आखिर क्यों पिछड़ गए “पिछड़े”
उत्तरप्रदेश में विधान-सभा का चुनावी
माहौल अब गरम होने लगा है. पहले चरण के नामांकन की तारीख नजदीक आ रही है. प्रदेश
में चुनाव के मुद्दों में भटकाव जोरों पर है. विगत वर्ष चर्चा में रहे भ्रष्टाचार,
महँगाई, काला-धन वापसी और अपराध के स्थान पर जातीय आधार जीत का गणित बनने लगा है. किन्तु
आर्थिक और जातीय आधार पर “पिछड़ा-वर्ग” कहलाने वाला समाज सत्ता पाने और कब्जियाने
में एक बड़ा भाग पाने में सक्षम होने के बावजूद छोटे-छोटे स्वार्थों के चलते बिखर
सा गया है. वैचारिक गिरावट का दौर ऐसा है की समाजवादी, राष्ट्रवादी, वाम-पंथी और
मध्यमार्गी सभी प्रकार की राजनैतिक विचारधाराओं के दल आज इस खास पिछड़ा वोट-बैंक को
हथियाने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाने में शर्मो-हया त्याग चुके हैं. इसके अतिरिक्त
इस वर्ग में आई जातीय और राजनीतिक चेतना के परिणामस्वरूप प्रत्येक जाति का अपने
क्षेत्र-विशेष में अपना राजनीतिक वजूद कायम रहे इसलिए राजनीतिक दल बन चुका है.
जिनकी भूमिका “दबाव-समूह” या “उगाही-समूह” से अधिक कुछ नहीं है. बड़े राजनीतिक दलों
की भूलों और उनकी खास रणनीतिक समझ से कारण भी इन दलों का उदय हुआ है. परन्तु इस
चालू-चक्रम तिकडम में समग्र पिछड़ी एकता और सामूहिकता का ह्रास हुआ है. जिसका
खामियाजा इस समाज के साथ सभी राजनीतिक दलों को उठाना पड़ेगा. धार्मिक आधार पर दिए
गए अल्पसंख्यकों के आरक्षण की केंद्र की पेशकश ने भी पिछडों और मुसलमानों की
सामूहिक राजनीति करने वाले दलों को ठेस पहुंचाई है. घटती एकता और मुस्लिम मतों के
खो जाने के भय के परिणामस्वरूप पिछडों में इस छति के प्रति बढते रोष को कोई भी
राजनीतिक दल मुद्दा बनाने की हैसियत में नहीं है.
मंडल कमीशन से सरकारी नौकरियों में
आरक्षण का लाभ पायी जातियों में 1990 के बाद से पूरे देश में
तेजी से जागृति आयी. इस "पिछडा वर्ग" में सरकारी नौकरियों में स्थाई
रोजगार पाने के लिए हुयी शैक्षणिक क्रान्ति और घटते अवसरों के परिणामतः और दुसरे
पेशों के प्रति रुख में परिवर्तन जारी रहा. तकनीकी और प्रबंधन की शिक्षा में भी इस
वर्ग के छात्रों ने बढ़-चढ़कर योगदान किया. परन्तु ये विकास बहुत सीमित और मुट्ठी भर
लोगों तक ही सीमित होकर रह गया. राज्य-विशेष में सत्ता पर काबिज राजनीतिक दल में
हावी और प्रभावी जाति-विशेष में भी बहुत थोड़े लोगों ने इस आर्थिक लाभ की मलाई को
चट कर लिया और क्रीमी लेयर का निर्माण किया. इस वजह से अपेक्षाकृत कम लाभ पा सकी
जातियों में उनके प्रति उपजा रोष स्वाभाविक भी था. यही कारण था की बड़े
राजनीतिक दलों ने इनके दर्द को राजनीतिक ताकत पाने का सहारा बनाने में गुरेज नहीं
की. दूसरी तरफ मंडल-आधारित राजनीति करने वाले क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने भी
इन्हें अपने पाले में जोड़े रखने की पूरी कोशिश की. नए नेतृत्व के उदय के लिए अपनी
जाति में प्रभाव और उस जाति का किसी क्षेत्र विशेष में जागरूक और बड़ा समूह होना
पहली शर्त बन गयी. आज सभी प्रमुख
राजनीतिक दलों में प्रत्येक पिछड़ी जाति का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं का
“कोरम” पूरा है. जिनका प्रभाव और अस्तित्व दो या पांच जिलों की गिनी-चुनी विधान
सभाओं तक ही रह गया है. इसी वजह से इस जातीय समूह में दरकन उत्तर प्रदेश में साफ़
दिखने लगी है. आपसी एकता की कमी और जैसे-तैसे कमजोर राजनीतिक स्थिति में सत्ता
कब्जियाने की बंदर-बाँट में बड़ा हिस्सा सुनिश्चित करने लिप्सा के कारण अलग-अलग
जातियों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के दंभ के चलते मूल उद्देश्य में भटकाव आना
तय है. इसका परिणाम इन जातियों के समग्र विकास
में बाधक होगा. जिसकी जिम्मेदारी कम विकसित राजनीतिक समझ के राजनेताओं की होगी,
जिनकी वजह से ये पूरा पिछडा वर्ग कहलाने वाला समाज आर्थिक और राजनीतिक विकास की
दौड और होड में पीछे छूटता जा रहा है. इसी वजह से अपनी जाति और कुनबे के आधार पर
बनाई गयी राजनीतिक दलों की सक्रियता के कारण प्रत्येक जाति की राजनीति करने वालों
में “कबीलावादी” और खासकर “कुनबावादी” राजनीतिक संस्कृति विकसित हुयी है. इसी के
चलते अपना दल, महान दल, जन क्रान्ति पार्टी, राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी, जन लोक
शक्ति पार्टी, राष्ट्रीय लोक-मंच,पीस पार्टी आदि का उदय और विकास सीमित हो कर रह
गया.
कभी चर्चा में रहने वाले शब्द “सोशल
इंजीनियरिंग” की ऎसी-तैसी हो चुकी है. इस शब्द को गढ़ने वाले भाजपाई नेता
गोविन्दाचार्य इस चुनावी कुम्भ में खो चुके हैं. अगड़ों और पिछडों को जोड़कर सत्ता
पर काबिज होने की कोई भी भाजपाई जुगत मूर्त रूप नहीं ले पा रही है. राजनाथ सिंह
जनित सिद्धांत अर्थात अति दलित और अति पिछडों को जोड़ने के फेर में भाजपा के शीर्ष
नेतृत्व की समझ घोटालेबाजी के आरोपी बाबू सिंह कुशवाहा को जोड़ने में आतुरता के
चलते प्रबुद्ध-वर्ग में कोसी जा रही है. लोधी वोट को कल्याण सिंह के खेमे से तोड़ने
के लिए उमा भारती और सच्चिदानन्द हरि साक्षी महराज को सक्रिय किया गया है. विनय
कटियार के सहारे कुर्मी वोट बैंक को बचाने और बढाने की तिकडम है.दूसरी तरफ बसपा ने
"द-ब्रा" गठजोड़ को फिर से लागू करने की योजना बना ली है. गौतम बुद्ध के
शाक्य कुलोत्पन्न होने का लाभ बसपा को शाक्य और कुशवाहा जातियों के वोट के रूप में
विगत चुनावों में मिला था. साथ ही यादवों और कुर्मियों के अतिरिक्त शेष पिछड़े समाज
में बड़ा हिस्सा साथ आया था जो अपनी आर्थिक विपन्नता के पैमाने पर दलित समाज से
ज्यादा नजदीक था. सपा को काँग्रेस की चुनाव-पूर्व अल्पसंख्यकों को दिए गए आरक्षण के
लालीपॉप से लकवा मार गया है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में अजीत सिंह और पूर्वी उत्तर
प्रदेश में बेनी प्रसाद वर्मा के साथ न होने से “पिछड़ा एका” की धुरी बनने का मुलायम का स्वप्न अधूरा रह जाना है. विगत
लोकसभा चुनावों से ठीक पहले सपा का कल्याण सिंह से किया गया गठबंधन, मुलायम सिंह
यादव की पिछडों का सबसे बड़ा नेता बनने की चाहत का ही परिणाम था. उन्हें इसका
खामियाजा मुसलमान वोट-बैंक को खोकर उठाना पड़ा था. जन-लोकपाल के मुद्दे पर अन्ना की
मार से पिटी और कार्य-कर्त्ता विहीन काँग्रेस पूर्वी उत्तर प्रदेश बेनी प्रसाद
वर्मा के सहारे पिछड़ों पर डोरे डाल रही है और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजीत सिंह
के समक्ष नत मस्तक है. बुन्देलखण्ड और सेन्ट्रल यू.पी. में कांग्रेस के पास युवा
और सर्वमान्य पिछड़े वर्ग के नेता का सर्वथा अभाव है. कभी हिन्दू ह्रदय सम्राट
कहलाने वाले कल्याण सिंह आज केवल अपने जाति के मसीहा बनकर रह गए हैं.
गौर करें,
सभी
राजनीतिक दलों की निगाह इन पिछड़ों पर एक-मुश्त वोट बैंक के रूप में है. ये इन्हें
सत्ता पाने की सीढ़ी माना जा रहा है. वास्तव में केवल और केवल
"जाति-विशेष" और ‘क्षेत्र-विशेष’ में प्रभावी और सक्रिय राजनीतिक दलों
के उग आने से "समग्र पिछडा जाति एकीकरण" या इस समूह को जोड़कर आगामी
चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर राष्ट्र-निर्माण में सहभागी बनने और बनाने
की दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं किया जा रहा है. परिणामतः पिछडा वर्ग कहलाने
वाले जातीय समूह में आर्थिक और राजनीतिक चेतना के जाग्रत हो जाने के बावजूद इस
चुनाव में पिछडना तय है जिसकी भरपाई आने वाले समय
में न की जा सकेगी.
thats a nice sharing and reality of society.
ReplyDeletejawab to aapne khud hi likha hai bhaiya ki सभी राजनीतिक दलों की निगाह इन पिछड़ों पर एक-मुश्त वोट बैंक के रूप में है. ये इन्हें सत्ता पाने की सीढ़ी माना जा रहा है.
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