Skip to main content

कानपुर के मीडिया-कारों का नया कारनामा "मीडिया बनी पुलिस की मुखबिर"

कानपुर. अब अपने शहर में भी देश-दुनिया में व्याप्त मीडिया की अच्छाइयां और बुराइयां आ चुकी हैं.इन्हीं में से एक हैं 'खोजी पत्रकारिता'. इसे काफी हद तक सभी जगहों पर सराहा भी गया है. चाहे वो जूलियन असान्जे के विकीलीक्स के खुलासों का मामला हो या फिर हिन्दू अखबार के द्वारा टू-जी स्पेक्ट्रम का घोटाला देश के सामने लाने का सराहनीय प्रयास ही क्यों न हो. सभी के माध्यम से मानवता और कानून के रसूख को कायम करने का प्रयास किया गया है.
किन्तु कानपुर में कल की एक घटना और उसकी तह पर जाने पर मीडिया का सर शर्म से झुक गया. मामला ही कुछ ऐसा था जिसे सभी समाचार-पत्रों में इसी रूप में छापा गया पर कोई इस मामले की जड़ में जाने का प्रयास नहीं कर रहा है.
आइये आपको बताते हैं की क्या मामला है और क्या हुआ था और क्या होना चाहिए था?
कानपुर में मुख्य शहर से थोड़ी दूरी पर या फिर कम यातायात वाले दूरस्थ क्षेत्रों में रिसोर्ट, रेस्टोरेंटों , पार्कों आदि में प्रेमी जोड़े नहीं बल्कि पेशेवर और गैर-पेशेवर जोड़े aksar प्रेमालाप करते पाए जाने लगे हैं. आर्थिक उदारीकरण के दौर में भारतीय संस्कृति पर बाजारवाद और भौतिकता का ये सबसे जोरदार हमला है. बड़े शहरों की ये बुराई अब अपने कानपुर में भी तेजी से फ़ैल रही है. संस्कृति के ठेकेदारों ने भी इसे रोकने के लिए बल-प्रयोग करने में अभी भी गुरेज नहीं की. प्रेम एक शाश्वत सत्य है, पर इसका सरेराह और सरेआम प्रदर्शन अश्लीलता की श्रेणी में आ जाता है. इसे कतई सभ्य समाज में स्वीकारा नहीं जा सकता है.इसे रोकने के लिए सरकार और पुलिस को भी सहयोग और प्रयास करने चाहिए.
विकासनगर के कई रेस्टोरेंटों में कल पुलिसिया कार्यवाही की गयी. यहाँ पर कई जोड़े आपत्तिजनक स्थिति में पाए गए. ज्यादातर नग्न और अर्ध-नग्न थे. रेस्टोरेंटों के मालिकों को उनके नौकरों के साथ गिरफ्तार किया गया. पुलिस को ये कार्यवाही बहुत पहले की जानी चाहिए थी परन्तु प्रेम की आड़ में शहर में फैले यौन-व्यापार को रोकने में पुलिस-प्रशासन की कोई मंशा नहीं है और कम उम्र के लड़के-लड़कियों के बढ़ते खर्चे से आजिज़ आ कर माँ-बाप का उनपर घटता नियंत्रण उन्हें जवानी की दहलीज पर भटकने के लिए मजबूर कर देता है. घर से दूर पढाई के नाम पर कानपुर आये इन युवकों में शहरी बुराइयां अति शीघ्र फ़ैल रही हैं.
स्वरूपनगर के क्षेत्राधिकारी बलवंत पुलिस की छापेमारी के पीछे किसी पत्रकार का हाथ बताते हैं. इस प्रकार ये किसी महान पत्रकार के सहयोग से ऐसा होना बताते हैं. यहाँ ये बताते चलें की किन्हीं इलेक्ट्रोनिक मीडिया चैनलों के गिरोह बंद पत्रकारों ने पहले इसी प्रकार के कई और रेस्टोरेंटों को अपना शिकार बनाया था. ये सभी ऐसे चैनलों के माइक और पहचान-पत्र रखते हैं जो 'शायद ही कहीं' और 'कभी' देश के किसी कोने में चलते हों. तन्मय जल-पान गृह जैसे कईयों से इनकी उगाही और इकजाई चलती रहती है. शहर के तमाम नर्सिंग होमों में भी ये जब-तब अपनी छापेमारी जारी रखते हैं. पुलिस के लिए इनका अस्तित्व मुफीद है. इनमें से कयी ऐसे भी हैं जिनका पुलिस में खासा रिकार्ड भी है. यदि इस तह में जाया गया होता की बलवंत चौधरी को सूचना देने वाला कितना सही व्यक्ति है तो सारा मामला सामने आ गया होता. पुलिस और प्रशासन को ये ध्यान देना होगा अन्यथा प्रेस लिखी गाडिओं में घूमने वाले इसी शहर में किसी बड़ी वारदात के जनक होंगे और मानवता इसी प्रकार से शर्मसार होती रहेगी. ये और इस प्रकार का सभी अपराध रुकना चाहिए परन्तु फर्जी पत्रकारों के माध्यम से नहीं जिनका अस्तित्व ही संदिग्ध है.पुलिस को भी इनसे बचना चाहिए और उस सूचनादाता की पहचान को उजागर करना चाहिए जो चंद रंगीन कागज़ के टुकड़े न मिल पाने पर अपना धर्म और कर्म भूलकर पुलिस का मुखबिर बन बैठा .वो संभवतः अपना मीडिया कर्म भूलकर अपने काले कारनामों और काले धंधों से स्वयं को बचाने में ये भूल गया की हमारा काम घटनाओं को उजागर करना है न की पुलिस से मिली-भगत करके दोषी और अपराधिओं से घटनाओं के होने या न होने की मजदूरी वसूलना.

Comments

  1. sahi likha hai aap ne......
    kanpur ki media mahan hai....

    ReplyDelete
  2. sir ji bahut hi sahi likha hai aaj kal esey kai ptrakar hai kanpur me jo vasuli se hi apna selary nikaltey hai .. abhi parso ki hi bat le lijiye ki ek pres photo grapher ne ek pulice wale ko masal khatey huey phot khich li aur phir bat dalali par aa gay bat 500 se shuru hui aur 100 rupaye par mamla shant hua .. aur us pres phot grapher ne phot 100 rupye le kar delet kar di .. esey patrakr sabhi ko badnam karney key liye kafi hai
    http://kanpurashish.blogspot.com/2010/09/5-50000-10-500-50-5-5-500-50000-10000.html

    ReplyDelete
  3. is vishhay par mera likha hua ye lekh padhiye

    ReplyDelete
  4. यह इस शहर की मिटटी है जिसने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें इतनी बुरी तरह हिला दीं कि बौखलाहट में भारतभूमि को भयाक्रांत करने के लिए उन्होंने १३३ भारतीय क्रांतिकारियों को फूलबाग के बूढ़े बरगद पर फांसी देकर मानवता को कलंकित किया. सिर्फ इतने से बात नहीं बनी तो उन्होंने अपना एक डिप्लोमेटिक कार्ड खेला इस शहर का औद्योगीकरण किया और पुरे शहर को लेबर कालोनी में तब्दील करके जनमानस को मुख्यधारा से अलग करने का प्रयास किया. यह देश का दुर्भाग्य रहा कि वे गोरे अपनी मानस औलादें इस शहर में भी छोड़ गए जिन्होंने उन कारखानों पर गर्व किया और शहर को "लेबर कालोनी" न मान के "मैनचेस्टर ऑफ़ ईस्ट" कह के अपनी ही पीठ ठोंकी. इस आर्थिक सामाजिक दौर में पिछड़े हुए लोगों के लिए त्रिपाठीजी कि जिंदादिल पत्रकारिता वर्तमान बिकाऊ मीडिया के लिए एक प्रेरणास्रोत कि तरह है.. त्रिपाठी जी के लिए सामाजिक सरंचना और उसका सशक्तिकरण के लिए समर्पण, उनके व्ययसाय के मायनो से कहीं ज्यादा है... यह हमारे लिए गर्व का विषय है की त्रिपाठीजी जैसा सामाजिक पत्रकार कानपुर का गौरव है.

    ReplyDelete
  5. त्रिपीठी जी इसमें नया जैसा कुछ दिखाई नही देता.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

गयासुद्दीन गाजी के पोते थे पंडित जवाहर लाल नेहरू

    जम्मू-कश्मीर में आए महीनों हो गए थे, एक बात अक्सर दिमाग में खटकती थी कि अभी तक नेहरू के खानदान का कोई क्यों नहीं मिला, जबकि हमने किताबों में पढ़ा था कि वह कश्मीरी पंडित थे।  नाते- रिश्तेदार से लेकर दूरदराज तक में से कोई न कोई नेहरू खानदान का तो मिलना ही चाहिए था। नेहरू  राजवंश कि खोज में सियासत के पुराने खिलाडिय़ों से मिला लेकिन जानकारी के नाम पर मोतीलाल नेहरू  के पिता गंगाधर नेहरू का नाम ही सामने आया। अमर उजाला दफ्तर के नजदीक बहती तवी के किनारे  पहुंचकर एक दिन इसी बारे में सोच रहा था तो ख्याल आया कि जम्मू-कश्मीर वूमेन कमीशन की सचिव  हाफीजा मुज्जफर से मिला जाए, शायद वह कुछ मदद कर सके। अगले दिन जब आफिस से हाफीजा के  पास पहुंचा तो वह सवाल सुनकर चौंक गई। बोली पंडित जी आप पंडित नेहरू के वंश का पोस्टमार्टम करने  आए हैं क्या? कश्मीरी चाय का आर्डर देने के बाद वह अपने बुक रैक से एक किताब निकाली, वह थी रॉबर्ट  हार्डी एन्ड्रूज कि किताब "ए लैम्प फार इंडिया- द स्टोरी ऑफ मदाम पंडित।" उस किताब मे तथाकथित  गंगाधर का चित्र छपा था, जिसके अनुसार

प्रेम न किया, तो क्या किया

     ..... "प्रेम" और "रिश्तों" के तमाम नाम और अंदाज हैं, ऐसा बहुत बार हुआ कि प्रेम और रिश्तों को कोई नाम देना संभव न हो सका. लाखों गीत, किस्से और ग्रन्थ लिखे, गाए और फिल्मों में दिखाए गए. इस विषय के इतने पहलू हैं कि लाखों-लाख बरस से लिखने वालों की न तो कलमें घिसीं और ना ही उनकी स्याही सूखी.        "प्रेम" विषय ही ऐसा है कि कभी पुराना नहीं होता. शायद ही कोई ऐसा जीवित व्यक्ति इस धरती पे हुआ हो, जिसके दिल में प्रेम की दस्तक न हुयी हो. ईश्वरीय अवतार भी पवित्र प्रेम को नकार न सके, यह इस भावना की व्यापकता का परिचायक है. उम्र और सामाजिक वर्जनाएं प्रेम की राह में रोड़ा नहीं बन पातीं, क्योंकि बंदिशें सदैव बाँध तोड़ कर सैलाब बन जाना चाहती हैं.     आज शशि कपूर और मौसमी चटर्जी अभिनीत और मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर का गाया हुआ हिन्दी फिल्म "स्वयंवर" के एक गीत सुन रहा था- "मुझे छू रही हैं, तेरी गर्म साँसें.....". इस गीत के मध्य में रफ़ी की आवाज में शशि कपूर गाते हैं कि - लबों से अगर तुम बुला न सको तो, निगाहों से तुम नाम लेकर बुला लो. जिसके

दशानन को पाती

  हे रावण! तुम्हें अपने  समर्थन में और प्रभु श्री राम के समर्थकों को खिझाने के लिए कानपुर और बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाक़ों में कही जाने वाली निम्न पंक्तियाँ तो याद ही होंगी- इक राम हते, इक रावन्ना।  बे छत्री, बे बामहन्ना।। उनने उनकी नार हरी। उनने उनकी नाश करी।। बात को बन गओ बातन्ना। तुलसी लिख गए पोथन्ना।।      1947 में देश को आज़ादी मिली और साथ में राष्ट्रनायक जैसे राजनेता भी मिले, जिनका अनुसरण और अनुकृति करना आदर्श माना जाता था। ऐसे माहौल में, कानपुर और बुंदेलखंड के इस परिक्षेत्र में ऐसे ही, एक नेता हुए- राम स्वरूप वर्मा। राजनीति के अपने विशेष तौर-तरीक़ों और दाँवों के साथ ही मज़बूत जातीय गणित के फलस्वरूप वो कई बार विधायक हुए और उन्होंने एक राजनीतिक दल भी बनाया। राम स्वरूप वर्मा ने उत्तर भारत में सबसे पहले रामायण और रावण के पुतला दहन का सार्वजनिक विरोध किया। कालांतर में दक्षिण भारत के राजनीतिक दल और बहुजन समाज पार्टी द्वारा उच्च जातीय सँवर्ग के विरोध में हुए उभार का पहला बीज राम स्वरूप वर्मा को ही जाना चाहिए। मेरे इस नज़रिए को देखेंगे तो इस क्षेत्र में राम मनोहर लोहिया, मुलायम सिंह यादव