Skip to main content

प्रदेश में सरकारों के दौर में कालेजों की मान्यता के नियम-कानूनों पर भारी पड़ते ‘माननीय’ जनप्रतिनिधि

कानपुर. हिंदी फ़िल्में देश की दशा और दिशा का सदैव से आइना मानी जाती रही हैं.समाज के रूप और प्रारूप की जानकारी करने के लिए उस विशेष देश-काल की फ़िल्में देखकर जाना जा सकता है, उस समय क्या फैशन में रहा होगा. कभी समाज फिल्मों से कुछ लेता है तो कभी फ़िल्में समाज के लिए दिशा-निर्धारण का काम करती रही हैं. फिल्मो की बात यूं हो चली क्योंकि आजादी के बाद से हम राजनीति में किसी एक ऐसे महानायक को नहीं पैदा कर सके जैसा की फिल्मों में समय-समय पे होते आये है. हमारे देश ने दिलीप कुमार साहब को हिंदू भजनों पर अभिनय करने पर कभी कोई आपत्ति नहीं की क्योंकि उस समय का अपना ये देश आज के देश की अपेक्षा ज्यादा प्रौढ़ था. वो जानता था की ये अभिनय कर रहे हैं. पर कुछ सालों पहले जब अपने अमिताभ भैया अपनी मंडली के साथ किसी खास पार्टी के लिए कुछ कहते थे तो लोग दीवाने हो जाते थे. लोगों ने उस पार्टी को अमिताभ बच्चन के दम की कई बार प्रदेश की बागडोर सौपी. ऐसा न था की समाजवादी पार्टी के जनप्रतिनिधि फिल्मों से प्रेरित नहीं थे . वो जिन हिंदी फिल्मी गानों को गाते थे उन्हें पूरा करने में पूरे तंत्र को लगा देते थे. यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है की ये प्रवृत्ति प्रदेश सहित देश के सभी राजनैतिक दलों के नुमाइंदों में पायी जाने लगी है. सभी राजनैतिक दलों के नुमाइंदे ‘मैं चाहे ये करू, मैं चाहे वो करू... मेरी मर्जी’गाते हुए अपने लक्ष्यों की पूर्ती में लगे रहते हैं और उनके दबाव में सरकारी तंत्र ‘तुम दिन को रात कहो,रात कहेंगे’ की तर्ज पर काम करने लगता है. पूरा प्रशासनिक तंत्र इस बीमारी की अंतिम अवस्था में है.चाहे किसी भी केंद्रीय या प्रादेशिक सरकारी विभाग की स्थिति जायजा लिया जाए तो इन राजनैतिक लोगों के दबाव में किये गए बड़े घपले-घोटालों का होना पाया जा सकता है.
इतिहास गवाह है जब भी किसी देश को गुलाम बनाया जाता रहा है तो उसकी शिक्षा पध्यति में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाता रहा है. आजादी के बहुत पहले देश के विद्वानों और आन्दोलनकारिओं ने इस बात को जान-समझ लिया था.अतः स्वदेशी आंदोलन के बहाने देशी शिक्षा पद्यति पर जोर देते हुए शिक्षा और ब्रिटिश शिक्षालयों से बहिस्कार दोनों काम एक साथ किये जाते रहे. आजादी के बाद लगभग दो-तीन दशकों तक शिक्षालयों के संचालन और स्थापना दोनों में आन्दोलनकारी लोगों की ही बहुलता रही. कम पूँजी होने के बावजूद उद्देश्यों की पवित्रता की वजह से तत्कालीन समाज के धन-सम्पन्न लोगों द्वारा इन शिक्षालयों को अतिरिक्त सुविधाओं के लिए आर्थिक मदद मिल जाती थी. राजनैतिक पदों पर आसीन् लोगों ने भी शिक्षा का प्रचार-प्रसार अपने एजेंडे में सर्वोपरि बनाए रखा. उन सभी से हरदम ऐसे शिक्षालयों को मदद मिलती रही.राजनैतिक पहुच के लोगों ने भी शिक्षालय स्थापित किये, वजह साफ़ थी, स्कूल-कालेज स्थापित करना और उनका संचालन करना एक सम्मानीय कार्य माना जाता था. आज कल इस स्थिति में गिरावट यूं आई है की शैक्षणिक संस्थान चलाना एक लाभ का व्यवसाय हो गया है. अब राजनैतिक और अकूत धन-संपत्ति वालों ने शिक्षा के व्यवसायीकरण पर जोर देना शुरू कर दिया है. अम्बानी,नादार और जी समूह भी अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर के स्कूल-कालेज स्थापित करने लगे हैं. इसी क्रम में शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा नाम स्थापित करने वालों ने अब राजनीति को अपनाना शुरू कर दिया है. जैसे भरथना से बसपा विधायक शिव प्रसाद यादव और कानपुर से जगेन्द्र स्वरुप आदि ने शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा नाम बनाने के बाद राजनीति का पेशा चुना.अब माफिया ने अपना रूप बदलना शुरू कर दिया है. माफिया का मतलब है सुनियोजित अपराधी तत्व, जिसने जानबूझकर कोई साजिश रची हो और गिरोहबंदी भी की हो. अब ये शिक्षा माफियाओं का दौर है.वर्तमान सरकार के लगभग सभी हारे-जीते विधायक और सांसद के पूर्व और भविष्य के प्रत्याशिओं ने इसी तर्ज पे काम शुरू कर दिया है. वर्तमान माध्यमिक शिक्षा मंत्री रंगनाथ मिश्र और उच्च शिक्षा मंत्री राकेशधर त्रिपाठी के द्वारा रेवड़ी की तरह बाटी गयी नए कालेजों को मान्यताएं उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त के द्वारा जांच की जा रही है .
ऐसा नहीं है की ये इसी सरकार का दोष है.पूर्व में भाजपा की सरकार के समय के माध्यमिक शिक्षा मंत्री डा. नेपाल सिंह के समय में भी इंटर कालेजों की मान्यता के सम्बन्ध में भी उदारता बरती गयी थी. की ऐसे नए कालेज खुल गए थे जो मात्र 200 वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में बने थे. यदि वो फाइलें खुल जायेंगी तो भगवा पार्टी के सर्वशिक्षा अभियान की पोल खुल जायेगी.ये क्रम यहीं नहीं रुकता है. समाजवादी पार्टी के काल में भी इसी की पुनरावृत्ति की गयी. तमाम नियमों और मानकों को दरकिनार करते हुए इंटर और डिग्री कालेजों को मान्यता दी गई. शिक्षा को इतना सुलभ कभी नहीं बनाया गया. स्वकेंद्र और सपुस्तकीय परीक्षा प्रणाली के लिए मुलायम सिंह यादव की सरकारों को सदैव याद किया जाएगा. उस दौर में कालेज बेरोजगारों को तैयार करने के कारखाने के रूप में जनता के सामने आये.इन कालेजों की स्थापना में किस तरह से क़ानून और नियमों का माखौल उड़ाया जाता रहा है ये आगे की चंद पंक्तिओं में विशेष रूप से उजागर किया गया है.
चौथी दुनिया के पास उपलब्ध छत्रपति साहू जी महराज विश्वविद्यालय, कानपुर से प्राप्त दस्तावेजों के आधार ऐसे ही एक कालेज की मान्यता देने में की गयी कानूनी-कोताही और खुले-आम नियमों के उडाये गए माखौल का मामला सामने आता है. कानपुर में 26.11.2002 को भवन रहित भूखंड की लीज डीड शैक्षणिक संस्थान के नाम की गयी और साथ ही विश्वविद्यालय को मान्यता के लिए आवेदन कर दिया गया .साथ ही प्रस्तावित भवन का मानचित्र भी प्रस्तुत किया गया. किन्तु इस मानचित्र में भूखंड की सभी तरफ की बाजुओं की लम्बाई और चौड़ाई नहीं दर्शायी गयी.मामला चूंकि उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी दल समाजवादी पार्टी के दबंग छवि के विधान-परिषद सदस्य से जुड़ा होने के कारण ठीक तीन दिन बाद विश्विद्यालय ने की भवन मान्यता के मानको के अनुरूप तैयार होने की सूचना उच्च शिक्षा विभाग को भेजते हुए मान्यता की संस्तुति भेज दी. विश्वविद्यालय और प्रबंधक के द्वारा किये गए इस घालमेल को पूरी तरह से अनदेखा करते हुए उच्च शिक्षा विभाग ने नौ जनवरी, 03 को शेष मानक पूरे करने सम्बन्धी निर्देश जारी कर दिए. शहरी क्षेत्र में डिग्री कालेज की मान्यता के लिए संस्थान के पास आवश्यक भूखंड 5000 वर्ग मीटर के अनिवार्य नियम के स्थान पर इस संस्थान के पास कुल 3910 वर्ग गज ही भूमि है, जो लगभग 3600 वर्ग मीटर के आस-पास ठहरती है. विश्विद्यालय के अधिकारिओं को जानकारी में है की ये संस्थान एक विवादित भूमि पर बना हुआ है. भूमि के मालिकाना हक की विवाद कानपुर के जिला न्यायालय और उच्च न्यायालय में है. इसी विवाद के चलते कानपुर विकास प्राधिकरण से इस कालेज का मानचित्र को स्वीकृति नहीं मिल पायी है. इसके बावजूद ये कालेज पिछले सात से ज्यादा सालों से चल रहा है. हद तो तब हो जाती है जब एन.सी.टी.ई. ने भी हास्टल आदि मानकों को दरकिनार करते हुए इस संस्थान में बी. एड. जैसी मान्यता 01/07/2004 को प्रदान कर दी.
उत्तर प्रदेश में क़ानून का राज स्थापित करने का दावा करने वाली वर्तमान बसपा की मायावती सरकार के तमाम आदेशों को धता बताता हुआ इस कालेज के भूमाफिया प्रबंधक की माता सरसौल विधान सभा क्षेत्र से समाजवादी पार्टी की विधायक हैं और पिता इसी दल के पूर्व विधान परिषद सदस्य रह चुके हैं .इलाहाबाद,उच्च न्यायालय के आदेशों की धज्जियां उड़ाते हुए इस महाविद्यालय के भवन निर्माण की प्रक्रिया जारी है. और ये तब है जब की इस महाविद्यालय के प्रथम तल का मानचित्र स्वीकृत नहीं है और वर्तमान में तीसरे तल में निर्माण कार्य जारी है.कानपुर विकास प्राधिकरण की जोनल प्रवर्तन अधिकारी उर्मिला सोनकर खाबरी ने इस निर्माण को रोकने के लिए पुलिसिया मदद की मांग की पर मामला विपक्ष के दबंग छवि के राजनीतिज्ञ से जुड़े होने के कारण दब सा गया है. विश्वविद्यालय के अधिकारी अपने पूर्व के अधिकारिओं की नियमों की अनदेखी का रोना रो कर अपने कर्तव्यों की इति श्री मान लेते हैं. उत्तरप्रदेश के लोकायुक्त ने इस पूरे मामले को अपने संज्ञान में लेते हुए जांच के लिए अपने समक्ष प्रस्तुत करने के लिए निर्देश दिए हैं.
प्रदेश में प्राइमरी स्कूल से स्थापित कर डिग्री कालेज तक की उन्नति करने का चलन नहीं रहा .अब इन नव-धनाढ्यों ने सीधे डिग्री, इन्जिनिअरिंग और मैनेजमेंट कालेजों की स्थापना करनी शुरू कर दी है. यदि एक पीढ़ी पहले भी पता किया जाएगा तो इन सभी प्रबंधकों के पूर्वजों के पास नियमित आय के स्थायी साधन नहीं रहे होंगे. पर आज सैकड़ों करोड के इन संस्थानों में विश्विद्यालय अनुदान आयोग के मानकों के अनुरूप शिक्षकों का घोर अभाव है. उच्च शिक्षा के इन कारखानों से तैयार बेरोजगारों को दुनिया के प्रतियोगी माहौल में अपने पैर जमाने में आने वाली समस्याओं से बेखबर ऐसे संस्थानों के प्रबंधक अपने इसी तरह के संस्थानों को और ज्यादा बढाने में लिप्त हैं. प्रदेश में किसी की भी सरकार क्यों न हो इन्हें क़ानून और निय्मावालिओं से कोई भय नहीं है.इसकी वजह ये है की सभी राजनैतिक दलों में इसी प्रकार के शिक्षा माफिया घुस आये हैं , जिन्होंने राजनीति के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी अपनी मजबूत पैठ बना ली है. अब ऐसे जन-प्रतिनिधिओं ने विधायक और सांसद निधिओं से दूसरी संस्थाओं के स्थान पर अपनी और अपने रिश्तेदारों के संस्थानों को ही अनुदान देना शुरू कर दिया है. चौथी दुनिया के पास उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर कानपुर के इस संस्थान में भी विधायक निधि से बीस लाख से अधिक की धनराशि नियम-क़ानून को ताक पर रख कर व्यय की गयी है.सांसद और विधायक निधिओं का इस तरह दुरूपयोग का मामला भी लोकायुक्त,उत्तरप्रदेश के संज्ञान में लाया जा चुका है. अब देखना ये है की शिक्षा के इन पवित्र मंदिरों में वास्तव में शिक्षा की देवी की स्थापना कब हो पाती है. अब जरूरत फिर आन पड़ी है की कोई ऐसी हिंदी फिल्म बनायीं जाए जिसमें ऐसे प्रबंधकों को दिखाया जाए और जिससे खास और रसूखदार लोगों के साथ ही साथ आम जनता को भी ये सन्देश मिल सके की शिक्षा के इन केन्द्रों की स्थापना करने वालों के द्वारा किया जाने वाला ऐसा अपराध भी संज्ञेय अपराध है.जिसमें महानायकों का निर्माण किया जाने लायक ज्ञान-गंगा को बहाया जा सके.अब महानायक बने माननीयों के द्वारा बनाए जाने वाले ऐसे संस्थानो से तौबा की ही जानी चाहिए.

Comments

Popular posts from this blog

... और फिर जूता चल गया.

रोज-रोज जूता । जिधर देखिये उधर ही "जूतेबाजी" । जूता नहीं हो गया, म्यूजियम में रखा मुगल सल्तनत-काल के किसी बादशाह का बिना धार (मुथरा) का जंग लगा खंजर हो गया । जो काटेगा तो, लेकिन खून नहीं निकलने देगा । बगदादिया चैनल के इराकी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी ने जार्ज डब्ल्यू बुश के मुंह पर जूता क्या फेंका ? दुनिया भर में "जूता-मार" फैशन आ गया ।... न ज्यादा खर्च । न शस्त्र-लाइसेंस की जरुरत । न कहीं लाने-ले जाने में कोई झंझट । एक अदद थैले तक की भी जरुरत नहीं । पांव में पहना और चल दिये । उसका मुंह तलाशने, जिसके मुंह पर जूता फेंकना है । जार्ज बुश पर मुंतज़र ने जूता फेंका । वो इराक की जनता के रोल-मॉडल बन गये । जिस कंपनी का जूता था, उसका बिजनेस घर बैठे बिना कुछ करे-धरे बढ़ गया । भले ही एक जूते के फेर में मुंतज़र अल ज़ैदी को अपनी हड्डी-पसली सब तुड़वानी पड़ गयीं हों । क्यों न एक जूते ने दुनिया की सुपर-पॉवर माने जाने वाले देश के स्पाइडर-मैन की छवि रखने वाले राष्ट्रपति की इज्जत चंद लम्हों में खाक में मिला दी हो । इसके बाद तो दुनिया में जूता-कल्चर ऐसे फैला, जैसे जापान का जलजला । जिधर

प्रेम न किया, तो क्या किया

     ..... "प्रेम" और "रिश्तों" के तमाम नाम और अंदाज हैं, ऐसा बहुत बार हुआ कि प्रेम और रिश्तों को कोई नाम देना संभव न हो सका. लाखों गीत, किस्से और ग्रन्थ लिखे, गाए और फिल्मों में दिखाए गए. इस विषय के इतने पहलू हैं कि लाखों-लाख बरस से लिखने वालों की न तो कलमें घिसीं और ना ही उनकी स्याही सूखी.        "प्रेम" विषय ही ऐसा है कि कभी पुराना नहीं होता. शायद ही कोई ऐसा जीवित व्यक्ति इस धरती पे हुआ हो, जिसके दिल में प्रेम की दस्तक न हुयी हो. ईश्वरीय अवतार भी पवित्र प्रेम को नकार न सके, यह इस भावना की व्यापकता का परिचायक है. उम्र और सामाजिक वर्जनाएं प्रेम की राह में रोड़ा नहीं बन पातीं, क्योंकि बंदिशें सदैव बाँध तोड़ कर सैलाब बन जाना चाहती हैं.     आज शशि कपूर और मौसमी चटर्जी अभिनीत और मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर का गाया हुआ हिन्दी फिल्म "स्वयंवर" के एक गीत सुन रहा था- "मुझे छू रही हैं, तेरी गर्म साँसें.....". इस गीत के मध्य में रफ़ी की आवाज में शशि कपूर गाते हैं कि - लबों से अगर तुम बुला न सको तो, निगाहों से तुम नाम लेकर बुला लो. जिसके

गयासुद्दीन गाजी के पोते थे पंडित जवाहर लाल नेहरू

    जम्मू-कश्मीर में आए महीनों हो गए थे, एक बात अक्सर दिमाग में खटकती थी कि अभी तक नेहरू के खानदान का कोई क्यों नहीं मिला, जबकि हमने किताबों में पढ़ा था कि वह कश्मीरी पंडित थे।  नाते- रिश्तेदार से लेकर दूरदराज तक में से कोई न कोई नेहरू खानदान का तो मिलना ही चाहिए था। नेहरू  राजवंश कि खोज में सियासत के पुराने खिलाडिय़ों से मिला लेकिन जानकारी के नाम पर मोतीलाल नेहरू  के पिता गंगाधर नेहरू का नाम ही सामने आया। अमर उजाला दफ्तर के नजदीक बहती तवी के किनारे  पहुंचकर एक दिन इसी बारे में सोच रहा था तो ख्याल आया कि जम्मू-कश्मीर वूमेन कमीशन की सचिव  हाफीजा मुज्जफर से मिला जाए, शायद वह कुछ मदद कर सके। अगले दिन जब आफिस से हाफीजा के  पास पहुंचा तो वह सवाल सुनकर चौंक गई। बोली पंडित जी आप पंडित नेहरू के वंश का पोस्टमार्टम करने  आए हैं क्या? कश्मीरी चाय का आर्डर देने के बाद वह अपने बुक रैक से एक किताब निकाली, वह थी रॉबर्ट  हार्डी एन्ड्रूज कि किताब "ए लैम्प फार इंडिया- द स्टोरी ऑफ मदाम पंडित।" उस किताब मे तथाकथित  गंगाधर का चित्र छपा था, जिसके अनुसार