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हर रिश्ता "बिसात" का घर है, सबके सीने में पत्थर है

    कालजयी कवि प्रमोद तिवारी जी की कविता "कैसा यार कहाँ की यारी, धोखा खाओ बारी-बारी" की दूसरी पंक्ति है- हर भेजा बिसात का घर है, सबके सीने में पत्थर है. मैंने इस पंक्ति में थोड़ा सा परिवर्तन कर "भेजा" को "रिश्ते" में परिवर्तित किया है. इसकी वजह साफ़ है.

    हम इक्कीसवीं सदी के साथ ही "कल-युग" में जी रहे हैं.तमाम विद्वतजन मेरी इस बात से सहमत न होंगे और कलियुग कहेंगे. मेरा अपनी बात के समर्थन में अपना यह पक्ष रखना है कि हम सभी कल-कारखानों के युग में हैं, इसलिए काल-खंड का असर हमारे जीवन में आने लगा है. हम सब भी "मशीन" और "रोबोट" बनते जा रहे हैं. सब कुछ पूर्व-निर्धारित और किताबी दिशा-निर्देशों के अनुसार.

    मनुष्य के मशीनी बन जाने का सबसे खराब असर "मानवीय रिश्तों" पर पड़ रहा है. शायद आप सबने इस बात को मेरी तरह सोंचा होगा या नहीं. मैं मानवीय रिश्तों के मशीनी होते जाने को इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आप सभी प्रतिदिन रिश्तों की मर्यादा को तार-तार करती हुयी अपराधिक घटनाओं को मीडिया में देखते रहते हैं. केवल और केवल धन-सम्पदा और आसान धन की चाहत में आजकल किसी भी रिश्ते की मर्यादा नहीं रखी जा रही है. आरुषि तलवार हत्या-काण्ड इक्कीसवीं सदी के सबसे रहस्यमयी हत्याकांड था, जिसकी गुत्थी कभी नहीं सुलझी.

    हाल में, कानपुर में बर्रा में एक गोद ली गयी लड़की ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपनी माता और पिता की हत्या की साजिश को अंजाम दिया. इसी प्रकार, लखनऊ में एक ठेकेदार की हत्या उसकी पहली पत्नी ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर करवा दी. ऐसी घटनाएं फिल्मों के लिए नवीन कथानक बनते हैं, जिससे अपराधोन्मुखी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है.

    ये दोनों घटनाएं केवल बानगी हैं कि गिरावट की दर कितनी तेज है. आज के कलयुग में रिश्तों की मर्यादा ऐसी गाडी जैसी है जिसका ब्रेक फेल है और पहाड़ी-ढाल पर है.

-अरविन्द त्रिपाठी

06-07-2022 

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