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नाम में आख़िर कुछ तो ख़ास है

    आज़ादी के अमृत महोत्सव पर लाल क़िले से "ग़ुलामी के प्रतीकों" को अलविदा करने के माननीय प्रधानमंत्री जी के ऐलान ने हर भारतीय का मन गद-गद कर दिया।

       इस ऐलान के परिणाम भी अब दिखने लगे हैं।

    सेंट्रल विस्टा परियोजना के उद्घाटन के समय नेताजी सुभाषचंद्र बोष जी की प्रतिमा का अनावरण देश के लिए अत्यंत गर्व के पल रहे। इस प्रतिमा को ब्रिटिश राजा रहे जार्ज पंचम की प्रतिमा के स्थान पर लगाने में इतने बरस क्यों लगे, यह अत्यंत खेद और कुशासन का प्रतीक है।

    इसी के साथ "राजपथ" का नाम "कर्तव्य पथ" में बदल दिया गया। मोदी जी ने अपनी पहली शपथ के दौरान ख़ुद को "प्रधान सेवक" घोषित किया था। इस वजह से "कर्तव्य पथ" के स्थान पर नामकरण "सेवा पथ" अधिक उचित रहता। यदि "राज" शब्द ग़ुलामी का प्रतीक है तो एक साथ कम्प्यूटर में इसे डालकर एक साथ सेलेक्ट कर "कर्तव्य" के साथ रिप्लेस कर दिया जाए। राज भवन, राज मिस्त्री, राज कुमार, राज कपूर, राज निवास, राज पत्रित अधिकारी, राजस्थान, राज भाषा, राज भोग, राज कचौड़ी जैसे तमाम शब्द बदल कर कर्तव्य भवन, कर्तव्य मिस्त्री, कर्तव्य कुमार, कर्तव्य कपूर, कर्तव्य पत्रित अधिकारी, कर्तव्य स्थान, कर्तव्य भाषा, कर्तव्य भोग, कर्तव्य कचौड़ी आदि हो जाएँगे।

    इससे अधिक बेहतर ये भी होगा कि ग़ुलामी के प्रतीक घोषित किए गए इस शब्द "राज" को हिंदी भाषा के शब्दकोश से ही हटा कर "कर्तव्य" से बदलने का ऐलान कर दिया जाए, ताकि बार-बार के फेर-बदल में होने वाले धन और समय के अपव्यय से भी बचा जा सके।

    शेक्सपियर के एक उपन्यास का नाम "नाम में क्या रखा है" था। पर हज़ारों साल की ग़ुलामी झेल चुके हमारे देश के लिए इस नामकरण का दंश बहुत ज़हरीला है। ऐसे में नाम बदलाव के बहाने ग़ुलामी से मुक्ति का आभास होता है। परंतु ध्यान रखना होगा कि यह औचित्यपूर्ण और व्यावहारिक भी रहे।


अरविन्द त्रिपाठी

11-09-2022



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