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छोटे राजनीतिक दलों के सहारे उत्तर प्रदेश का राजनीतिक भविष्य


               उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है.  शीघ्र ही प्रदेश के राजनीतिक भविष्य की रूपरेखा जनता के समक्ष स्पष्ट हो चुकी होगी, जिसकी नींव का निर्माण पूर्व में हो चुका है. कभी प्रदेश में केवल कांग्रेस-विरोध को सत्ता-विरोध और मजदूर-किसान-नौजवान की बात करने वालों को जन-समर्थक मानकर छोटे दलों के उदय और विकास की पहली अनिवार्य शर्त माना जाता था.  समय के साथ सत्ता पर नियंत्रण और विरोध का उद्देश्य दोनों बदले. सत्ता में भागीदारी आज की राजनीति की पहली शर्त बन गयी है. यही वजह है, प्रदेश की किसान और मजदूर राजनीति भी अपनी चमक खो बैठी है जबकि इस वर्ग की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है. मजदूर और मजलूमों की बात राजनीतिक दलों के मंचों में केवल मुद्दे को जीवित बनाए रखने के लिए की जा रही है. नए और क्षेत्रीय दलों के उदय और विकास के लिए किसी मान्य राजनीतिक विचारधारा की पृष्ठभूमि अब अनिवार्य शर्त ना रही है. जातीय और धार्मिक आधार पर बनाए गए इन राजनीतिक दलों का किसी खास क्षेत्र विशेष में प्रभाव-मात्र ही इनकी राजनीतिक धमक और चुनावी रन में उपयोगिता का परिचायक है. इसी आधार पर बने दलों समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के विकास से प्रेरित नए राजनीतिक क्षेत्रीय दलों ने आज की प्रादेशिक स्थितियों का लाभ उठाते हुए चुनाव में भागीदारी का मन बनाया है. सवाल फिर भी आम जनता यानी उस वर्ग का है जिसके खास हितों के संरक्षण के लिए इन दलों का निर्माण किया गया था.
      बहुत छोटे और तात्कालिक हितों की रक्षा के जातीय और धार्मिक आधार पर बने गए राजनीतिक दलों के अस्तित्व को आज के राजनीतिक विशेषज्ञ लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं मानते. कारण ये है, मुद्दा-हीन चुनावों में मतदान पचास प्रतिशत के आस-पास होने से जीत-हार का अंतर बहुत कम हो जाता है. उत्तरप्रदेश के 2007 के विधानसभा चुनावों में 91 विधानसभा क्षेत्रों में सौ से तीन हज़ार के अंतर में हार-जीत हुयी थी. इस स्थिति में बहुत छोटे-छोटे दलों के प्रत्याशियों के पाए मतों की वजह चुनाव परिणामों में अंतर लाने में जिम्मेदार बन जाती है. इसकी वजह राजनीतिकों के क्रिया-कलापों के प्रति आम जनता की अरुचि है. जनता का मतदान केन्द्रों से दूर होते जाने की वजह से इन राजनीतिक दलों के मतों का मूल्य बढ़ गया है. इस स्थिति से उबरने के लिए मतदाताओं को मतदान-केन्द्रों तक अनिवार्य रूप से लाने और सम्पूर्ण चुनाव-सुधार करने की जरूरत को नजर-अंदाज कर राजनीतिक दलों ने जैसे-तैसे सत्ता पर काबिज बने रहने के लिए बिसात बिछा दी है.  कारण साफ़ है, ज्यादातर मतदाताओं ने पहले ही मतदान ना करके वर्तमान दलगत राजनीतिक स्थिति को ठुकरा दिया है. अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी और जन-लोकपाल समर्थक आंदोलन में इसी तबके ने बढ़-चढ़कर भाग लिया है. यदि उस व्यवस्था से नाराज युवा तबके ने इस बार के चुनावों में मतदान भी कर दिया तो प्रदेश के सभी राजनीतिक दलों की गणित में बहुत हद तक बदलाव आ जाएगा. परन्तु ये दल बहुत आश्वस्त है की कुछ नहीं होने वाला क्योंकि ‘वो’ आंदोलन अलग बात है और चुनाव अलग बात है.  यदि व्यवहार में मतदान होता भी है तो निश्चित ही वह भी जातिगत खांचे से उबर नहीं पायेगा. यही वजह है की सभी बड़े-छोटे राजनीतिक दलों ने प्रत्याशियों के चयन में “जातिगत-रणनीति” का विशेष ध्यान रखा है. उनमें प्रत्येक में लगातार ये होड बनी रही की किस दल के द्वारा किस जाति-विशेष का प्रत्याशी पहले घोषित करने में सफलता मिले. इस वजह से बड़े दलों ने यह भी ध्यान नहीं दिया की पिछले चुनावों में किसी क्षेत्र-विशेष में उनका प्रत्याशी जीता या हारा था. कौन किसके साथ या विरोध में था. इस स्थिति में सभी दल एक सी रणनीति और उसके क्रियान्वयन में लगे रहे. कम मतदान-प्रतिशत और जातीय आधार पर प्रत्याशी चयन, ये दोनों हालात छोटे दलों के लिए मुफीद बनते जा रहे हैं और उनकी रणनीति और प्रत्याशी चयन बड़े राजनीतिक दलों के लिए सरदर्द हैं. किसी भी दल के लिए अपराधी, बाहुबली और भ्रस्टाचारी होना अब प्रत्याशी होने की अयोग्यता ना होकर जिताऊ होने का आधार माना जाने लगा है. छोटे कहलाने वाले राजनीतिक दलों ने खुले हाथों से इन्हें टिकट दिए. कम मतदान की स्थिति में उनकी जाति और वर्ग का मतदान ही उनकी जीत का आधार है.
        इस तरह की सडांध मारती राजनीतिक स्थिति में होने वाले चुनावों में दो सौ से अधिक दलों के चुनाव में भागीदारी करने की आशा है. राजनीति के विशेषज्ञों का माथा चकरा देने वाली स्थिति है. विचारधारा के स्तर पर लगभग शून्य की स्थिति है.इस थिति में स्रोत में ही गंदले होते पानी से क्या किसी नयी राजनीतिक विचारधारा या उसके समर्थक किसी राजनीतिक दल का उदय और विकास ना हो पायेगा जबकि राष्ट्रवादी और समाजवादी विचारधारा के दलों में भी दागी और बागी बहुतायत में हैं. उससे बड़ी बात ये की जिन छोटे दलों को आज सभी बड़े राजनीतिक दल पानी पी-पीकर कोस रहे हैं, चुनाव बाद वो निश्चित हूँ किसी ना किसी राजनीतिक खेमे में सरकार बनाने में सक्रिय रहेंगे और यही दल उन्हें शामिल करने को लालायित रहेंगे. आजादी के बाद पाया गया है नये राजनीतिक दल के उदय और विकास की संभावना सदैव अपने खास जाति, वर्ग, समुदाय और संप्रदाय के हितों को साथ लेकर ही होती है. ऎसी ही पार्टियों को देखते हुए संविधान विशेषज्ञ सुभाष काश्यप कहते ही लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के बनाने पर रोक नहीं है, लेकिन पार्टी बनाने वालों को तो देखना ही चाहिए की उन्हें वोट मिलते भी है या नहीं ? चुनाव आयोग को इस पर ध्यान देना चाहिए. जो पार्टियां एक सीमा तक वोट नहीं पाती हैं उनकी मान्यता समाप्त की जानी चाहिए. इसके विपरीत चुनाव आयोग ने दस प्रतिशत से अधिक सीटों पर प्रत्याशी खड़े करने वाले दलों मजबूती प्रदान करने के लिए एक ही चुनाव-चिन्ह प्रदान किया है, जिससे उनके चुनाव खर्च में कमी लाई जा सके. लोकतंत्र के विकास के लिए यह जरूरी है नए दलों का निर्माण हो पर जनमत का अपहरण ना हो. इस छोटे दलों को वोटकटवा, रीटेल या फिर बटमार दल कहना उचित नहीं है क्योंकि यही दल भविष्य की वह अविरल धारा साबित हो सकते हैं जो आज किसी बरसाती नाले की शकल में हैं. इनकी भविष्य में सत्ता में भागीदारी करने की अनिवार्य बाध्यता के पीछे का कारण साफ़ है – वैचारिक या संगठनात्मक अनुशासन की कमी. इस कमी के कारण केवल अपना अस्तित्व बनाए और बचाए रखने के लिए चुनावी राजनीति में शामिल हुए लोगों को बिना सत्ता का हिस्सा बने रोक पाना संभव नहीं होगा. बड़े राजनीतिक दलों की गणित के लिए मुफीद इन दलों में आयी राजनीतिक एकता की चेतना राजनीतिक स्थितियों में बहुत परिवर्तन इसलिए नहीं ला पायेगी क्योंकि इन प्रत्येक दलों का मत दूसरे दल में शिफ्ट होने की स्थिति नहीं बन पा रही है. फिर भी ये दल इस बार के विधान सभा चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे.
        व्यक्ति, जाति, सम्प्रदाय और क्षेत्र के आधार बने इन राजनीतिक दलों में कुछ ही दलों और उनके प्रमुखों का नाम आम है.जैसे पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की जनक्रांति पार्टी, केन्द्रीय उड्डयन मंत्री अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल, पूर्व सपा और हाई प्रोफाइल नेता अमर सिंह की राष्ट्रीय लोक मंच, बसपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रहे स्व. सोनेलाल पटेल की अपना दल, मशहूर सर्जन डा. अयूब की पीस पार्टी, अन्ना के आंदोलन में अन्ना के मंच की शोभा बढ़ा चुके फिल्म अभिनेता राजा बुंदेला की बुंदेलखंड कांग्रेस, डा. उदित राज की इन्डियन जस्टिस पार्टी, पुराने समाजवादी नेता रघु ठाकुर की लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी प्रमुख हैं. दूसरे प्रान्तों में सरकार बनाए राजनीतिक दलों जैसे शिव सेना, जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल, लोक जन शक्ति पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने भी इस चुनाव में अपनी भागीदारी साबित करने के लिए चुनाव में कूदने का मन बना लिया है.
-    अरविन्द त्रिपाठी, कानपुर.
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