राजनीति और सामाजिक जीवन में शुचिता के तमाम
प्रयासों की बहस के बीच अंततः उत्तर प्रदेश में एक बार फिर में समाजवादी पार्टी की
सरकार बन गयी है. इस दल की सबसे बड़ी कमी आपराधिक तत्वों को बढ़ावा देने की बतायी
जाती रही है. समस्त विरोधी दलों के मुख्य वक्ताओं का सीधा आरोप यह रहा है की यह दल
समाजवादी नहीं अपराधवादी पार्टी है.इस चुनाव के पूर्व विख्यात समाजसेवी अन्ना
हजारे ने सभी प्रमुख दलों के प्रमुखों को अपराधियों को चुनाव में प्रत्याशी ना
बनाए जाने के लिए एक पत्र लिखा था. यह राजनीति में अपराधी तत्वों के घुस जाने और
रम जाने की पहली चिंता नहीं है. इसके पहले भी देश में कई बार इस मुद्दे पर गहन
विचार किया गया है.उत्तर प्रदेश की राजनीतिक घटनाक्रमों पर नजर रखने वालों के
मनो-मस्तिष्क में रामशरण दास और मायावती
का “गुंडा-गुंडी प्रकरण” अभी भी ताज़ा है. दूरदर्शन में नलिनी सिंह की
एंकरिंग में चल रहे सीधे प्रसारण में उठा विवाद कई दिनों तक अखबारों की सुर्खियाँ
रहा था. ‘राजनीति के अपराधीकरण’ और ‘अपराधियों के राजनीतिकरण’ से
ज्यादा गंभीर ‘गुण्डों के राजनीतिकरण’ का मुद्दा युवा मुख्यमंत्री अखिलेश के
समक्ष बहुत सशक्त रूप से प्रभावी है. उन्होंने इस समस्या से निपटने के लिए कदम
उठाने शुरू किये हैं जो समय आने पर अपना परिणाम दिखा सकेंगे. उनकी इस मुद्दे पर
सफलता उनकी सरकार की लोकप्रियता और आयु दोनों का निर्धारण करेगी.
1995 में दूरदर्शन पर नलिनी
सिंह के लाइव कार्यक्रम के उस बहुचर्चित एपीसोड में राजनीति में बढते
अपराधीकरण का सवाल पूछकर शांत बहस को हंगामाखेज बना देने वाले पत्रकार सुरेन्द्र
त्रिवेदी बताते हैं नब्बे के दशक का सबसे सफल राजनीतिक प्रयोग समाजवादी पार्टी
और बहुजन समाज पार्टी का मेल था. 1991 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में
समाजवादी पार्टी ने पहली बार चुनाव लड़ा था. उसे कुल जमा पच्चीस सीटें मिली थी.
बहुजन समाज पार्टी को दहाई अंकों में सफलता नहीं मिली थी. केवल नौ सीटों पर वो सफल
रही थी. इन परिस्थितियों में 1993 में दोनों दलों के मेल ने बहुमत का आंकड़ा
प्राप्त कर लिया जो मुझ सहित बहुत से चुनाव विश्लेषकों की समझ से परे था. किन्तु
सत्ता पर अधिक से अधिक नियंत्रण बनाए रखने की होड़ के कारण शीघ्र ही यह समझौता
टूटा. 1995 में चारों प्रमुख दल भाजपा, सपा, कांग्रेस और बसपा ने अलग-अलग चुनाव
लड़ा.सत्ता पर काबिज होने के लिए लगभग सभी दलों ने बड़े-बड़े माफियाओं और अपराधियों
की टिकट दिए थे. मुख्तार अंसारी, अफजाल अंसारी, अतीक अहमद, राजा रघुराज प्रताप
सिंह, चुलबुल सिंह, डी. पी. यादव, हरिशंकर तिवारी सहित सैकड़ों ‘दबंग छवि के
भावी राजनेता’ विभिन्न दलों से चुनाव मैदान में थे. ये वो समय था जब दबंग और
अपराधी तत्व राजनीतिक सरमायेदारी की तलाश में थे. सुरेन्द्र त्रिवेदी बताते
हैं जैसे ही ये सवाल पूछा गया की “किस पार्टी ने कितने अपराधियों को टिकट दिए हैं”,
दूरदर्शन स्टूडियों में मायावती भड़क गयीं और
कहने लगी की मुलायम सिंह यादव खुद गुण्डा है और उसके दल में गुण्डों की फ़ौज
है. दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी कार्यालय से लाइव चल रहे तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष रामशरण
दास बोले की मायावती खुद गुंडी है. आधे घंटे तक चले इस गुण्डा-गुंडी प्रकरण को
सारे देश ने देखा. जिसके परिणास्वरूप केंद्र सरकार ने चुनाव सुधार करने के तहत
राजनीति में अपराधीकरण रोकने के लिए एक समिति का गठन किया. जिसकी रिपोर्ट के बात
सजायाफ्ता अपराधियों को चुनाव में प्रत्याशी बनाए जाने पर रोक लगाई गयी.
उत्तर प्रदेश के
विधानसभा चुनावों में इस बार के चुनाव में भी बाहुबलियों और दबंग छवि के अपराधी
तत्व मैदान में थे. कमोबेश सभी दलों ने माननीय विधायक बनाने के लिए इन्हें टिकट दे
कर प्रत्याशी बनाया था. मुन्ना बजरंगी जैसे दुर्दांत अपराधी मैदान में थे. कई
अपराधियों ने शोर्टकट भी अपनाया जैसे ब्रजेश सिंह ने अपनी पत्नी को चुनाव में खड़ा
किया. ददुआ का बेटा मैदान में था. अतीक और मुख्तार तो पुराने प्रत्याशी हैं. इसे
मतदाता में आई जागरूकता कहें या फिर बढते अन्नावाद का असर की इस बार जनता ने एक-दो
को छोड़कर दबंगों और अपराधियों को विधान भवन जाने से रोका. अपराधियों के लिए आसान
शरणस्थली माने जाने वाली समाजवादी पार्टी में खुद अखिलेश यादव ने चुनाव के
दौरान डी. पी. यादव, धनञ्जय सिंह और बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी
में आने से रोककर साफ़ संकेत दे दिया था की अब पार्टी की राह बदल रही है. अखिलेश
यादव अपराधी छवि के इन भावी साथियों को न केवल रोका वरन इनकी अगवानी करने वाले
मोहन सिंह जैसे पुराने और वरिष्ठ समाजवादी मोहन सिंह को प्रवक्ता पद से
छुट्टी कर गंभीर संकेत दिए. समाजवादी पार्टी की सरकार का सबसे खराब पहलू कार्यकर्ताओं
का गुण्डाकरण माना जाता रहा है. निरंकुश समाजवादी कार्यकर्त्ता के बिना अपराधी हुए
भी हाव-भाव और कार्य-कलाप देखकर जो भय आम जनता में व्याप्त हो जाता है उसपर
नियंत्रण के संकेत दे दिए गए हैं. भीड़-भाड़ वाली सड़क या चौराहे में हूटर बजाती और
सपा का झण्डा लगी कार एक आतंक का माहौल पैदा करती है. उस का प्रभाव यह होता है की समाजवादी
पार्टी का झण्डा लगी किसी भी कार को देखकर आम जनता कहती है निश्चित ही इसमें भी
समाजवादी पार्टी का कोई गुण्डा ही जा रहा होगा. चुनाव बाद झण्डा और हूटर लगाने पर
नियंत्रण लगाने के लिए एक फरमान सभी जिलाध्यक्षों को जारी किया गया है की केवल
सदनों के सदस्य और पार्टी पदाधिकारी ही झण्डा लगा सकेंगे. हूटर लगाने और बजाने पर
कानूनी विधान है जिसका पालन पुलिस-प्रशासन द्वारा किया जायेगा. सरकार आने की
स्थिति में प्रत्येक जिले में बेमौसम तमाम “मिनी मुख्यमंत्री” उपजते हैं उन
पर भी नियंत्रण स्थापित किया जायेगा. सुरेन्द्र त्रिवेदी इन सभी कानूनों और
फरमानों को समाजवादी पार्टी का बसपा की सरकार से लिया गया सबक बताते हैं. उनका
कहना है की इसी तरह ही बसपा ने अपनी पार्टी में शामिल तमाम गुण्डा तत्वों पर सरकार
बनने के बाद नियंत्रण स्थापित किया था. अपराध में लिप्त होने पर बड़े से बड़े नेता
और पदाधिकारियों को जेल भेजकर सख्त शासन का प्रमाण दिया गया था. अब समाजवादी
पार्टी की बारी है की वो कार्यकर्ताओं की गुण्डई पर अंकुश लगाकर आम जनता की पार्टी
होने का आभास दे.
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