हे रावण! तुम्हें अपने समर्थन में और प्रभु श्री राम के समर्थकों को खिझाने के लिए कानपुर और बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाक़ों में कही जाने वाली निम्न पंक्तियाँ तो याद ही होंगी- इक राम हते, इक रावन्ना। बे छत्री, बे बामहन्ना।। उनने उनकी नार हरी। उनने उनकी नाश करी।। बात को बन गओ बातन्ना। तुलसी लिख गए पोथन्ना।। 1947 में देश को आज़ादी मिली और साथ में राष्ट्रनायक जैसे राजनेता भी मिले, जिनका अनुसरण और अनुकृति करना आदर्श माना जाता था। ऐसे माहौल में, कानपुर और बुंदेलखंड के इस परिक्षेत्र में ऐसे ही, एक नेता हुए- राम स्वरूप वर्मा। राजनीति के अपने विशेष तौर-तरीक़ों और दाँवों के साथ ही मज़बूत जातीय गणित के फलस्वरूप वो कई बार विधायक हुए और उन्होंने एक राजनीतिक दल भी बनाया। राम स्वरूप वर्मा ने उत्तर भारत में सबसे पहले रामायण और रावण के पुतला दहन का सार्वजनिक विरोध किया। कालांतर में दक्षिण भारत के राजनीतिक दल और बहुजन समाज पार्टी द्वारा उच्च जातीय सँवर्ग के विरोध में हुए उभार का पहला बीज राम स्वरूप वर्मा को ही जाना चाहिए। मेरे इस नज़रिए को देखेंगे तो इस क्षेत्र में राम म...
मूलतया कनपुरिया - बेलौस, बिंदास अन्दाज़ के साथ एक खरी और सच्ची बात का अड्डा…
जूता कांड एक फैशन बन गया हे / जूता मारने वाला फ़ोकट की पब्लिसिटी पाने के लिए नए नए जूता खोरो को ढूंड कर सार्वजानिक तोर पर जुटे मार रहे हे / यह स्थिति किसी भी लिहाज से भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक हे / परन्तु इसका पूरा श्रेय बेईमान नेताओ को ही जाता हे जो जोंक की तरह भारतीय जनमानस का खून फिछले ६४ सालो से चूस रहे / अब भी समय हे जब हम सभी को आत्मावलोकन करना चाहिए / ताकि भविष्य में कोई नया जूता खोर / जुटे का शिकार न बन जाए
ReplyDeleteArvind ji, It has become the easiest and most economic method to become known by throwing a shoe. I regret! I wasted all my old shoes against the discount coupons of Big Bazar. Had I kept them carefully, I would have fetched more opportunity to become famous. Great Loss!
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