Skip to main content

आई जलेबी बाई

लो कल्लो बात. फिर से बीच मैदान आखिर वो आ ही गयीं. जब वो नहीं थीं तो शीला की जवानी और मुन्नी की बदनामी से देश काम चला रहा था. चुलबुल पांडे भी कैरेक्टर ढीला किये हुए थे. देश अन्ना और रामदेव में व्यस्त था. की तभी उन्होंने बड़ी झन्नाटेदार एंट्री मारी है.

ज्यादा मत सोचिये ? और कौन होंगी ? अपनी पांच साल पुरानी 'मर्डर' फिल्म ...से हिट हुयी, वही देश की प्यारी-दुलारी ,नंगी-पुंगी-मल्लिका शेरावत हैं . अपने देश के सारे पुरुष अपनी पत्निओं से छुपाकर उनकी कामना करते हैं. चुपके-चुपके उसके फोटो देख ही लेते हैं जैसे बैन होने के बाद भी देश के सारे पत्रकार "भड़ास" देख लेते हैं.

वैसे अगर मैं स्त्री सौदर्य की व्याख्या में तल्लीन हो जाऊं तो बुरा मत मानियेगा . ये सुंदरता होती ही ऎसी चीज है , बस किसी में भी लगने लगती है. फिर वो तो हैं ही ऎसी की मन उनका नाम आते ही 'गिली-गिली-कम्पट' हो जाता है. दोस्तों, अभी एक फिल्म में वो जलेबी बाई बनी हैं और एक गाने में थिरकी हैं . अजी , क्या कमाल का थिरकी हैं ! काश आज 'एम्. एफ.' होते ! खैर, कोई बात नहीं,हम भी एक हाथ में कूंचा-कूंची लिए एम्. एफ. बन जाना चाहते है. चचा तो चले गए पर हमारे जैसे भतीजे छोड़ गए हैं. ज्यादा नहीं तो दीवाने कैसे होते और बनते हैं ये तो उनसे सीखा ही जा सकता है. 'हम आपके हैं कौन' उन्होंने पचासी दफा देखी थी. वो भी एक खास गाने में माधुरी के नितंबों पर गुलेल के पत्थर के लगने के बाद का 'खास इफेक्ट' यानी थरथराहट देखने जाते थे.

देखो , हम इतिहास के विद्यार्थी ठहरे. दोहराने का मन हो आया है. मर्डर में उनके लबों की थरथराहट कम गजब नहीं थी. रही-सही कसर उन्होंने अब पूरी कर दी है.जलेबीबाई का बेली डांस देख के मन काबू में नहीं है. अब हमने तो अपने मन की गाँठ खोल दी है. ज्यादा सिद्धांतवादी बने बिना सीधे गाना देखो, और तब अपने जज्बातों की बौछार हम पर करना.

Comments

Popular posts from this blog

... और फिर जूता चल गया.

रोज-रोज जूता । जिधर देखिये उधर ही "जूतेबाजी" । जूता नहीं हो गया, म्यूजियम में रखा मुगल सल्तनत-काल के किसी बादशाह का बिना धार (मुथरा) का जंग लगा खंजर हो गया । जो काटेगा तो, लेकिन खून नहीं निकलने देगा । बगदादिया चैनल के इराकी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी ने जार्ज डब्ल्यू बुश के मुंह पर जूता क्या फेंका ? दुनिया भर में "जूता-मार" फैशन आ गया ।... न ज्यादा खर्च । न शस्त्र-लाइसेंस की जरुरत । न कहीं लाने-ले जाने में कोई झंझट । एक अदद थैले तक की भी जरुरत नहीं । पांव में पहना और चल दिये । उसका मुंह तलाशने, जिसके मुंह पर जूता फेंकना है । जार्ज बुश पर मुंतज़र ने जूता फेंका । वो इराक की जनता के रोल-मॉडल बन गये । जिस कंपनी का जूता था, उसका बिजनेस घर बैठे बिना कुछ करे-धरे बढ़ गया । भले ही एक जूते के फेर में मुंतज़र अल ज़ैदी को अपनी हड्डी-पसली सब तुड़वानी पड़ गयीं हों । क्यों न एक जूते ने दुनिया की सुपर-पॉवर माने जाने वाले देश के स्पाइडर-मैन की छवि रखने वाले राष्ट्रपति की इज्जत चंद लम्हों में खाक में मिला दी हो । इसके बाद तो दुनिया में जूता-कल्चर ऐसे फैला, जैसे जापान का जलजला । जिधर

प्रेम न किया, तो क्या किया

     ..... "प्रेम" और "रिश्तों" के तमाम नाम और अंदाज हैं, ऐसा बहुत बार हुआ कि प्रेम और रिश्तों को कोई नाम देना संभव न हो सका. लाखों गीत, किस्से और ग्रन्थ लिखे, गाए और फिल्मों में दिखाए गए. इस विषय के इतने पहलू हैं कि लाखों-लाख बरस से लिखने वालों की न तो कलमें घिसीं और ना ही उनकी स्याही सूखी.        "प्रेम" विषय ही ऐसा है कि कभी पुराना नहीं होता. शायद ही कोई ऐसा जीवित व्यक्ति इस धरती पे हुआ हो, जिसके दिल में प्रेम की दस्तक न हुयी हो. ईश्वरीय अवतार भी पवित्र प्रेम को नकार न सके, यह इस भावना की व्यापकता का परिचायक है. उम्र और सामाजिक वर्जनाएं प्रेम की राह में रोड़ा नहीं बन पातीं, क्योंकि बंदिशें सदैव बाँध तोड़ कर सैलाब बन जाना चाहती हैं.     आज शशि कपूर और मौसमी चटर्जी अभिनीत और मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर का गाया हुआ हिन्दी फिल्म "स्वयंवर" के एक गीत सुन रहा था- "मुझे छू रही हैं, तेरी गर्म साँसें.....". इस गीत के मध्य में रफ़ी की आवाज में शशि कपूर गाते हैं कि - लबों से अगर तुम बुला न सको तो, निगाहों से तुम नाम लेकर बुला लो. जिसके

गयासुद्दीन गाजी के पोते थे पंडित जवाहर लाल नेहरू

    जम्मू-कश्मीर में आए महीनों हो गए थे, एक बात अक्सर दिमाग में खटकती थी कि अभी तक नेहरू के खानदान का कोई क्यों नहीं मिला, जबकि हमने किताबों में पढ़ा था कि वह कश्मीरी पंडित थे।  नाते- रिश्तेदार से लेकर दूरदराज तक में से कोई न कोई नेहरू खानदान का तो मिलना ही चाहिए था। नेहरू  राजवंश कि खोज में सियासत के पुराने खिलाडिय़ों से मिला लेकिन जानकारी के नाम पर मोतीलाल नेहरू  के पिता गंगाधर नेहरू का नाम ही सामने आया। अमर उजाला दफ्तर के नजदीक बहती तवी के किनारे  पहुंचकर एक दिन इसी बारे में सोच रहा था तो ख्याल आया कि जम्मू-कश्मीर वूमेन कमीशन की सचिव  हाफीजा मुज्जफर से मिला जाए, शायद वह कुछ मदद कर सके। अगले दिन जब आफिस से हाफीजा के  पास पहुंचा तो वह सवाल सुनकर चौंक गई। बोली पंडित जी आप पंडित नेहरू के वंश का पोस्टमार्टम करने  आए हैं क्या? कश्मीरी चाय का आर्डर देने के बाद वह अपने बुक रैक से एक किताब निकाली, वह थी रॉबर्ट  हार्डी एन्ड्रूज कि किताब "ए लैम्प फार इंडिया- द स्टोरी ऑफ मदाम पंडित।" उस किताब मे तथाकथित  गंगाधर का चित्र छपा था, जिसके अनुसार