हम और हमारा अहम एक तरफ़ और जीवन की वास्तविकताएँ दूसरी तरफ़। अपने इस "अहम" को 'वहम" कहें तो ज़्यादा ठीक होगा, क्योंकि जीवन के प्रत्येक कार्य, उसके कारण और परिणाम में हमारी भूमिका केवल दर्शनार्थी जैसी ही होती है। ईश्वर और दर्शन के व्याख्याता और हम जैसे क्षुद्र प्राणी भी इसी अहम के वहम में जी रहे हैं। आज आम आदमी को मोह-त्याग, तपस्या और विरक्ति की सीख देने वाले विद्वान भी मोटी फ़ीस वसूलने के बाद ही यह ज्ञान दे पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में एक भोला-भाला आदमी, जिसका लक्ष्य सनमार्ग की खोज करनी है, किस पर, क्यों और कैसे भरोसा करे? यह स्थिति तब और भी ख़तरनाक हो रही है जब अहम के वहम में फँसे लोगों को मार्ग दिखाने का भ्रम रखने वाले लोगों का असली और फ़र्ज़ी रूप सामने आता जा रहा हो। तो जीवन ख़ुद के बनाए प्रश्न-व्यूह और आवरण से उबरने का नाम है, नाकि किसी अतृप्त और व्यामोह में फँसे व्यक्ति के अनुसरण की भेड़-चाल का।
मूलतया कनपुरिया - बेलौस, बिंदास अन्दाज़ के साथ एक खरी और सच्ची बात का अड्डा…