आज कानपुर में 2009 में हुए बहुचर्चित और अनसुलझे करन माहेश्वरी ह्त्या-काण्ड के मुख्य आरोपी को गिरफ्तार कर ही लिया गया. तीस हज़ार रुपयों के ईनामी अभिषेक अवस्थी को कानपुर के फूलबाग चौराहे के पास से उत्तर प्रदेश की पुलिस की स्पेशल टास्क फ़ोर्स की टीम के द्वारा गिरफ्तार किया गया है.
जैसा कि सदा से होता आया है, अपराधी का अंजाम यही होता है. उसको गिरफ्त में आने में समय जरूर लगता है पर कहीं न कहीं और कभी न कभी वो क़ानून के शिकंजे में आ ही जाता है चाहे वो या फिर उसका संरक्षक कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो. ऐसा ही इस मामले में भी हुआ.
माया सरकार के शुरूआती वर्षों की बात है, जब कानपुर में श्रीमती नीरा रावत ड़ीआईजी के पद पर तैनात थीं. उनके कार्यकाल में इस मासूम करन माहेश्वरी के अपहरण और फिरौती वसूलने के बाद हत्या कर के लाश को उन्नाव जिले में गंगा की रेती में गाड़ देने की घटना हुयी थी. इस पूरे काण्ड में कोई एक ऐसा शख्स था जो दोनों तरफ से मध्यस्थता कर रहा था. करन के पिता उसके विशवास में थे. उन्होंने फिरौती की रकम बिना पुलिस को भरोसे में लिए हुए एक रात नए पुल में दे दिए थे. इस वसूली के बाद भी जब करन सकुशल नहीं लौटा तो मामला उजागर हुआ.
पुलिस ने गहरी जांच कर मामले को खोलते हुए लाश बरामद की और साथ ही दो आरोपियों को भी गिरफ्तार किया था. फिरौती कि रकम भी बरामद की गयी थी, जिसका एक बड़ा हिस्सा अय्याशी के साजो-सामान में खर्च कर दिया गया था. इस बरामदगी में एक स्कूटर पाया गया था जिस पर प्रेस लिखा था. परन्तु मुख्य आरोपी अभिषेक अवस्थी के फरार हो जाने के कारण से राज नहीं खुल सका था कि उसका प्रेस के साथ क्या सम्बन्ध था? तब भी लोग दबी जबान में किसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार का नाम ले रहे थे पर नाम साफ़ नहीं हो सका था.
आज कि गिरफ्तारी में ये स्पष्ट हो गया कि आखिर 'वो' महाशय कौन हैं? आज अभिषेक अवस्थी की गिरफ्तारी के बाद जब ये राज उजागर हुआ तो मीडिया कर्मियों के लिए एक बड़ा झटका था. कभी स्टार न्यूज के नाम से उगाही करने के नाम और काम के कारण रेलवे स्टेशन में गिरफ्तार किये गए भरत गुप्ता के कहने पर उसने अपने स्कूटर में प्रेस लिखाया था. उस समय जब ये हत्या-काण्ड हुआ था इन महानुभाव का अभिषेक के यहाँ बहुत आना-जाना था. अभिषेक ने कहा कभी-कभी भरत भैया जी न्यूज के लिए भी काम करते हैं. उनकी पहचान पुलिस के आला अधिकारियों में बहुत अच्छी होने के कारण इस और ऐसे जघन्य अपराधों का होना संभव हो पाया है.
प्रश्न ये है कि फर्जी पत्रकारों की गिनती कौन करेगा? प्रेस क्लब को अपनी आत्म-मुग्धता से फुर्सत नहीं है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया कर्मियों में बहुत सारी ऎसी तकनीकी गड़बड़ियां हैं कि वो अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रहे हैं. इनको कोई प्रेस कार्ड या पहचान पत्र प्राप्त नहीं है. एक एक चैनल के सात-आठ लोग माइक एयर कैमरा लिए पूरे शहर में घूम रहे हैं. सारे अवैध धंधे इनकी नजर में हैं. साफ़ बात ये है कि इनके संरक्षण में हैं.
कानपुर के विकास नगर में सेक्स रैकेट चलाने वाले रेस्टोरेंट को सिर्फ कम मासिक रुपये देने के जुर्म में गिरफ्तार करवा दिया गया था. गाड़ियों में प्रेस लिखा कर प्रेशर बनाने का प्रयास किया जा रहा है. जिला प्रशासन इस बवाल में हाथ नहीं डालना चाहता. पुलिस बनाम प्रेस का मामला अभी-अभी ताजा है. पर ऐसे, वैसे और कैसे भी रुपये कमाने के फेर में ये भू-माफियागिरी, नशे के व्यापार को संरक्षण देने, अपहरण, लूट, बलात्कार, हत्या और यौन-व्यापार में लिप्त इन जैसे पत्रकारों को सजा दिलवाने का समय आ ही गया है. अन्यथा और भी करन इस दुनिया से जायेंगे.
एक मूर्तिकार का बेटा था उसने मूर्ति बनाने के व्यापार में हाथ आजमाना शुरू किया. काम में लगन होने कि वजह से उसने बहुत बेहतरीन काम किया. उसको इस बात कि कोफ़्त थी कि उसके पिता ने कभी उसके काम कि तारीफ नहीं की. एक बार उसने पूरी शिद्दत से पत्थर तराश के मूर्ति बनाना शुरू किया...बिना अपने पिता को बताये बहुत दिनों तक काम करने के बाद उसने कला का एक नायाब नमूना पेश किया... पूरे शहर क्या पूरे राज्य में उसका नाम हुआ. उसके पिता ने देखा और बहुत तारीफ की. जब उसे पता चला कि यह मूर्ति उसके बेटे ने बनायीं है तो उसने कहा... "आज मैंने एक कलाकार कि हत्या कर दी." यह एक सकारात्मक आलोचना का ही प्रभाव था कि मेरे बेटे ने अभी तक अपने जीवन कि सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ बनायीं. जब एक कलाकार को आत्ममुग्धता कि बीमारी लग जाये तो उसकी कला का ही अवमूल्यन होता है." स्वतंत्र और निरपेक्ष आलोचक न होने कि वजह से कुछ ऐसा ही हाल कानपुर शहर कि पत्रकारिता का हो चला है. आशा है कि आपके इस लेख से हमारे पत्रकार भाई अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों और समाज में अपने लेखन के महत्व को समझेंगे.
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