चेहरे पर चेहरा
मुझे अपनी जन्म और कर्मस्थली तथा उत्तर प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी कहलाने वाले कानपुर से प्रदेश की मूल राजधानी लखनऊ में बसे हुए तीन वर्ष होने को हैं। मूलतया पत्रकार होने के नाते मेरे देखने के नज़रिए में अन्य लोगों से पर्याप्त भिन्नता है। सम्भव है, मेरा मत और दृष्टिकोण लोकप्रिय और सर्वमान्य ना हो।
इसके बावजूद मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूँ कि आर्थिक-सामाजिक और व्यावहारिक आधार पर इन दोनों शहरों की बनावट, बसावट, खान-पान, और बाशिंदों के व्यवहार में ज़मीन-आसमान का अंतर है। इन अंतरों के बारे में मैं सदा से स्पष्ट था। कानपुर की अपेक्षा लखनऊ घूमने और रहने के लिए निःसन्देह अधिक सुविधाजनक और चमकदार शहर है। इसके बावजूद कानपुर की संकरी और कम रोशनी वाली गलियों में दिल धड़कता है, जोकि उसकी जीवंतता का परिचायक है। कानपुर के बाशिंदों के चेहरे पर चमक मेहनत से कमाई की पूँजी की है जबकि लखनऊ के शहरी उधार और तिकड़म से चमक बनाए रखने में संघर्षरत हैं।
कानपुर के थोक के बाज़ारों में छोटी सी गद्दी में बैठकर करोड़ों का व्यापार करने वाले लाला भी चाट-बताशे का भरपूर मज़ा लेते हैं और दो-पाँच रुपयों के लिए रिक्शे और ठेले वालों से मोलभाव करते दिख जाएँगे। अपनी गंदी सी एक्टिवा स्कूटर में सीट के नीचे लाखों रुपए के बंदल बेख़ौफ़ लेकर चलते हुए उन्हें क़तई भी मान-प्रतिष्ठा का स्वैग नहीं होता। आम बाशिंदे भी खुलकर मिलने और अपना अभिमत देने में संकोच नहीं करते हैं। आम-जीवन में ज्ञान और सम्पदा का बहुत अधिक दिखावटीपन नहीं मिलता। स्व0 गिरिराज किशोर जी जैसा प्रखर मेधावी व्यक्तित्व भी आसानी से सम्पर्क में आ जाते रहे। कानपुर में आसान तरीक़े से संघर्ष कर आगे आने की प्रवृत्ति आम है।पसीने के दम पर मज़बूत हुए प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व में नरमी और दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए माद्दा केवल कानपुर के बाशिंदों में ही देखने को मिलती है।
जबकि दूसरी तरफ़ "मुस्कराइए ! आप लखनऊ में हैं" की टैगलाइन वाला शहर लखनऊ है, जिसकी मूल नजाकती और नफ़ासती संस्कृति को बाहर से आने वालों ने बहुत बिगाड़ दिया। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में अंधाधुँध विकास और अनियंत्रित शहरीकरण को आसान लोन ने अत्यधिक बढ़ावा दिया, जिससे लखनऊ का भौगोलिक विस्तार बहुत ही तेज़ी से हुआ। शहर के केंद्र हज़रतगंज से पच्चीस किलोमीटर चारों तरफ़ शहर बढ़ चुका है और नागरीय सेवा और सुविधाओं पर अत्यधिक दबाव है। भू-माफ़िया, सत्ता के दलाल और अधिकारियों ने विभिन्न सरकारों में राज नेताओं के सहयोग से कृषि योग्य ज़मीनों की प्लाटिंग जारी कर रखी है। शहर के चेहरे पर उधार (ऋण) और दलाली के धन की चमक है। ज्वैलरी और मिठाई की दुकानें एक ही सी दिखती हैं, जिनमें कभी भी भीड़ कम नहीं होती है। गोमती पार का लखनऊ पुराने शहर को उसके पिछड़ेपन पर मुँह चिढ़ाता है। उसकी चमक से बराबरी के लिए किए गए उसके नैतिक और चारित्रिक पतन का मार्ग दिखाता है। वास्तविक खोखलापन यही है, जिसका परिणाम पतन है।
असल में, समृद्धि व वैभव की दिखावट में सजावट और बनावट का आधार है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति की नैतिक गिरावट तय है।
अरविन्द त्रिपाठी
09-10-2022
बेहद सुंदर एवं भावपूर्ण जीवन शैली का चित्रण दोनों शहरों के बारे में आपने अपने ब्लॉग में किया है इसके लिए हृदय से आभार
ReplyDeleteसत्य वचन
ReplyDeleteआपने जन बुझ कर कुछ बातों को छोड़ दिया कानपुर की बेतावज्जू यहां के राजनीतनीतिक मानसिकता का परिचायक है
ReplyDeletebahut badiya
ReplyDeleteबिंदास, बेबाक, जबरदस्त
ReplyDelete🙏🙏🙏
ReplyDeleteExcellent 👍 Perfect
ReplyDeleteकानपुर का किसी शहर से क्या मुक़ाबक? लेकिन लखनऊ मेरी जन्मस्थली, एवं हमारी आपकी कर्मस्थली के रूप में हमारे परिवारों का भरण पोषण कर रही है।
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