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.................अच्छाई की मजबूरी

 

देवानन्द-हेमा की हिट फिल्म थी-जानी मेरा नाम। जिसमें खूंखार विलेन प्रेमनाथ ने अपने सगे भाई को कैद कर रखा था और तरह-तरह की यातनाएं दिया करता था। जुल्म बर्दाश्त से बाहर होने पर बन्दी जीवन जी रहे भाई ने एक दिन फिल्म के डायरेक्टर को सेट करके ऑन-कैमरे पूंछा कि “आखिर, मेरा कुसूर क्या है?”

अचानक सवाल आने से हड़बड़ाए हुए प्रेमनाथ ने दहाड़ कर कहा- “तुम्हारा दोष ये है कि तुम बेहद शरीफ आदमी हो, बेहद ईमानदार हो और तुम्हारी इस शराफत ने बचपन से ही मेरा जीना हराम कर रखा है। शराब तुम नहीं पीते। जुआ तुम नहीं खेलते। अय्याशी भी तुम नहीं करते। तुम्हारी ये अच्छाई मुझे बुरा बनाती है। अगर तुम भी बुरे होते तो मुझे कोई परेशानी न होती।”

इसी सन्दर्भ में एक पुराना सिद्धांत याद आ गया, जिसे ब्रिटिश रॉयल एक्सचेंज के आदि संस्थापक थामस ग्रेशम द्वारा दिया गया था। इस सिद्धांत के अनुसार- "यदि किसी अर्थव्यवस्था में अच्छी और बुरी मुद्राएँ एक साथ प्रचलन में हैं, तो बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को प्रचलन से बाहर कर देती है।"

ग्रेशम के सिद्धान्त को प्रेमनाथ के शब्दों से समझा जा सकता है। ग्रेशम ने कभी भी यह नहीं सोंचा रहा होगा कि उनका यह सिद्धांत अर्थशास्त्र के साथ ही आज के जीवन में सभी क्षेत्रों में व्याप्त बुराइयों की व्याख्या और अच्छाइयों की मजबूरी को स्पष्ट करने में मजबूत उदाहरण बनेगा। आज अच्छाई केवल खुद में सिमटी हुयी किसी मसीहा के इंतज़ार में है और बुराई अपने पूरे रूआब के साथ मौज में है।

                                  -अरविन्द त्रिपाठी

                                  Date- 14-06-2022

         



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