Skip to main content

गुंडई की सुविधाजनक सफाई


  उत्तर प्रदेश के २००७ के चुनावों में जनता के सामने दो विकल्प थे – समाजवादी पार्टी का अपराध और गुंडाराज और बहुजन समाज पार्टी का भ्रष्टाचार. प्रदेश की जनता ने साफ़ सन्देश देते हुए आगामी पांच साल के लिए भ्रष्टाचार को चुना और समाजवादी पार्टी के अपराध और गुंडाराज को नकार दिया. चुनाव से पूर्व के साढ़े तीन साल के शासनकाल में समाजवादी पार्टी ने कार्यकर्ताओं को छूट के बहाने छेड़-छाड़, अपहरण, लूट, बलात्कार, ह्त्या, डकैती जैसे जघन्यतम अपराधों पर अंकुश लगाने का कभी कोई संकेत नहीं दिया था. जिसका खामियाजा उसे विगत चुनावों में भोगना पड़ा था.
     प्रदेश की बेबस जनता ने पूर्व में इन दोनों दलों की सरकारों को भोगा था. वो इन दोनों दलों की शासन की नीति और नीयत से अनजान ना थी. ऊंची जातियों खासकर ब्राह्मणों ने ने खुलकर हरिजन-समर्थक बसपा का साथ दिया था. बसपा को चुनने का उनका मंतव्य साफ़ था, गुंडा-राज से मुक्ति और धन देकर अपने काम करा लेने की आजादी. जैसा कि हुआ भी यही कि धन-शक्ति संपन्न लोगों के काम प्राथमिकता के आधार पर बसपा सरकार में किये गए. गरीब और शोषित समाज का आधार वोट-बैंक को संतुष्ट करने के लिए सरकारी योजनाओं में स्थान देने में कोई गुरेज नहीं की गयी.
      विगत चुनावों में समर्थन देने के बावजूद ऊंची जातियों खासकर ब्राह्मणों पर हरिजन-उत्पीडन के मुकदमें भी बिना किसी खास हीला-हवाली के तत्काल दर्ज किये गए. शक्ति-संपन्न और शक्ति का प्रदर्शन करने वाले लोगों पर बसपा का शासनकाल भारी रहा. बसपा के विधायक, सांसद और मंत्री भी इस आधार पर तत्काल दण्डित किये गए जिसका दलित-शोषित वोट-बैंक ने खुलकर स्वागत और समर्थन किया. सवाल ये है कि स्वयं द्वारा चुने गए भ्रष्टाचार से जनता आखिर क्यों उकताई ?? वजह साफ़ है – बसपा-राज में भ्रस्टाचारी शासन के साथ अपराध का तड़का. औरैया में पी. डब्ल्यू. डी. के इंजीनियर की ह्त्या और सरकार की नाक के नीचे लखनऊ में तीन सी. एम्. ओ. की ह्त्या कि घटनाओं ने जनता को हिला दिया. दुर्दांत डकैत ददुआ, ठोकिया जैसे खूंखार डकैतों के गिरोहों से मुक्ति पाकर खुश हुयी जनता किसी पोंटी चड्ढा या बाबू सिंह कुशवाहा के भ्रष्टाचार से आन्दोलित नहीं हुई थी, किन्तु भ्रष्टाचार और अपराध के घालमेल से डरकर जनता ने बसपा को हरा दिया. बसपा ने भी अपराधियों और दबंगों को टिकट देकर चुनावों में प्रत्याशी बनाया था पर उनपर अनुशासन के नाम पर नियंत्रण बनाए रखा था जो आखिरी समय कमजोर हो गया था.
     समाजवादी पार्टी को अपनी पिछली हार के कारणों का अंदाजा था. गुंडा-गर्दी की छवि से निजात पाने का प्रयास कर रही पार्टी को बसपा के अपराधी-छवि धारण करने के जन-आरोप से काफी राहत मिली. पार्टी ने युवा अखिलेश को चुनाव में आगे कर इस छवि को सुधारने का प्रयास किया. तमाम दागी छवि के लोगों को टिकट नहीं दिया गया और बाबू सिंह कुशवाहा, डी. पी. यादव और धनञ्जय सिंह जैसे लोगों से दूरी बनाए रखी गयी. परन्तु राजा भैया, गुड्डू पंडित, ओमप्रकाश सिंह, अरविन्द सिंह ‘गोप’ जैसे सैकड़ों बड़े अपराधियों को अग्रिम पंक्ति में शामिल कर समाजवादी पार्टी ने साफ़ संकेत दिए कि ये केवल सुविधा-जनक सफाई है. जिनका परिणाम स्थायी साबित नहीं हो रहा है.
      विगत दो दशकों में राजनीति में एक नयी प्रवृत्ति का विकास हुआ है.जिसमें  सरकारी राजनीतिक पार्टी का भाग बनने के लिए अनियंत्रित गुंडा-तत्व झंडा-दल के सदस्य बन जाते हैं. सरकार किसी भी दल की आये वो उस दल के झंडे को अपने हाथों में थाम लेते हैं. किन्तु ये झंडा-दल के लोग कैसे सनियंत्रित किये जायेंगे ये कभी भी सुनिश्चित नहीं हो पाता है. यह स्थिति समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के बाद बहुत ज्यादा बिगड़ जाती है, जो कानून-व्यवस्था पर भारी पड़ती है.
     इस बार भी ऐसा ही हुआ है. सरकार के बहुमत पाने के संकेत आते ही झांसी में मतगणना के दौरान हुआ गुंडई का जो तांडव शुरू हुआ है वो रुकने का नाम नहीं ले रहा है. शपथ-ग्रहण से पूर्व प्रदेश-भर में सपा के कार्यकर्ताओं के द्वारा दहाई से अधिक संख्या में लोगों को मौत के घाट उतार देना तो केवल बानगी थी. अखिलेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद मंच पर हुयी सरे-आम गुंडई से सरकार के आगामी स्वरूप के अपरिवर्तित रहने का स्पष्ट संकेत मिला है. यद्यपि सरकार की छवि बदलने की कशमकश जारी है.
     पार्टी पदाधिकारियों और विधानमंडल एवं संसद सदस्यों के अतिरिक्त झंडा लगी गाड़ियों को रोकने और प्रदेश सरकार को शुभकामना सन्देश देने के बहाने अपनी छवि चमकाने वाली बड़ी-बड़ी होर्डिंगों को ना लगाने के आदेश जारी किये गए. समाजवादी पार्टी की पिछली सरकारों में बहुत प्रभावी रहे कई नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया गया. कार्यकर्ताओं में अनुशासन का पाठ पढाने की कोशिश कर रही सपा इस प्रकार बसपा से सबक ले रही है किन्तु अभी इसमें बहुत कमियां हैं. अपनी सरकार बनने के बाद उमाकांत यादव और अम्बिका चौधरी के कारनामें एक से ही थे. दोनों ने विपक्षियों के घर गिरवा दिए थे. जिस अपराध ले लिए मायावती ने उमाकांत यादव को लखनऊ बुलाकर अपने आवास से गिरफतार करवाया था उसी अपराध की पुनरावृत्ति अम्बिका चौधरी द्वारा होने पर भी अखिलेश सरकार के कानों में कोई आहट नहीं पहुंची है. कानपुर में ऐसे ही एक कथित सपाई ने गुंडा-टैक्स ना देने पर दूसरे युवक को आत्महत्या के लिए बाध्य कर दिया. पूर्व मंत्री रामअचल राजभर की फैक्ट्री जला दी गयी. कानपुर में एक पुलिस चौकी में एक गुंडे ने चौकी-प्रभारी को गोली से मार दिया. हाल में एक महिला को नग्नावस्था में पूरे गाँव में घुमाने की घटना घटी है. जसवंतनगर में देवी को झंडा चढाने की होड और पुलिस से झड़प के बाद तीन लोगों की मौत ये बताती है कि किस तरह सरकार बनने के बाद कार्यकर्ता निरंकुश हो चुका है. होली में अपने गाँव पहुंचे मुलायम सिंह ने खुद कार्यकर्ताओं की अफरातफरी से खीझकर अनुशासन में रहने की सलाह दी थी, जो आज तक प्रभावी होती नहीं प्रतीत होती है.
      सरकार खोने के बाद मायावती का कहना कि बहुत जल्द प्रदेश कि जनता मुझे और मेरी सरकार को याद करेगा, तब अवश्य ही हास्यास्पद लग रहा था किन्तु लगता है बहुत जल्द जनता प्रदेश भर में व्याप्त दल-विशेष के नेताओं और कार्यकर्ताओं की गुंडई से त्रस्त जनता समाजवादी सरकार से उकताकर लोकसभा चुनावों में अपना फैसला बदल सकी है. प्रदेश में सरकार बनाने की खुशी से ओत-प्रोत मुलायम सिंह के तीसरा-मोर्चा बनाने और केन्द्र में सरकार बनाने के ख़्वाब को यही सपा समर्थित गुंडा-गर्दी पलीता लगा सकती है.

Comments

Popular posts from this blog

... और फिर जूता चल गया.

रोज-रोज जूता । जिधर देखिये उधर ही "जूतेबाजी" । जूता नहीं हो गया, म्यूजियम में रखा मुगल सल्तनत-काल के किसी बादशाह का बिना धार (मुथरा) का जंग लगा खंजर हो गया । जो काटेगा तो, लेकिन खून नहीं निकलने देगा । बगदादिया चैनल के इराकी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी ने जार्ज डब्ल्यू बुश के मुंह पर जूता क्या फेंका ? दुनिया भर में "जूता-मार" फैशन आ गया ।... न ज्यादा खर्च । न शस्त्र-लाइसेंस की जरुरत । न कहीं लाने-ले जाने में कोई झंझट । एक अदद थैले तक की भी जरुरत नहीं । पांव में पहना और चल दिये । उसका मुंह तलाशने, जिसके मुंह पर जूता फेंकना है । जार्ज बुश पर मुंतज़र ने जूता फेंका । वो इराक की जनता के रोल-मॉडल बन गये । जिस कंपनी का जूता था, उसका बिजनेस घर बैठे बिना कुछ करे-धरे बढ़ गया । भले ही एक जूते के फेर में मुंतज़र अल ज़ैदी को अपनी हड्डी-पसली सब तुड़वानी पड़ गयीं हों । क्यों न एक जूते ने दुनिया की सुपर-पॉवर माने जाने वाले देश के स्पाइडर-मैन की छवि रखने वाले राष्ट्रपति की इज्जत चंद लम्हों में खाक में मिला दी हो । इसके बाद तो दुनिया में जूता-कल्चर ऐसे फैला, जैसे जापान का जलजला । जिधर

प्रेम न किया, तो क्या किया

     ..... "प्रेम" और "रिश्तों" के तमाम नाम और अंदाज हैं, ऐसा बहुत बार हुआ कि प्रेम और रिश्तों को कोई नाम देना संभव न हो सका. लाखों गीत, किस्से और ग्रन्थ लिखे, गाए और फिल्मों में दिखाए गए. इस विषय के इतने पहलू हैं कि लाखों-लाख बरस से लिखने वालों की न तो कलमें घिसीं और ना ही उनकी स्याही सूखी.        "प्रेम" विषय ही ऐसा है कि कभी पुराना नहीं होता. शायद ही कोई ऐसा जीवित व्यक्ति इस धरती पे हुआ हो, जिसके दिल में प्रेम की दस्तक न हुयी हो. ईश्वरीय अवतार भी पवित्र प्रेम को नकार न सके, यह इस भावना की व्यापकता का परिचायक है. उम्र और सामाजिक वर्जनाएं प्रेम की राह में रोड़ा नहीं बन पातीं, क्योंकि बंदिशें सदैव बाँध तोड़ कर सैलाब बन जाना चाहती हैं.     आज शशि कपूर और मौसमी चटर्जी अभिनीत और मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर का गाया हुआ हिन्दी फिल्म "स्वयंवर" के एक गीत सुन रहा था- "मुझे छू रही हैं, तेरी गर्म साँसें.....". इस गीत के मध्य में रफ़ी की आवाज में शशि कपूर गाते हैं कि - लबों से अगर तुम बुला न सको तो, निगाहों से तुम नाम लेकर बुला लो. जिसके

गयासुद्दीन गाजी के पोते थे पंडित जवाहर लाल नेहरू

    जम्मू-कश्मीर में आए महीनों हो गए थे, एक बात अक्सर दिमाग में खटकती थी कि अभी तक नेहरू के खानदान का कोई क्यों नहीं मिला, जबकि हमने किताबों में पढ़ा था कि वह कश्मीरी पंडित थे।  नाते- रिश्तेदार से लेकर दूरदराज तक में से कोई न कोई नेहरू खानदान का तो मिलना ही चाहिए था। नेहरू  राजवंश कि खोज में सियासत के पुराने खिलाडिय़ों से मिला लेकिन जानकारी के नाम पर मोतीलाल नेहरू  के पिता गंगाधर नेहरू का नाम ही सामने आया। अमर उजाला दफ्तर के नजदीक बहती तवी के किनारे  पहुंचकर एक दिन इसी बारे में सोच रहा था तो ख्याल आया कि जम्मू-कश्मीर वूमेन कमीशन की सचिव  हाफीजा मुज्जफर से मिला जाए, शायद वह कुछ मदद कर सके। अगले दिन जब आफिस से हाफीजा के  पास पहुंचा तो वह सवाल सुनकर चौंक गई। बोली पंडित जी आप पंडित नेहरू के वंश का पोस्टमार्टम करने  आए हैं क्या? कश्मीरी चाय का आर्डर देने के बाद वह अपने बुक रैक से एक किताब निकाली, वह थी रॉबर्ट  हार्डी एन्ड्रूज कि किताब "ए लैम्प फार इंडिया- द स्टोरी ऑफ मदाम पंडित।" उस किताब मे तथाकथित  गंगाधर का चित्र छपा था, जिसके अनुसार