Skip to main content

गब्बर सिंह सपने में आये


   आज अलसुबह एक सपना देखा. कहते हैं सुबह का सपना सच हो जाता है, ये सोंचकर सारा दिन परेशान रहा. पत्नी के बार-बार परेशानी का कारण पूछने पर मैंने बताया ,आज गब्बर सिंह सपने में आया था. वास्तव में 'गब्बर' बहुत परेशान था. शोले की तरह ही मुझसे बार-बार पूछने लगा -"कब है होली ? कब है होली ??" मैंने कहा," क्या गब्बर सिंह जी ! हर साल एक ही बात पूछा करते हो ! और दूसरे त्यौहार कभी नहीं पूछते हो ! किसी कंपनी का जूता भी अगर खरीद लेते तो एक कैलेण्डर मिल जाता. मुफ्तखोरी की भी हद है. क्या करोगे इत्ता पैसा और इत्ता अनाज??"
     अब गब्बर ने तुनककर कहा , "चिरकुट लेखक, तुम भी ना बस, बाल की खाल निकालते रहते हो???  अभी भी रामगढ़ की पहाडियों में रह रहा हूँ. पत्थरों में कील तक तो गड़ती नहीं, जो कैलेण्डर के लिए जूते खरीद लाऊँ... अब तुमसे क्या छिपाना, मैं वास्तव में  6 मार्च की मतगणना का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा हूँ. तुम्हें क्या पता !! कालिया और साम्भा के चेलों के चेले मुन्ना बजरंगी, अतीक, अखिलेश सिंह,ब्रजेश सिंह, राजा भैया और अंसारी जैसे ना जाने कितने ही इस बार फिर विधानसभा के अंदर पहुँचने वाले हैं." वो इतने से ही नहीं रुका. मैं सम्हलता, तभी अचानक उसने एक सवाल मुझसे दागा - अच्छा सही सही बताना, ददुआ के लौंडे का चुनाव कैसा था ??? निकल जाएगा न...मैं सकपकाया.....सोंचने लगा कि कैसा ज़माना आ गया है,क्या अब डाकुओं की चुनाव समीक्षा भी करनी पड़ेगी??? पर किया भी क्या जाएगा, अगर ऐसे लोग चुनाव में मैदान पर होंगे तो चुनाव समीक्षा सभी की बाध्यता होगी .
     आखिर में जब मैंने उससे हाथ जोड़कर उसके मन की बात जाननी चाही तो उसने अपनी चिरपरिचित अट्टहास भरी हँसी के साथ कहा, “सुना है तेरे प्रदेश में इस बार चुनाव बाद किसी की सरकार नहीं बन रही है, रे.” मैं घबराया तो उसने मेरी आँखों में आँखें डाल कर कहा,  उत्तर प्रदेश में इस बार कमजोर बहुमत की दशा में सारे चुनाव जीते हुए डाकुओं को मिलाकर एक नया राजनीतिक दल बनाऊंगा. मैं समझ गया इस बार निश्चित ही वह सरकार बनाने के खेल में शामिल होगा. उसने कहा उसके घोड़े बूढ़े हो गए हैं और राइफलें भी पुरानी हो गयी हैं. लालबत्ती लगी अम्बेसडर और ब्लैक कैट कमांडो वाले दस्ते के साथ घूमेगा. साथ छोड़कर जा चुके साम्भा और कालिया को भी बताना है कि गब्बर आखिर किस मिट्टी का बना है .
     सपने की बातें बताते-बताते एक बार फिर मेरे माथे पर पसीना छलछला आया. पत्नी के वजह पूछने पर मैंने कहा मैं उसकी इस बात से बहुत परेशान हूँ क्योंकि इस स्थिति में उसका दल सबसे बड़ा दल ना बन जाए. कहीं गब्बर अकेले ही पूर्ण बहुमत की सरकार ना बना ले, अगर ऐसा हुआ तो इतना भारी मतदान के भी जनता लूटी जायेगी. पत्नी ने कहा कि तुम निरे भोले ही हो. जनता तो होती ही है लूटी जाने के लिए. जनता के बीच में से अब कोई वीरू और जय भी नहीं आने वाले. अभी देखा नहीं एक अन्ना आया था उसे हालत क्या हो गयी. और वो तुम्हारा फूं-फां करने वाला रामदेव तो सलवार-कुर्ते में भागा था. फिर वो चहक कर बोली, वैसे मैं बहुत खुश हूँ की गब्बर की सरकार बनेगी क्योंकि वर्तमान सरकार के उलट उसके घोषित डाकुओं का दल कुछ तो शर्म-लिहाजदार अवश्य ही होगा जो बताकर जनता को लूटेगा. मैं उसकी समझदारी भरी बातें सुनकर स्तब्ध रह गया.

Comments

Popular posts from this blog

दशानन को पाती

  हे रावण! तुम्हें अपने  समर्थन में और प्रभु श्री राम के समर्थकों को खिझाने के लिए कानपुर और बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाक़ों में कही जाने वाली निम्न पंक्तियाँ तो याद ही होंगी- इक राम हते, इक रावन्ना।  बे छत्री, बे बामहन्ना।। उनने उनकी नार हरी। उनने उनकी नाश करी।। बात को बन गओ बातन्ना। तुलसी लिख गए पोथन्ना।।      1947 में देश को आज़ादी मिली और साथ में राष्ट्रनायक जैसे राजनेता भी मिले, जिनका अनुसरण और अनुकृति करना आदर्श माना जाता था। ऐसे माहौल में, कानपुर और बुंदेलखंड के इस परिक्षेत्र में ऐसे ही, एक नेता हुए- राम स्वरूप वर्मा। राजनीति के अपने विशेष तौर-तरीक़ों और दाँवों के साथ ही मज़बूत जातीय गणित के फलस्वरूप वो कई बार विधायक हुए और उन्होंने एक राजनीतिक दल भी बनाया। राम स्वरूप वर्मा ने उत्तर भारत में सबसे पहले रामायण और रावण के पुतला दहन का सार्वजनिक विरोध किया। कालांतर में दक्षिण भारत के राजनीतिक दल और बहुजन समाज पार्टी द्वारा उच्च जातीय सँवर्ग के विरोध में हुए उभार का पहला बीज राम स्वरूप वर्मा को ही जाना चाहिए। मेरे इस नज़रिए को देखेंगे तो इस क्षेत्र में राम म...

जहाँ सजावट, वहाँ फँसावट

चेहरे पर चेहरा      मुझे अपनी जन्म और कर्मस्थली तथा उत्तर प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी कहलाने वाले कानपुर से प्रदेश की मूल राजधानी लखनऊ में बसे हुए तीन वर्ष होने को हैं। मूलतया पत्रकार होने के नाते मेरे देखने के नज़रिए में अन्य लोगों से पर्याप्त भिन्नता है। सम्भव है, मेरा मत और दृष्टिकोण लोकप्रिय और सर्वमान्य ना हो।     इसके बावजूद मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूँ कि आर्थिक-सामाजिक और व्यावहारिक आधार पर इन दोनों  शहरों की बनावट, बसावट, खान-पान, और बाशिंदों के व्यवहार में ज़मीन-आसमान का अंतर है। इन अंतरों के बारे में मैं सदा से स्पष्ट था। कानपुर की अपेक्षा लखनऊ घूमने और रहने के लिए निःसन्देह अधिक सुविधाजनक और चमकदार शहर है। इसके बावजूद कानपुर की संकरी और कम रोशनी वाली गलियों में दिल धड़कता है, जोकि उसकी जीवंतता का परिचायक है। कानपुर के बाशिंदों के चेहरे पर चमक मेहनत से कमाई की पूँजी की है जबकि लखनऊ के शहरी उधार और तिकड़म से चमक बनाए रखने में संघर्षरत हैं।       कानपुर के थोक के बाज़ारों में छोटी सी गद्दी में बैठकर करोड़ों का व्यापार करने वाले...

मन और हम

  मान लीजिए कि आप चाय का कप हाथ में लिए खड़े हैं और कोई व्यक्ति आपको धक्का दे देता है । तो क्या होता है ?  आपके कप से चाय छलक जाती है। अगर आप से पूछा जाए कि आप के कप से चाय क्यों छलकी?  तो आप का उत्तर होगा "क्योंकि मुझे अमुक व्यक्ति (फलां) ने मुझे धक्का दिया." मेरे ख़याल से आपका उत्तर गलत है। सही उत्तर ये है कि आपके कप में चाय थी इसलिए छलकी।  आप के कप से वही छलकेगा, जो उसमें है। इसी तरह, जब भी ज़िंदगी में हमें धक्के लगते हैं लोगों के व्यवहार से, तो उस समय हमारी वास्तविकता यानी अन्दर की सच्चाई ही छलकती है।  आप का सच उस समय तक सामने नहीं आता, जब तक आपको धक्का न लगे... तो देखना ये है कि जब आपको धक्का लगा तो क्या छलका ? धैर्य, मौन, कृतज्ञता, स्वाभिमान, निश्चिंतता, मान वता, गरिमा। या क्रोध, कड़वाहट, पागलपन, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा इत्यादि. निर्णय हमारे वश में है। चुन लीजिए। सोशल मीडिया हो या रोज़मर्रा की ज़िन्दगी- हमारे अंदर का भाव परिवर्तित नहीं हो रहा है और इससे बड़ा सच ये है की परिवर्तित हो भी नहीं सकता है ।  मन किसी भी घटना पर प्रतिक्रिया दे...