Skip to main content

अग्निपथ - कुंदन तो आग में तप कर ही बनेगा

 हाल में घोषित की गयी "अग्निपथ" योजना के माध्यम से चार वर्ष के लिए सेना में होने वाली "अग्निवीरों" की भर्ती की घोषणा ने एक तूफ़ान खड़ा कर दिया है। सोशल मीडिया पर लगभग हर दूसरा व्यक्ति इस मुद्दे पर अपनी व्याख्या और समीक्षा में लगा हुआ है। सेना और देश की रक्षा से जुदा मामला होने के कारण इस मुद्दे की संवेदनशीलता है ही इतनी अधिक कि प्रत्येक प्रज्ञावान व्यक्ति शांत रह भी नहीं सकता। सबके अपने-अपने नज़रिए हैं। एंटी-सोशल मीडिया यानी टेलीविजन पर विगत दिनों की भाँति जिस प्रकार टोपी, दाढ़ी और तिलक-चंदन लगाए लोगों को धर्म-विशेषज्ञ के रूप में काम मिल गया, ठीक उसी प्रकार आजकल प्रत्येक चैनल पर रक्षा विशेषज्ञ के नाम पर तमाम पूर्व सैन्य अधिकारियों को बयानवीर होने का काम मिल गया है। देश में एक बार रक्षा-सौदों में घोटाले के आरोप में सरकार भी बदल चुकी है, इसलिए वर्तमान सरकार रक्षा से जुड़े मामले में किसी प्रकार की ग़लती का दोहराव नहीं करेगी। चीन, पाकिस्तान, नेपाल, अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार से जुड़ी सीमा-रेखा और उनकी सुरक्षा के मामले में किसी प्रकार की कोताही बरती भी नहीं जा सकती।

सरकार की समझ और योजना की विवेचना करने वाले विद्वानों ने ज़्यादातर निम्न सवाल खड़े किए हैं-

१- जान को दाँव पर लगाकर चार साल ही क्यों, जबकि शॉर्ट सर्विस कमीशन में समयावधि अधिक की जा चुकी है?

२- चार साल के बाद मिलने वाले ग्यारह लाख रुपयों से भविष्य का क्या होगा?

३- सेना की गुप्त जानकारी पाया व्यक्ति आतंकवाद और अराष्ट्रीय गतिविधियों में शामिल हो गया तो क्या होगा?

४- प्रत्येक वर्ष ७५% नौजवान के बेरोज़गार का भय कुंठा को जन्म देगी और नौजवान में राष्ट्र-सेवा की भावना का विकास नहीं हो सकेगा?

५- मात्र २५% के नियमित होने से सेना के वास्तविक संख्या-बल में उत्तरोत्तर कमी आती जाएगी, जोकि एक घातक पहलू साबित होगा?

६- ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले सेवानिवृत्त पूर्व सैनिक बल की पेंशन से मज़बूत होने वाली ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़ी दीर्घगामी कमज़ोरी आएगी क्योंकि इस चार साल के सेवानिवृत्ति पाए नवयुवक के पास पेंशन भी ना होगी और स्व-रोज़गार उत्पन्न कर पाने का अनुभव और साहस ना होगा तो क्या होगा? 

मेरा अभिमत है कि केंद्र सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना को लाने के पहले सरकार को नियमित भर्ती करनी चाहिए। तदोपरांत इस योजना को प्रस्तुत करने के पहले मानस तैयार करना चाहिए। सेना के ख़र्चों में कमी आवश्यक है किंतु राष्ट्र रक्षा के नाम पर सर्वस्व लुटाने की भावना रखता है। सरकार को दूसरे ख़र्चों में कमी लानी चाहिए और सेना के उन्नयनीकरण और वेतन आदि ख़र्चों से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। निस्सन्देह इस योजना के लाभार्थी शेष सिविलियनों से अधिक अनुशासित और राष्ट्र-भक्त होंगे और संकट के समय देश की सेवा के लिए सदैव रिज़र्व फ़ोर्स के रूप में उपलब्ध रहेंगे। इन सभी सवालों के दृष्टिगत मेरा सुझाव निम्नवत है-

१- सेना में विगत वर्षों से नहीं हुयी भर्ती को शीघ्र पूरा किया जाए।

२- पुरानी और खर्चीली तकनीक के उपकरणों को हटाकर नवीन तकनीक की रक्षा उपकरणों की आपूर्ति की जाए ताकि प्रत्येक जवान की जान और सीमा की रक्षा की जा सके।

३- अग्निपथ योजना में आने वाले युवकों को ही सभी सरकारी सेवाओं के लिए उपयुक्त माना जाए ताकि इस योजना का महत्व बढ़े। सेना में शामिल होने वाले केवल सिपाही ही नहीं होते जबकि विभिन्न ट्रेड में काम करते हैं। अतः चार साल बाद इस समयावधि में रुचि और योग्यता के आधार पर काम पाए युवक ही प्रशासनिक, चिकित्सा, शिक्षा और तकनीकी सेवाओं में सरकारी नौकरी के योग्य माने जाएँ।

४- सभी राज्य सरकारों को भी अपने पुलिस बल आदि की भर्ती में इन्हीं अग्निवीरों को प्राथमिकता ही नहीं अनिवार्यता प्रदान की जाए।

५- केंद्र सरकार सभी प्रकार की ट्रेड और प्रशासनिक सेवाओं के ट्रेनिंग संस्थानों, UGC, NCTE और AITUC जैसी संस्थाओं को शामिल कर एक प्रशिक्षण माडयूल तैयार करे और पाँच लाख की फ़ीस लेकर चार साल की ट्रेनिंग कराए। जिसमें से पच्चीस प्रतिशत को सेना में और शेष को उनकी योग्यतानुसार अन्य सरकारी सेवाओं में नियुक्ति प्रदान करे। जो सरकारी सेवा में ना जाना चाहे उसे स्टार्टअप इंडिया के तहत उद्यमिता के लिए मार्ग प्रशस्त करे।

मेरा यह भी मानना है कि केंद्र सरकार को तत्काल पहल कर इस योजना की समीक्षा कर युवाओं का भरोसा जितना चाहिए और राष्ट्र के भविष्य की बेहतरी के लिए संशोधित योजना प्रस्तुत करनी चाहिए।

Comments

  1. बहुत तथ्य और तर्कपूर्ण भाई साहब।

    ReplyDelete
  2. बहुत सही, पूरी कलई खोल दी आपने

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

... और फिर जूता चल गया.

रोज-रोज जूता । जिधर देखिये उधर ही "जूतेबाजी" । जूता नहीं हो गया, म्यूजियम में रखा मुगल सल्तनत-काल के किसी बादशाह का बिना धार (मुथरा) का जंग लगा खंजर हो गया । जो काटेगा तो, लेकिन खून नहीं निकलने देगा । बगदादिया चैनल के इराकी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी ने जार्ज डब्ल्यू बुश के मुंह पर जूता क्या फेंका ? दुनिया भर में "जूता-मार" फैशन आ गया ।... न ज्यादा खर्च । न शस्त्र-लाइसेंस की जरुरत । न कहीं लाने-ले जाने में कोई झंझट । एक अदद थैले तक की भी जरुरत नहीं । पांव में पहना और चल दिये । उसका मुंह तलाशने, जिसके मुंह पर जूता फेंकना है । जार्ज बुश पर मुंतज़र ने जूता फेंका । वो इराक की जनता के रोल-मॉडल बन गये । जिस कंपनी का जूता था, उसका बिजनेस घर बैठे बिना कुछ करे-धरे बढ़ गया । भले ही एक जूते के फेर में मुंतज़र अल ज़ैदी को अपनी हड्डी-पसली सब तुड़वानी पड़ गयीं हों । क्यों न एक जूते ने दुनिया की सुपर-पॉवर माने जाने वाले देश के स्पाइडर-मैन की छवि रखने वाले राष्ट्रपति की इज्जत चंद लम्हों में खाक में मिला दी हो । इसके बाद तो दुनिया में जूता-कल्चर ऐसे फैला, जैसे जापान का जलजला । जिधर

प्रेम न किया, तो क्या किया

     ..... "प्रेम" और "रिश्तों" के तमाम नाम और अंदाज हैं, ऐसा बहुत बार हुआ कि प्रेम और रिश्तों को कोई नाम देना संभव न हो सका. लाखों गीत, किस्से और ग्रन्थ लिखे, गाए और फिल्मों में दिखाए गए. इस विषय के इतने पहलू हैं कि लाखों-लाख बरस से लिखने वालों की न तो कलमें घिसीं और ना ही उनकी स्याही सूखी.        "प्रेम" विषय ही ऐसा है कि कभी पुराना नहीं होता. शायद ही कोई ऐसा जीवित व्यक्ति इस धरती पे हुआ हो, जिसके दिल में प्रेम की दस्तक न हुयी हो. ईश्वरीय अवतार भी पवित्र प्रेम को नकार न सके, यह इस भावना की व्यापकता का परिचायक है. उम्र और सामाजिक वर्जनाएं प्रेम की राह में रोड़ा नहीं बन पातीं, क्योंकि बंदिशें सदैव बाँध तोड़ कर सैलाब बन जाना चाहती हैं.     आज शशि कपूर और मौसमी चटर्जी अभिनीत और मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर का गाया हुआ हिन्दी फिल्म "स्वयंवर" के एक गीत सुन रहा था- "मुझे छू रही हैं, तेरी गर्म साँसें.....". इस गीत के मध्य में रफ़ी की आवाज में शशि कपूर गाते हैं कि - लबों से अगर तुम बुला न सको तो, निगाहों से तुम नाम लेकर बुला लो. जिसके

गयासुद्दीन गाजी के पोते थे पंडित जवाहर लाल नेहरू

    जम्मू-कश्मीर में आए महीनों हो गए थे, एक बात अक्सर दिमाग में खटकती थी कि अभी तक नेहरू के खानदान का कोई क्यों नहीं मिला, जबकि हमने किताबों में पढ़ा था कि वह कश्मीरी पंडित थे।  नाते- रिश्तेदार से लेकर दूरदराज तक में से कोई न कोई नेहरू खानदान का तो मिलना ही चाहिए था। नेहरू  राजवंश कि खोज में सियासत के पुराने खिलाडिय़ों से मिला लेकिन जानकारी के नाम पर मोतीलाल नेहरू  के पिता गंगाधर नेहरू का नाम ही सामने आया। अमर उजाला दफ्तर के नजदीक बहती तवी के किनारे  पहुंचकर एक दिन इसी बारे में सोच रहा था तो ख्याल आया कि जम्मू-कश्मीर वूमेन कमीशन की सचिव  हाफीजा मुज्जफर से मिला जाए, शायद वह कुछ मदद कर सके। अगले दिन जब आफिस से हाफीजा के  पास पहुंचा तो वह सवाल सुनकर चौंक गई। बोली पंडित जी आप पंडित नेहरू के वंश का पोस्टमार्टम करने  आए हैं क्या? कश्मीरी चाय का आर्डर देने के बाद वह अपने बुक रैक से एक किताब निकाली, वह थी रॉबर्ट  हार्डी एन्ड्रूज कि किताब "ए लैम्प फार इंडिया- द स्टोरी ऑफ मदाम पंडित।" उस किताब मे तथाकथित  गंगाधर का चित्र छपा था, जिसके अनुसार