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चुनाव बाद आयेगा बेतालों का मौसम


        उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हालातों को देखते हुए याद आती है बचपन में पढ़ी “विक्रम-बेताल” की कहानी. जिसमें बताए गए दोनों चरित्रों ने अपने हित साधने के लिए एक दूसरे पर लदने और लादने का फैसला लिया था. जैसे ही हित पूरा हुआ और दोनों की राहें जुदा हो गयी थीं . चुनावी परिस्थितियों के यथार्थ में ये खेल राजनीतिक दल सत्ता पाने और उसकी होड़ में बने रहने के लिए कहानी के इन दोनों पात्रों में से कोई भी बन जाने में गुरेज नहीं कर रहे हैं. अब तक सभी राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा-पत्र जारी हो चुके हैं.सारे प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतर चुके हैं. सभी दलों के स्टार प्रचारकों ने कमान सम्हाल ली है. सत्ता को निशाने पर रख कमान पर तीर साधे जा चुके हैं, किन्तु छोड़े नहीं जा रहे हैं. इस जमीनी हकीकत की वजह ये है, कोई भी राजनीतिक दल अकेले स्वयं को बहुमत पाने की स्थिति में पा रहा है. बहुमत की जादुई संख्या पाने का कोई रास्ता दीख नहीं रहा है. मतदाता को लुभाने, खरीदने और धमकाने पर चुनाव आयोग की नजर है. राजनीतिक दलों में भय का कारण मतदाताओं की चुप्पी है, जिसने सूचना-क्रान्ति के युग में ये जरूर जान लिया है की सभी राजनीतिक दलों के अंदर सत्ता को पाने और बनाए रखने की उत्कंठा एक जैसी ही है. इससे बढ़कर बात ये है, सभी दलों में इस सत्ता पर काबिज़ होने के साधनों की पवित्रता को लेकर बहुत ज्यादा अंतर नहीं रह गया है. राजनीतिक दलों के दर्शन और सिद्धांत केवल और केवल उन लोगों के लिए लिखे-पढ़े जाने वाले साहित्यिक शोध-ग्रन्थ हैं, जो इस चुनावी व्यवस्था में चर्चा तो करते हैं पर ‘वोट’ नहीं करते. पूर्व में राजनीतिक दल इसी वजह से ऐसे अरण्य-रोदन करने वाले प्रबुद्ध मतदाता वर्ग की गतिविधियों से बहुत चिंतित नहीं रहते थे. अन्ना की बीमारी और बिना संगठन की टीम अन्ना का प्रचार भले ही भोथरा साबित हो और उनका कांग्रेस को हराने का फरमान अप्रभावी रहे पर जनता भष्ट राजनीतिक व्यवस्था से आजिज आ चुकी है. जनता ने पंजाब, मणिपुर और उत्तरांचल में हुए विधानसभा के चुनावों में मतदान का प्रतिशत बढ़ाकर भ्रष्ट तन्त्र को सुधारने के संकेत दे दिए हैं. जनता का यह व्यवहार पूरे समाज को धार्मिक और जातीय खेमों में बाँट चुके राजनेताओं की समझ से परे है. अब राजनीतिक दलों ने चुनाव पश्चात की स्थितियों को ध्यान में रखते हुए चुनावी अभियान में परिवर्तन किया है जिससे सरकार बनाने में कोई बाधा उत्पन्न ना हो.
           सभी राजनीतिक दलों के चुनाव पूर्व के घोषणा-पत्रों को अगर देखें तो जान पड़ता है, बस इनके द्वारा मतदाताओं के लिए “स्वर्ग-नसेनी” लगानी बाकी रह गयी है. भाजपा और सपा ने प्रदेश में किसी विदेशी कंपनी के टेबलेट और लैपटॉप कम्प्यूटर कबाड़-उत्पाद को खपाने का जिम्मा लिया जान पड़ता है. बसपा के मूर्ति-प्रेम से आहत और स्तब्ध भाजपा ने अन्य अति पिछड़ी और अति दलित जातियों के नायकों और धर्म-गुरुओं की खोज में अपने ‘जेबी विद्वानों’ को लगाकर पर्याप्त सूची तैयार कर उनकी मूर्तियां लगवाने का वायदा किया है. सपा के प्रदेश मुखिया ने प्रदेश में एक भी साइकिल कारखाना न होने का रोना रोया.  बात समझने की जरूरत ये है की पूर्व में तीन बार इसी दल की सरकार बन चुकी है. कांग्रेस के विजन दस्तावेज में रोजगार की संख्या में वृद्धि पर बात की गयी है. भाजपा ने भी करोड से ज्यादा लोगों को रोजगार मुहैया कराने की बात कही. कोई दल ग़रीबों और किसानों का कर्ज-माफ कर रहा है तो कोई ऊसर और बंजर जमीन-सुधार कर प्रदेश में हरित-क्रान्ति लाने की बात कर रहा है . यह सब पर तब है जब प्रदेश पर पांच लाख करोड से अधिक का ऋण है. बिजली की व्यवस्था चरमरा गयी है. पिछले बीसेक सालों से कोई नया बिजली घर स्थापित नहीं किया गया है. प्रदेश के खनिज और जल संसाधनों को लेकर कोई समग्र नीति नहीं बन पायी है. अंधाधुंध बालू-खनन और वृक्षों की कटान से बाढ़ और सुखाड़ की तीव्रता बढ़ गई है. प्रदेश में उपलब्ध प्रचुर मानव संसाधनों को उपयोग करने की कोई कार्ययोजना नहीं बनाई जा पा रही है. निम्न जन-स्वास्थ्य स्तर वाले प्रदेश में स्वास्थ्य विभाग के घोटाले किसी से छुपे नहीं है. आम आदमी के स्वास्थ्य और चिकित्सा के लिए जारी किया गया धन किस तरह से लूटा गया और किस तरह दुरूपयोग किया गया ये निष्पक्ष जांच का विषय है. राजनीतिक हितों को साधने के लिए जनता में धार्मिक और जातीय विखंडन और उप-विखंडन को तेजी से उभारा गया है. राजनीतिक हितों में सहायक होने की वजह से प्रदेश में किसी ऐसे सामाजिक आंदोलन का कोई विकास नहीं हो पा रहा है जो समाज के धार्मिक-जातीय आधारित ऊर्ध्व और क्षैतिज विभाजन को रोकने का काम करे. जाति-तोडो आंदोलन और सम्पूर्ण क्रान्ति के नारों से उपजे समाजवादी भी अब इस मुद्दे पर मौन हैं. यही स्थिति महिला और सर्वहारा की उन्नति और एका के बहाने सत्ता पाने के हित साधने वाले वामपंथियों की है, जो वैचारिक प्रखरता के बावजूद जमीनी वास्तविक आंदोलन नहीं खडा कर पा रहे हैं. इसे नकारा नहीं जा सकता है, भ्रष्टाचार और काला-धन विरोधी अन्ना और रामदेव का आंदोलन सीधे तो नहीं पर गहरे अर्थों में प्रदेश के इस बार के चुनावों में अवश्य ही प्रभाव डालेगा. जनता को कोई राजनीतिक विकल्प सुझाए बिना भले ही रामदेव और ‘टीम अन्ना’ का दौरा व्यक्तिगत रूप से बहुत सफल ना रहे पर उसका सन्देश और प्रभाव बहुत आतंरिक प्रभावोत्पादक और परिणामदायक है जिसका वास्तविक असर 2014 के लोकसभा चुनावों में व्यापक रूप से देखने को मिलेगा.
       उत्तर प्रदेश की राजनीतिक स्थितियों को देखने से जान पड़ता है की सभी दलों ने अपने अंतिम प्रयास कर लिए हैं. पर वास्तव में अंदरखाने चुनाव बाद की तैयारियां जारी है. मुद्दा-बहुल चुनाव में मुख्य प्रभावी मुद्दे और जीत की सफल गणित और रणनीति की तलाश में सभी दल व्यस्त हैं, परन्तु सही रास्ता नहीं सूझ रहा है. सभी छोटे दल भी अपनी ताकत का प्रयोग कर रहे हैं. चुनाव आयोग की सख्ती भी बड़े दलों को परेशान किये है. आये-दिन चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन का मामला सामने आ जाता है. राजनीतिक हलकों में विश्लेषकों का चुनाव बाद के परिदृश्य का सही आंकलन ये है की कोई दल अकेले अपने बूते सरकार बनाने की हैसियत में आने वाला नहीं है. सपा और बसपा में कोई भी सबसे बड़ा दल बन सकता है. पर बहुमत से दूर खड़े इन दलों को अन्य दलों के समर्थन की जरूरत होगी. वैचारिक स्तर पर देखें तो सपा को कांग्रेस सहित अजीत सिंह के लोकदल वाले गठबंधन से मदद मिल सकती है. दूसरी तरफ बसपा और भाजपा के सहयोगी दलों का समूह में भी सत्ता को लेकर होड़ है. भाजपा और कांग्रेस के नेतृत्व वाले केन्द्रीय राजनीति करने वाले गठबंधन प्रदेश में प्रभावी नहीं हैं. ऐसे में सत्ता पाने लायक संख्या न होने की स्थिति में अपना दल, पीस पार्टी, जन क्रान्ति पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, लोक मंच और निर्दलीय विधायक सत्ता संतुलन का काम करेंगे. भाजपा और कांग्रेस की बड़ी राजनीतिक हैसियत के बावजूद प्रदेश की राजनीति में केवल सहयोगी की है. केंद्र के आगामी 2014 के चुनावों को मद्देनजर रखते हुए ये दोनों दल इन परिस्थितियों में अपने सहयोगी बढाने के लिहाज से कोई भी भूमिका निभाने में गुरेज नहीं करेंगे. दूसरी तरफ उपरोक्त उल्लिखित अन्य छोटे दल किसी भी सरकार बनाने वाले धड़े के साथ आने में अपनी भली मनाएंगे. इस प्रकार प्रदेश में चुनाव बाद बनने वाली सरकार फिर एक बार केवल अवसरवादिता के मूल मंत्र पर बनी हुयी होगी. सपा के नेतृत्व वाले गठबंधन के सरकार में आने पर सपा के कुछ प्रतिनिधि केंद्र सरकार में शामिल भी हो सकते हैं. इस स्थिति में बेनी प्रसाद वर्मा और राज बब्बर के लिए स्थितियां असहज हो सकती हैं. पर इससे किसी को क्या फर्क पड़ता है. जब केवल और केवल सत्ता पर काबिज होना ही मूल उद्देश्य हो तो कौन बड़ा और कौन छोटा??? सपा और बसपा दोनों के शीर्ष नेतृत्व पर काबिज व्यक्ति आय से अधिक संपत्ति सहित तमामों मामलों में लिप्त हैं. इन परिस्थितियों में उन्हें भी तो सत्ता में बने रहने के लिए सहारा चाहिए. सच है, ऐसे हालातों में क्या फर्क पड़ता है - कौन विक्रम और कौन बेताल???  

Comments

  1. बड़ी ही विकट परिस्थिति है अरविन्द जी। अच्छा लिखा है आपने। राजनीति आज उस हाशिए पर पहुँच गई है जहाँ समाज की भलाई से इसका कोई मतलब नहीं रह गया है। कुर्सी पाना सभी राजनीतिक पार्टियों का लक्ष्य है उसके लिए रास्ता चाहे कुछ भी हो। जागरूक जनता ही इसका वास्तविक हल निकाल सकती है क्योंकि सवाल देश के भविष्य का है।

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