..........ईस्ट के मैनचेस्टर कहलाने वाले "कानपुर" में मेरा जन्म हुआ था। जब होश सम्हाला तो मिलों और फैक्टरियों के सायरन, चिमनियों के धुएँ और ट्रेनों की आवाजाही का शोर चाहे-अनचाहे कानों में पड़ता रहता था। पिता रेलवे मेल सर्विस में ट्रेड यूनियन के लीडर थे, अतः मजदूरों की हक़ की बातें और संघर्ष का असर घुट्टी के रूप में मिला था।
मजदूर आंदोलन के नाम पर राजनीति करने वाले धंधेबाज़ राजनेताओं की मिलीभगत से कानपुर के श्रम-मूलक उद्योग समाप्ति की ओर थे। नब्बे के दशक में पिता जी ने वर्कर यूनियन की राजनीति से त्यागपत्र दे दिया था। स्नातक की पढ़ाई में इतिहास, अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र विषय के होने के कारण दुनिया के भूत, वर्तमान और भविष्य में इन सभी का असर समझ आया और अपने इर्द-गिर्द घट रही घटनाओं में साम्यता स्थापित करने में आसानी रही। लेकिन इस बीच देश की राजनीति में मुद्दे और विषय बदल रहे थे। हम युवा हिंदू और मुसलमान बन रहे थे। मंदिर और मस्जिद के मुद्दे ने आपसी दूरी बढ़ानी शुरू कर दी थी।
इक्कीसवीं सदी की पहली सुबह किताबों से मिले ज्ञान के अनुरूप कानपुर न था। एक बड़ा परिवर्तन यह आया कि कानपुर की मिलों का शोर थम गया था। शिफ़्टों की शुरुआत के सायरन आवाज़ नहीं देते थे। चिमनियों से अब धुआँ नहीं निकलता था। हातों की दशा और ज़्यादा नारकीय हो गयी थी। मजदूर नेता और उनके मुद्दे नेपथ्य में चले गए थे। कानपुर में मजदूर और मज़दूरों की स्थिति में निरंतर गिरावट आती गयी, जो आज भी जारी है। आज कानपुर के मैन का चेस्ट छलनी हो गया है। यद्यपि आज भी प्रदेश में सबसे अधिक राजस्व देने वाला शहर कानपुर ही है परन्तु
मजदूर दिवस की बधाई लेने और देने वाले प्रत्येक चिकित्सक, अभियंता, प्रशासनिक अधिकारी, कार्यालयों में काम करने वाला कर्मचारी और पत्रकार भले ही स्वयं को मजदूर कहें परन्तु ईंट-पत्थर तोड़ते और खदान में काम करने वाले जिस प्राथमिक सेक्टर के मजदूर को एक करने के लिए कार्ल मार्क्स ने नारा दिया था, वो अधूरा जान पड़ता है। आज जब कोरोना महामारी के चलते दुनिया में तालाबंदी (लाक़डाउन) जारी है, तब उस मजदूर के लिए आज का दिन आर्थिक संकट के चलते मजबूर दिवस से अधिक कुछ भी नहीं है। मज़दूरों का शहर कानपुर आज वेंटीलेटर पर है। श्रम और उद्योग गतिविधियाँ समाप्ति की ओर हैं। सभी बड़े कारख़ाने या तो बंद हो चुके हैं या बंदी की कगार पर हैं। चमड़ा और कुछ नामी ब्रांडों ने अपने व्यापार को शिफ़्ट करना शुरू कर दिया है। यही प्रवृत्ति देश और दुनिया में व्याप्त है।
आज लगभग सौ से अधिक वर्षों से अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जा रहा है पर लगभग सभी देशों की सरकारों का एक जैसा ही रूख है कि सभी प्रकार के श्रमिकों में परस्पर एका ना हो सके और नाही अपने हितों की समझ उत्पन्न हो। सरकारों ने अपने हित में जाति, धर्म, भाषा, छुआछूत, ऊँच-नीच और क्षेत्रवाद में बँटे समाज में पूँजीपतियों के हित साधन को प्राथमिक उद्देश्य बना दिया गया है। साम्यवाद और समाजवाद की बातें दक़ियानूसी समाज का विचार होती जा रही है। आज की उन्नति, विकास और आधुनिकता की दौड़ में समाज की अंतिम पायदान में खड़ा मजदूर चमक-धमक वाली दुनिया में अपने आप को समेटे हुए मजबूर दिवस मनाने को विवश है।
Very very fine and remarkable article .thanks for sharing to me kkjaiswal
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