भारत की आजादी की लड़ाई में कई बार इन प्रतीकों का प्रयोग भारत में भी किया गया है.ऐसा ही एक प्रयोग बिना आजादी पाए ही आजादी के दिन की घोषणा का था. लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन की समाप्ति के उद्भोधन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए जवाहर लाल नेहरू ने तत्कालीन देश को एक खास कार्यक्रम दिया था. उनके अनुसार समस्त देश वासी आगामी छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ तीस को आजादी के दिवस के रूप में मनाएंगे. जो दिल्ली नहीं आ सकते वो इस दिन सुबह नहा-धोकर नए साफ़-सुथरे कपडे पहेनकर प्रभात फेरी निकालें. किसी प्रमुख चौराहे पर भारत का नक्शा बनाकर उसमें दिल्ली को अंकित कर 'तिरंगा' फहराएँ. इस प्रकार देश को एक महान काम और कार्यक्रम दिया गया था.
उस समय देश ने वैसा ही किया भी. आजादी मिलने का दिवस चूंकि पन्द्रह अगस्त था और हम कई सालों से आजादी का दिन छब्बीस जनवरी के रूप में मना रहे थे. अतः इस खास दिन की यादें और प्रासंगिकता को बनाए रखने के लिए अति आवश्यक था की इसे किसी खास यादगार कार्य से जोड़े रखा जाना अति आवश्यक था. यही कारण था की जब भारतीय संविधान छब्बीस नवंबर उन्नीस सौ उनचास को तैयार हो गया तो उसे पूरी तरह से छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ पचास को ही लागू किया गया. और इस प्रकार इस खास दिन की प्रासंगिकता और महत्ता को बचाए और बनाए रखा गया.
आज देश की आजादी के चौंसठ से अधिक वर्ष हो चुके हैं. अभी भी हम 'नेशन इन मेकिंग' ही हैं. आज फिर एक बड़ी लड़ाई की जरूरत है.आज हमारा शत्रु भी जुदा है.आज वो हमारे बीच और ज्यादा कमाने की लालसा के रूप में है जिसे हम भ्रष्टाचार या अनाचार का नाम दे सकते हैं.काले धन का साम्राज्य पूरे देश में व्याप्त है. राजनेताओ और आला अधिकारिओं को ठेकेदारों और मीडिया के सहयोग से असीम ताकत मिली हुयी है.ऐसे हालातों में अन्ना हजारे का जन-लोकपाल बिल की मांग के लिए आमरण अनशन के लिए धरने पर दिल्ली में बैठना और पूरे देश में उनके समर्थन में धरना देने की घोषणाओं की होड का काम जारी है.
आज आजादी दिलाने वाली पीढ़ी हमसे जुदा हो चुकी है. आजादी की लड़ाई को अपनी युवा आँखों से देखने वाली पीढ़ी "रिटायर्ड और टायर्ड " दोनों मनोदशाओं में उहापोह में है.देश के राजनेताओं में अटल बिहारी बाजपेयी के बाद निर्विवाद युवा आशाओं के केंद्र के रूप में किसी राजनेता की कमी महसूस की जा रही है. राहुल और वरुण गांधी, अखिलेश यादव,जितिन प्रसाद,ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट आदि अभी भी युवाओं में अपनी प्रासंगिकता अपनी पार्टी के खास तबके तक ही बना पाए हैं. आजादी के दुसरे संग्राम के रूप में जानी जाने वाली इमरजेंसी के काल की आंधी से उपजे नेताओं का युग समाप्ति की और है. आज वे पूरी तरह से जन भावनाओं से अलग-थलग से हैं.राजनीति का शीर्ष और जन-समस्याओं के प्रति विपक्षी दलों की मनोवृत्ति देश के युवाओं को प्रेरित नहीं करती है. जीवन में घटते अवसर और बढती होड से युवा उद्विग्न है. ऐसे हालातों में अन्ना हजारे का ये धरना एक सही घटना के रूप में देश के सामने आया है.
आज देश में दुनिया का सबसे अधिक भाग युवा है. ये हमारे लिए एक बहुत अच्छा संकेत है. इस युवा वर्ग की आबादी की कुल संख्या आज अमेरिका की कुल आबादी से थोडा कम है. बिल गेट्स और वारेन बफेट जैसे लोग हमारे यहाँ चक्कर काट रहे हैं. हमें भी किसी भुलावे ने नहीं होना चाहिए . अब 2011 की जनगणना के आंकड़े आ चुके हैं. हम लगभग एक सौ इक्कीस करोड से अधिक की जनसंख्या वाले देश हैं. देश और दुनिया की उन्नति का बहुत बड़ा भार और जिम्मेदारी हम भारतीयों और हमारे युवा वर्ग पर है.
महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़ी गयी भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई में कई दौर ऐसे आये जब उन्हें युव-शक्ति ने प्रभावित किया. चाहे वो भगतसिंह-चंद्रशेखर आजाद की उग्र परम्परा रही हो या फिर जवाहर लाल नेहरू-सुभाष चंद्र बोस की नरम पर नव-समाजवाद की मांग करने वाली जोड़ी रही हो. गांधी सदैव अपने कद से बड़े व्यक्तित्व के व्यक्ति होने के कारण हर बार विरोधों और प्रतिकारों से अपनी वैचारिक मजबूती से अपने उद्देश्यों को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाने में सफल रहे.यही कारण का था की सभी युवा उस युग में भी उन्हें जन-आन्दोलनों के विशेषज्ञ के रूप में आशाओं भरी निगाहों से देखते थे. यद्यपि युवा-वर्ग में अनंत ऊर्जा होने के कारण उग्रता स्वाभाविक है. किन्तु अन्ना के गांधीवादी अहिंसक तरीके से किये जाने वाले इस कार्यक्रम की गूँज और उसकी अनुगूंज भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए शुरू किये जाने वाले संग्राम में युगों तक रहेगी. अब देखना यह है, इस आंदोलन को क्या रूप और परिणाम प्राप्त होता है ? यदि यह अपने लक्षित उद्देश्यों में सफल होता है तो निस्संदेह इसे भी छब्बीस जनवरी की ही तरह से युग याद रखेगा.
यदि आप ५ अप्रैल की तुलना २६ जनवरी से करते हैं तो शायद नहीं.. क्योंकि इस देश की जनता इतनी जागरूक नहीं है की वह शासन के सभी अवयवों का विकल्पक स्वरुप प्रस्तुत कर सकने के बारे में सोच सके. देश की अर्थव्यवस्था, शिक्षा, और सामरिक नीतियों को बनाने में परोक्ष कारक इतने शक्तिशाली हैं की वे हर परिस्थिति के लिए जनता के अल्पज्ञान को हमेशा ढाल बना के पेश करेंगे.. यहाँन एक दुखद पहलु यह है की जनता तो अभी भी इसी फेर में है की सही क्या है और गलत क्या है? शायद बिकने वाला मीडिया सदैव पूंजीवादी व्यवस्था और पूंजीपतियों का ही परोक्ष समर्थन करेगा. और जन सामान्य का नेतृत्व कमजोर किया जायेगा. यदि इसके बावजूद कोई बाद परिवर्तन होता है तो इसे सिर्फ जनता के जज्बे की जीत कहा जाना चाहिए .
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