानपुर के बाशिंदों के चेहरे पर चमक मेहनत से कमाई की पूँजी की है जबकि लखनऊ के शहरी उधार और तिकड़म से चमक बनाए रखने में संघर्षरत हैं।       कानपुर के थोक के बाज़ारों में छोटी सी गद्दी में बैठकर करोड़ों का व्यापार करने वाले लाला भी चाट-बताशे का भरपूर मज़ा लेते हैं और दो-प

"ब्रीफकेस" पर ब्रीफ-नोट

     ......अब "ये" पूरी तरह से उपेक्षित हैं. कभी ये देश के दिलों की धड़कन हुआ करते थे. नामी-गिरामी कम्पनियां अपने ब्रांड को लोकप्रिय कराने के लिए नामचीन हस्तियों से इनका प्रचार कराती थीं और ये हिन्दी फिल्मों और आमजन के जीवन का अटूट हिस्सा रहे थे. हर घर में पाए जाने वाले "ब्रीफकेस" प्रत्येक फिल्म में विलेन और हीरो के साथ ही पुलिस के हाथों आने और नहीं आ पाने की जद्दो-जहद में कहानी की मजबूत कड़ी बनते थे. तस्करी और नाजायज माल की हेरा-फेरी में मुख्य वाहक माने जाने वाले इन ब्रीफकेसों पर स्मार्ट होती इक्कीसवीं सदी का कहर उन पर ऐसा कुछ हुआ कि अब इनकी रातों की सुबह नहीं होती.        सामान्यतया घरों में महत्वपूर्ण दस्तावेज और प्रमाणपत्र रखने के साथ ही बेशकीमती आभूषण और महंगे कपड़े रखने के काम में आने वाले "ब्रीफकेस" प्रशासनिक और कारपोरेट एक्जीक्यूटिव क्लास के अधिकारियों के हाथों में शोभायमान होते रहे हैं. डिजिटल होती दुनिया में महंगे मोबाइल, लैपटाप और टैब जैसे गैजेट्स उपयोग में आने के बाद इस एलीट वर्ग में भी इसकी विशेष उपयोगिता नहीं रह गयी है. सामान्यतया सभी घरों म

दशानन को पाती

  हे रावण! तुम्हें अपने  समर्थन में और प्रभु श्री राम के समर्थकों को खिझाने के लिए कानपुर और बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाक़ों में कही जाने वाली निम्न पंक्तियाँ तो याद ही होंगी- इक राम हते, इक रावन्ना।  बे छत्री, बे बामहन्ना।। उनने उनकी नार हरी। उनने उनकी नाश करी।। बात को बन गओ बातन्ना। तुलसी लिख गए पोथन्ना।।      1947 में देश को आज़ादी मिली और साथ में राष्ट्रनायक जैसे राजनेता भी मिले, जिनका अनुसरण और अनुकृति करना आदर्श माना जाता था। ऐसे माहौल में, कानपुर और बुंदेलखंड के इस परिक्षेत्र में ऐसे ही, एक नेता हुए- राम स्वरूप वर्मा। राजनीति के अपने विशेष तौर-तरीक़ों और दाँवों के साथ ही मज़बूत जातीय गणित के फलस्वरूप वो कई बार विधायक हुए और उन्होंने एक राजनीतिक दल भी बनाया। राम स्वरूप वर्मा ने उत्तर भारत में सबसे पहले रामायण और रावण के पुतला दहन का सार्वजनिक विरोध किया। कालांतर में दक्षिण भारत के राजनीतिक दल और बहुजन समाज पार्टी द्वारा उच्च जातीय सँवर्ग के विरोध में हुए उभार का पहला बीज राम स्वरूप वर्मा को ही जाना चाहिए। मेरे इस नज़रिए को देखेंगे तो इस क्षेत्र में राम मनोहर लोहिया, मुलायम सिंह यादव