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.....पत्थर, तेरे रंग हजार

 

    इक्कीसवीं सदी में मीडिया के लिए खबर है - जो कभी होता न हो और होता हुआ प्रतीत हो जाए. जैसे- पत्थर का मूल स्वभाव जड़ता है नाकि उड़ता. अगर किसी भी पत्थर में थोड़ी भी जुम्बिश आई, तो सोशल और एंटी-सोशल मीडिया तूफ़ान खड़ा कर देती है. इस तूफ़ान में धूल-गर्द और तमाम पत्थरों को फिर से गति देने की ताकत पैदा होती है. इस प्रकार बारम्बार ये पत्थर उड़ते जा रहे हैं, जोकि  महत्वाकांक्षाओं की अट्टालिकाओं के निर्माण के लिए कच्चा-माल के रूप में उपयोग किये जा सकेंगे, लेकिन इन ‘उड़ते पत्थरों’ ने मानवता को लहूलुहान करने में कोई चूक नहीं की है.

     विद्वान शायर और कुशल प्रशासक डा0 हरिओम की कुछ पंक्तियाँ इसी मद्देनजर  निम्नवत प्रस्तुत है-

धुंध के उस पार देखा कीजिए,

रोशनी की धार देखा कीजिए.

हाथ दीखते हैं सभी एक से,

हाथ के हथियार देखा कीजिए.

     इन ‘उड़ते पत्थरों’ का अपना कोई जाति या धरम नहीं है पर इनमें ‘क्षमता’ बहुत है. असल क्षमता है- निर्माण की. लेकिन अज्ञात दानवीय शक्ति से संचालित इन पत्थरों को उपयोग किया जा रहा है - खून बहाने के लिए. जाने-अनजाने पत्थरों को उड़ने की शक्ति को टी0 आर0 पी0 के चक्कर में मीडिया ने बखूबी उड़ान दी है,  जिस पर सरकार को पहल कर नियंत्रण स्थापित करना चाहिए.

किसी भी कंधे से जुड़ी बाजू से दी गयी गति इन्हें उड़ने और किसी के सिर, वाहन के शीशे को भेदने की अचूकता प्रदान करती है. निशाना सही हो या न हो, अपना असर 'घाव' के रूप में अवश्य छोड़ते हैं और जो घाव शरीर और संपत्ति पर दीखते हैं, उन्हें देखा, मापा और प्रमाणित किया जा सकता है. परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए, ऐसे बेवजह के दंगों में 'उड़ते पत्थरों' से मानवता और समाज के मनोमस्तिष्क पर बने घाव वर्षों-वर्ष तक रिसेंगे और दर्द भी देते रहेंगे.

अरविन्द त्रिपाठी

15-06-2022

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