दोस्तों,
उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनावों की आहट सुनाई देते ही यहाँ देशभर के राजनेताओं और राजनीतिक दलों ने अपना प्रचार-प्रसार प्रारम्भ कर दिया है.
सुशासन बाबू पहले ही अपने दल को राष्ट्रीय रूप देने के लिए उत्तरप्रदेश के दौरे पर हैं.
यदि पंजाब के अकालीदल को आगामी चुनावों में सफलता मिलती है तो वो भी उत्तरप्रदेश में हाथ आजमाएगी.
कई बार शिवसेना ने यहाँ अपने कट्टर हिन्दूवाद के नाम पर चुनावों में प्रत्याशी उतारे हैं, किन्तु उल्लेखनीय सफलता नहीं प्राप्त की.
हैदराबाद के ओवैसी भी 2017 में आने वाले हैं.
दिल्ली राज्य वाले अरविन्द केजरीवाल भी अभी नहीं तो कभी भी उत्तरप्रदेश की तरफ निगाहें जमाये हैं. यहाँ का एक ख़ास शहरी वर्ग उनके स्वागत में उद्विग्न है. उनके विज्ञापन भी अक्सर हिन्दी और अंग्रेजी के समाचारपत्रों में शोभा बढाते रहते हैं. उत्तरप्रदेश में क्षेत्रीय इलेक्ट्रोनिक चैनलों में भी उनका विज्ञापन आता रहता है.
अभी हाल में देश के प्रधान-सेवक के दो साल के कार्यकाल की उपलब्धियों को विज्ञापित करने में देश के लगभग एक हजार करोड़ को फूंक दिया गया.
अब बात तेलंगाना के मुख्यमंत्री के इस विज्ञापन की,
उत्तरप्रदेश में उनकी क्षेत्रीय, जातीय, भाषाई समझ शून्य होने के बावजूद अमरउजाला जैसे विशुद्ध हिन्दी प्रसार-क्षेत्र वाले अखबार में दिए गए चार पेज के विज्ञापन यह साबित करते हैं की गैर-भाजपाई सरकार वाले राज्यों को अपनी उपलब्धि बताने और जताने के लिए उत्तरप्रदेश के विशाल जन-मानस के समक्ष अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को दिखाने की बाध्यता और दबाव रहता है.
अर्थात, उत्तरप्रदेश की जनता देश में राजनीति करने वालों के लिए एक स्वीकृति प्रदान करने वाली प्रयोगशाला है.
कभी-कभी मैं यह भी सोंचता हूँ, की नए बने राज्य #तेलंगाना में पकाई जाने वाली खीर की मात्रा अधिक हो गयी है, जो पकाए जाने वाले बर्तन से बाहर गिर-गिरकर फ़ैल रही है, जिसे अखबार वाले लोग भर लाये हैं......
मेरा सवाल इन सभी राजनीतिक दलों और उनके मुख्यमंत्रियों और देश के प्रधानमन्त्री से है कि आम जनता की गाढ़ी कमाई को व्यक्तिगत उपलब्धि के प्रचार-प्रसार के लिए उड़ाया जाना कितना नैतिक और उपयुक्त है???
सिलेंडर की सब्सिडी को वापस करने की मुहिम से हुयी बचत से गरीब महिलाओं को गैस-कनेक्शन देने की पहल की मैंने तारीफ़ की थी किन्तु केवल अपनी वाह-वाही के लिए किये जाने वाले अपव्यय को रोकने के लिए प्रभावी नीतियाँ बनाने की महती आवश्यकता है, वरना देश में लाखों कालाहांडी, लातूर और बुंदेलखंड बनते जायेंगे और हम अपनी शुतुरमुर्गी नीति पर खुद ही तालियाँ पीटते रहेंगे.
आपातकाल के दौरान सूचना के सभी माध्यमों के सरकारीकरण के समय और नरसिंहराव सरकार का "चार कदम सूरज की और", अटल बिहारी सरकार का"इंडिया शाइनिंग अभियान", मनमोहन सिंह के अपनी उपलब्धियों के प्रचार अभियान और इन सभी अति महत्वाकांक्षी प्रचार-प्रसार अभियानों की पूर्णतः विफलता से भी सबक सीखना ही होगा.
मेरा कहना यह है कि हर उस सरकार को मुंह की खानी पड़ी है जिसने आत्म-मुग्धता में सरकारी धन को बर्बाद किया हो.
उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनावों की आहट सुनाई देते ही यहाँ देशभर के राजनेताओं और राजनीतिक दलों ने अपना प्रचार-प्रसार प्रारम्भ कर दिया है.
सुशासन बाबू पहले ही अपने दल को राष्ट्रीय रूप देने के लिए उत्तरप्रदेश के दौरे पर हैं.
यदि पंजाब के अकालीदल को आगामी चुनावों में सफलता मिलती है तो वो भी उत्तरप्रदेश में हाथ आजमाएगी.
कई बार शिवसेना ने यहाँ अपने कट्टर हिन्दूवाद के नाम पर चुनावों में प्रत्याशी उतारे हैं, किन्तु उल्लेखनीय सफलता नहीं प्राप्त की.
हैदराबाद के ओवैसी भी 2017 में आने वाले हैं.
दिल्ली राज्य वाले अरविन्द केजरीवाल भी अभी नहीं तो कभी भी उत्तरप्रदेश की तरफ निगाहें जमाये हैं. यहाँ का एक ख़ास शहरी वर्ग उनके स्वागत में उद्विग्न है. उनके विज्ञापन भी अक्सर हिन्दी और अंग्रेजी के समाचारपत्रों में शोभा बढाते रहते हैं. उत्तरप्रदेश में क्षेत्रीय इलेक्ट्रोनिक चैनलों में भी उनका विज्ञापन आता रहता है.
अभी हाल में देश के प्रधान-सेवक के दो साल के कार्यकाल की उपलब्धियों को विज्ञापित करने में देश के लगभग एक हजार करोड़ को फूंक दिया गया.
अब बात तेलंगाना के मुख्यमंत्री के इस विज्ञापन की,
उत्तरप्रदेश में उनकी क्षेत्रीय, जातीय, भाषाई समझ शून्य होने के बावजूद अमरउजाला जैसे विशुद्ध हिन्दी प्रसार-क्षेत्र वाले अखबार में दिए गए चार पेज के विज्ञापन यह साबित करते हैं की गैर-भाजपाई सरकार वाले राज्यों को अपनी उपलब्धि बताने और जताने के लिए उत्तरप्रदेश के विशाल जन-मानस के समक्ष अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को दिखाने की बाध्यता और दबाव रहता है.
अर्थात, उत्तरप्रदेश की जनता देश में राजनीति करने वालों के लिए एक स्वीकृति प्रदान करने वाली प्रयोगशाला है.
कभी-कभी मैं यह भी सोंचता हूँ, की नए बने राज्य #तेलंगाना में पकाई जाने वाली खीर की मात्रा अधिक हो गयी है, जो पकाए जाने वाले बर्तन से बाहर गिर-गिरकर फ़ैल रही है, जिसे अखबार वाले लोग भर लाये हैं......
मेरा सवाल इन सभी राजनीतिक दलों और उनके मुख्यमंत्रियों और देश के प्रधानमन्त्री से है कि आम जनता की गाढ़ी कमाई को व्यक्तिगत उपलब्धि के प्रचार-प्रसार के लिए उड़ाया जाना कितना नैतिक और उपयुक्त है???
सिलेंडर की सब्सिडी को वापस करने की मुहिम से हुयी बचत से गरीब महिलाओं को गैस-कनेक्शन देने की पहल की मैंने तारीफ़ की थी किन्तु केवल अपनी वाह-वाही के लिए किये जाने वाले अपव्यय को रोकने के लिए प्रभावी नीतियाँ बनाने की महती आवश्यकता है, वरना देश में लाखों कालाहांडी, लातूर और बुंदेलखंड बनते जायेंगे और हम अपनी शुतुरमुर्गी नीति पर खुद ही तालियाँ पीटते रहेंगे.
आपातकाल के दौरान सूचना के सभी माध्यमों के सरकारीकरण के समय और नरसिंहराव सरकार का "चार कदम सूरज की और", अटल बिहारी सरकार का"इंडिया शाइनिंग अभियान", मनमोहन सिंह के अपनी उपलब्धियों के प्रचार अभियान और इन सभी अति महत्वाकांक्षी प्रचार-प्रसार अभियानों की पूर्णतः विफलता से भी सबक सीखना ही होगा.
मेरा कहना यह है कि हर उस सरकार को मुंह की खानी पड़ी है जिसने आत्म-मुग्धता में सरकारी धन को बर्बाद किया हो.
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