आज देश-दुनिया के बिगड़ते हालातों को देखकर कभी सोचता हूँ की मैं भी लिखूं और कभी सोचता हूँ की मैं भी क्यों लिखूं. जब सोचता हूँ देश के बिगड़ते हालात के बारे में और उन समस्याओं से मुह फेरते जिम्मेदार पदों पे बैठे विशिष्ट लोगों की मक्कारिओं के बारे में तो लगता है की मैं भी चुप रहूँ . पर ये तो मौलिकता नहीं है मेरी . मैं , जिसने कभी सपना देखा था ,देश को उन ऊंचाइयों पे ले जाने का वो कैसे शांत हो सकता है. कभी सोचता था की अपनी नाकामिओं से देश की स्थिति कैसे बदल सकता हूँ ? अब तो मैं इस काबिल भी नहीं रह गया था. पर जीवन में घटी किसी एक घटना के द्वारा लगा की जिंदगी कभी रूकती नहीं. और इस कभी न रुकने वाली और निरंतर चलते रहने वाली जिंदगी के ही पड़ाव होते हैं - ये नाकामी और सफलताएं.
पर इस सब के बीच कहीं रह जाता देश और वो समाज, जिसे बेहतर और बेहतर बनाने का सपना सबने देखा होता है. उन्होंने भी जो देश को निरंतर गड्ढे में ले जाने का काम करते रहते हैं.मैं ये कह कर उन सभी भ्रश्ताचारिओं को क्लीनचिट नहीं दे रहा हूँ. पर मेरा ये मानना है की सभी अत्यंत भ्रष्ट लोगों के मन में एक टीस अवश्य होती है की प्रभु इस बार ये काम कर लेने दो और मैं अब ये काम छोड़ दूंगा......पर ऐसा होता नहीं वो फंसता जाता है. फंसता जाता है.........
और आखिर में ये खेल जब हमारे जैसे लोगों के द्वारा देश-दुनिया को जाहिर होता है तो उसके पास आंसुओं के सिवा कुछ नहीं बचता है. और कभी-कभी तो आंसू भी उसके पास नहीं रह जाते.अब ऐसे ही लोग जिनके कारनामें कभी भी भ्रस्टाचार के आरोप में उजागर होने वाले होते हैं उनके अंदर का अच्छा आदमी डर जाता है...... वो और डरता जाता है... जरा सोचिये की क्या करता है डरा हुआ आदमी ? अरे भाई, अपना बचाव ही तो करेगा. चाहे सही तरह से करे या गलत तरीके से करे. अब देखो, ये जो ऐसा आदमी है जिसने गलत काम करके कुछ संग्रह करही लिया है वो होता बहुत सच्चा है. वो अचानक सब वो काम करने लग जाता है जो काम कानूनी नहीं होते..... यहाँ तक की धर्मात्मा भी बन जाता है.....जैसा की सभी जानते हैं की धार्मिक क्रियाएँ क़ानून के दायरे में बाँधी नहीं जातीं,पर क्या इन्हें गैर-कानूनी होना चाहिए ? कभी-कभी अवचेतन मनो-मस्तिष्क में धर्मान्ध व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत प्रतिबद्धता के कारण नियम-कानूनों को बला-ए-ताक पर रख देता है.अभी हाल के वर्षों में उच्चतम न्यायालय ने ऐसे ही अवचेतन मनोमस्तिष्क के लोगों द्वारा अपनी आस्थाओं के नाम पर किये गए सरकारी विभागों की भूमि पर बनाए गये धार्मिक आस्था -स्थलों के नाम पर बनाए अवैध कब्जे हटाने का निर्णय लिया है.
अभी भी नहीं समझे हो तो मैं समझाता हूँ कुछ खास बात जो मैंने अभी तक जीवन में समझी है. वो है ये की यदि तुम में भी जाग गया है अगर मेरे जैसे आदमी का एक प्रतिशत भी तो देखो ज़रा गौर से की मंदिरों, मठों,गुरुद्वारों , चर्चों , कथित सिद्धों और ढोंगी बाबाओं के पास कौन लोग जमघट लगाए बैठे हैं.ज्यादा दूर जाने की भी जरूरत नहीं ही,अपने शहर के सभी माननीय और मानिंद किसी एक ऐसे केंद्र का चारों ओर घेराव लगाए बैठे मिल जायेंगे जिसका संतई में कोई बड़ा योगदान नहीं है. न तो वो आदिगुरू शंकराचार्य है और न ही संत रामानुज और न ही संत माधवाचार्य .वो आज के युवाओं के आदर्श विवेकानंद जैसा कोई परम ज्ञानी व्यक्ति भी नहीं है.उसके इर्द-गिर्द घेराव बनाए लोगों में से इन वास्तविक संतों के बारे में कोई जानकारी ही नहीं की. आज भी लाखों हठयोगी हिमालय में परिक्षेत्र में पूजन-ध्यान में तल्लीन मिल जायेंगे. वो बाजारू नहीं हैं. वे आम जन से दूर हैं. उन्हें कोई नहीं जानता और उनके द्वारा प्राप्त की गयी सिद्धियाँ इसलिए चर्चाएआम नहीं हो पायीं क्योंकी वे आज भी मीडिया और पूंजीपतिओं की निगाहों से बचे हुए हैं.उन परम सिद्धों और योगिओं तक हम भी तो नहीं जाना चाहते है. हमारे बीच के माननीय ,महानायक और पूंजीपति भी नहीं जाना चाहते हैं. ऐसा में काम आता है बीच का आदमी.. जो कुछ-कुछ सिद्धों जैसा आचरण करता हो और सांसारिक व्यावहारिक दुनिया में हमारे काम आ सके. नेता जी की टिकट पक्की करादे, व्यापारिओं को उन विभागों के अधिकारिओं से बचा दे जिनका वे टैक्स चुराते है, कुछ लोगों की ठेकेदारी पक्की करा दे,कुछ को नामवर दलाल माना जाने लगे,जीते हुए नेता अपनी इज्जत बनाये रखने के लिए आते हैं और हारे हुए फिर से चुनाव जीतने के आशीर्वाद के लिए आते हैं आदि-अदि.के बहाने चकरघिन्नी काट रहे होते हैं.कुल मिला कर पूरी चालू-चक्रमगिरी होती है इन तथाकथित सिद्ध महात्माओं के पास.नेता , प्रशासनिक अधिकारी और पूंजीपति सब एक दुसरे के सम्मान के कारण ऐसे बाबाओं का कोई विरोध नहीं कर पाते हैं.अब ऐसे आम जनता क्या करे ? अरे, परेशान हुए बिना ज़रा गौर से देखो , ये सब वो हैं जिन्हें अपना कुछ खोने का डर है...... देश के वो लोग जिनके पास खोने को कुछ बचा ही नहीं वो कभी तीर्थों में जाते हैं क्या ? इस बात के साथ मुझे ये भी बताने की सोचो की जो वास्तव में सिद्ध होते हैं उन्हें अपनी पूजा करवाने और वितंडा करने की आवश्यकता होती है क्या ?
अब आता हूँ मूल बात पे की इन दोनों से बचने के बारे में सोचो. न तो ये ठीक हैं और न वो ?यानी बाबा और उनके अनुयायी दोनों में भ्रम है. इनका अनुसरण करने योग्य नहीं है. यदि बाबा का अनुसरण करोगे तो भी ईश्वर नाराज होगा क्योंकि वो तो अधूरा है. आडम्बर है.यथार्थ नहीं है. और यदि अनुयायिओं का अनुसरण करो तो वो तो पूरे समाप्ति की ओर हैं. वो उस बाबा का अपना आवरण बनाने का काम कर रहे हैं जो ईश्वर का अंश ही नहीं रहा. यदि वो सच होता तो इन सबके खेल में ही न फंसता क्योंकि इन्हीं से भाग के समाज से दूर वो सिद्ध बनने के लिए गया था. बात कुछ ज्यादा ज्ञान की हो गयी है. मूल बात समझिए की बाबा और देवालयों में न तो ईश्वर है और न ही उपासना या यज्ञ में है. ये सब तो कमजोर और दुनिया से भागे लोगों का एक ऐसा उपक्रम है जो दोनों पक्षों को आत्मसंतुष्टि के ढोंग का एक बहाना मात्र है.
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