भारत की नदियों में बहने वाला सतही जल का अधो-भूजल के साथ गहरा रिश्ता रखता है. अधो-भूजल के भण्डार जब खाली होते हैं तो नदियों की सतह पर बहने वाले जल का दर्शन नहीं होता.नदियाँ अधो-भूजल भण्डार भरने पर छोटे-छोटे झरनों से निकलने वाली जल धाराओं से निर्मित होती है. गंगा, यमुना, कृष्णा, गोदावरी, कावेरी आदि सभी नदियों में अब जहां अधो-भूजल का प्रवाह है, वहीँ वह नदी बची है. अन्यथा देश भर की सभी नदिया नाला बन गयी हैं या जल के प्रवाह के बिना सूखकर मर गयी हैं.
अब इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में भारत में बहुत सी छोटी नदियाँ सूखकर मिट गयी हैं. उनके प्रवाह स्थल पर खेती, उद्योग और आवास अब जगह-जगह बनते जा रहे हैं. नदियों के मरने और सूखने की घटनाओं से अब भारतीय समाज और सरकारें चिंतित नहीं दिखती हैं. एक ज़माना था जब नदियों के प्रवाह को देखकर समाज उसके संरक्षण के सपने संजोता था. जहर और अमृत की धाराओं को अलग-अलग रखने की विधियां सोचकर उन्हें सम्हालकर रखता था. आजकल हममें अमृत-वाहिनी नदियों में मिला और जहर मिलाने की हिचक तक मिट गयी है. अब नदियों में मिला और जहर मिलाने वाले बड़े बन गए हैं.ऐसे समाज में जो "नीर, नारी और नदी" का सम्मान करके दुनिया का गुरू बना हुआ था, उसे हमारे आधुनिक उदारीकरण व बाजारीकरण वाली सभ्यता ने समेत कर संहार कर दिया है. ऐसा लगता है की आज की सभ्यता भारतीय नदी संस्कृति को लील चुकी है. इसीलिए अब हम नदियों को नाला बनाने वाला हिंसक और भ्रष्टाचारी रास्ता अपना रहे हैं. इस रास्ते पर अब हमें आगे बढ़ने के बजाय भारतीय संस्कृति की सम्मान देने वाली नीर, नारी और नदी को पुनः जीवित करने की जिजीविषा जुटानी पड़ेगी.
उत्तर प्रदेश गंगा-जमुनी संस्कृति का जनक रहा है. इस राज्य को अपनी नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने हेतु नदी भूमि का अतिक्रमण रोकना तथा प्रदूषण करने वाले नालों को नदी से दूर मोड़ना आवश्यक है.आज हमें नदियों के प्रवाह को बढ़ाने हेतु वर्षा जल सहेजकर वर्षा ऋतु में बहते जल को धरती के पेट में डालने का काम करना चाहिए. पानी से भरा धरती का पेट लम्बे समय तक पानीदार बना रहेगा क्योंकि सूरज की किरणें भूजल की चोरी नहीं करती हैं. वाष्पीकरण नहीं होता. बल्कि भूजल से भरे हुए भंडारों का दबाव नदियों के प्रवाह में ऊर्जा पैदा करता है. यह ऊर्जा जब कोई नहीं समुद्र में मिलती है तो समुद्र की ऊर्जा से नदी का जल-स्तर ऊपर आ जाता है. समुद्र की ऊर्जा व नदी के भूजल की ऊर्जा का योग नदी को प्राकृतिक बनाकर देता है. समुद्र और नदी का करंट (ऊर्जा) मौसम का मिज़ाज़ ठीक करने व धरती का बुखार उतारने में भी मदद करता है.
उत्तर प्रदेश की नदियों के प्रवाह को बनाकर रखने में नदियों के प्रवाह क्षेत्र में मोती रेट की गहरी तह बड़े स्पंज का काम करती थीं, लेकिन नदियों में हो रहे खनन, उद्योग , खेती सभी कुछ भूजल के भंडारों का शोषण करने में जुटे हैं, जब भूजल के भण्डार शोषित हो जाते हैं तो अधो भूजल के करंट (ऊर्जा) मर जाते हैं. और नदी का यह रेट जो स्पंज की भूमिका निभाता था वह भी अब नष्ट हो गया है. नदियों के भूजल के भंडारों का खाली होना उत्तरप्रदेश की खेती और उद्योगों पर तो बुरा असर डालेगा ही साथ ही साथ यहाँ के समाज की सेहत को भी बिगाड़ेगा. नदियों के मरने और सूखने से भारत के मानव समाज की आर्थिकी और सेहत दोनों बिगड़ जायेगी. दुनिया के बाज़ार की गिरावट हमें नदियों और खेती के कारण ही नहीं गिरा सकी थीं. लेकित अब नदियाँ बीमार होंगी तो हम भी बीमार होने से नहीं बच सकेंगे. इलाज में हमारी आर्थिकी बिगड़ेगी और हमारे काम छूटेंगे . हमारे विकास की गति भोथरी हो जायेगी. हम उलटा सैकड़ा, दहाई और इकाई पर आकर खड़े हो जाएंगे.नदियों का पर्यावरणीय प्रवाह ही हमारे जीवन के प्रवाह को बनाकर रखता है. हमारी जीविका, जीवन और जमीन भूजल के भण्डार और नदी के प्रवाह से जुड़े हैं. हमें अब नदियों के प्रवाह को सुनिश्चित करने वाली नदी नीति चाहिए. भूजल का भण्डार भूजल पुनर्भरण और नदियों के प्रवाह को बढाने वाला जल-संरक्षण का संस्कार तथा नदी के साथ सद्व्यवहार चाहिए.
साथ ही साथ भूजल शोषण को रोकने वाला अधिनियम तथा मर्यादित जल उपयोग को व्यवहार में लाने वाला सामुदायिक दस्तूर चाहिए. तभी हमारी नदियाँ मरने से बचेंगी. भूजल के भण्डार बचेंगे और हमारा जीवन समृद्ध होगा.
दिल्ली के समाचार पत्र "आज समाज" में ६ जून को नियमित स्तम्भ "ब्लॉग" में प्रकाशित.
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