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“मैं हूँ अन्ना” के नारे का असल. बोये कानपुर, देश काटे फसल


आजादी की दूसरी लड़ाई में भी कानपुर ने अपने सशक्त हस्ताक्षर दर्ज कराये और प्रमाणित किया कि गणेश शंकर विद्यार्थी, चंद्रशेखर आज़ाद, हसरत मोहानी की धरती हक की लड़ाई में किसी से पीछे नहीं है. देश को जब भी बलिदान की आवश्यकता हुयी है कानपुर ने सदा आगे बढ़कर अपनी भूमिका अदा की है. वैचारिक सहयोग में भी यह शहर पीछे नहीं रहा है.
       स्वतन्त्रता के प्रथम संघर्ष – 1857, में कमल-रोटी के बहाने प्रतीकात्मक सन्देश भेजने की मुहिम कानपुर के चमनगंज के बाग में रची गयी. इसी प्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जी के द्वारा अमर शहीद रोशन सिंह की पुत्री के कन्या-दान के द्वारा एक गहरा सामाजिक सन्देश दिया गया. उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता को देश की सबसे बड़ी जरूरत माना था. अपनी अंतिम सांस तक वे इस काम  में लगे रहे.इसी क्रम  में 1975 में आपातकाल के दौरान जब देश के लोकतंत्र पर ख़तरा मंडराया तो कानपुर के एक समाजवादी नेता मुरारीलाल पुरी ने एक नारा दिया ‘डरो मत ! अभी हम ज़िंदा हैं.’ जिसे बाद में जय प्रकाश नारायण जी ने दिल्ली में उद्घोषित किया . ये नारा पूरे आंदोलन को उसी तरह से एक सूत्र में बंधे रखने में सफल रहा जैसे राम मंदिर आंदोलन के दौरान लिया गया नारा “सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीँ बनाएंगे”. हाल के अन्ना आंदोलन में भी ‘मैं हूँ अन्ना’ और ‘हम हैं अन्ना’ के नारे ने भी यही भूमिका अदा की.
अन्ना हजारे के आंदोलन में उबले कानपुर महानगर ने न सिर्फ पूरे देश के स्वर में अपना स्वर मिलाया बल्कि आंदोलन पर अपनी अमिट  छाप भी छोडी. “मैं हूँ अन्ना”, “हम हैं अन्ना” की मुहिम किसी और की नहीं हेलो कानपुर सिविल सोसाइटी की थी जिसने पूरे आंदोलन भर आंदोलनकारियों को आपस में एक सूत्र में बांधे रखा.
     प्रमाणित है कि अन्ना के पूर्व के आन्दोलनों में कभी भी और कहीं भी इस जैसे नारे का कोई प्रयोग नहीं किया गया था. अन्ना जी को जंतर-मन्तर पर धरना देने से रोकने के केंद्र सरकार के निर्णय के विरोध में उपजे इस नारे में ये गहरा सन्देश देने का प्रयास किया गया कि अब सरकार करोड़ों-करोड अन्नाओं को कैसे गिरफ्तार करेगी.इस आंदोलन में  ये नारा जन-आह्वान बना. मैं हूँ अन्ना, हम हैं अन्ना मुहिम की शुरुआत कवि एवं पत्रकार प्रमोद तिवारी ने मध्य जुलाई से शुरू की थी. सबसे पहले उन्होंने एक एस.एम्.एस तैयार किया –
“ट्रेन में टी.सी. ने पूछा नाम. मैंने कहा प्रमोद तिवारी “अन्ना”. टी. सी. तुरंत टिकट बनायी और बर्थ दे दी. अलग से १०० का नोट भी नहीं माँगा. बाद में बोला आज से मैं भी अन्ना.
इस तरह अन्ना को पहचान बनाएँ, सच्चा हिन्दुस्तान बनाए.”
इसी एस.एम.एस. को उन्होंने फेसबुक पर डाला. फेसबुक पर दिनांक २८-०८-११  को जैसे ही ये स्टेटस बनकर फ्लैश हुआ. फेसबुक में उनके साथियों ने भी मैं हूँ अन्ना, हम हैं अन्ना की घडी लगा दी. प्रमोद तिवारी बताते है कि उन्होंने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करते समय संस्कृत की एक कहानी पढ़ी थी ‘गतानि गतिको लोकः’ , उस कहानी का सार इस मुहिम की धुरी बना. एस.एम्.एस. और स्टेटस के रिस्पोंस से उत्साहित होकर उन्होंने उसी थीम पर प्रचार सामग्री की डिजाइन तैयार कराई. एक डिजाइन  होर्डिंग  व बैनर पोस्टर के लिए और दूसरी डिजाइन वाहनों व छोटी दुकानों पर चिपकाने के लिए. इन डिजाइनों को उन्होंने अपनी वाल पर डाला और सभी अन्ना समर्थकों का आह्वान किया कि वो इसका उपयोग करें. न सिर्फ डिजाइन फ्लैश की बल्कि अगर किसी को डिजाइन में अपनी सुविधा के अनुसार संशोधन की आवश्यकता पडी तो वो भी सुविधा उपलब्ध कराई. सिर्फ इस कम के लिए एक डिजाइनर को सेवा पर रखा गया. डिजाइनर कुलदीप मिश्रा के अनुसार शहर व शहर के बाहर लगभग 45-50 संस्थाओं हमारी डिजाइन में अपनी संस्था के लोगो और नाम जुद्वाये. सभी को मेल के द्वारा संशोधित डिजाइनें भेजी गयीं. इसके बाद इन डिजाइनों को सड़क पर उतारा गया. होर्डिंग, पोस्टर व स्टीकर के जरिये शहर में बड़ी-बड़ी “हेलो कानपुर सिविल सोसाइटी” के बैनर पर उतारी गयीं. स्कूटरों, कारों, मोटर साइकिलों और टैम्पो में “हम हैं अन्ना” के स्टीकर चिपकाए गए. यह काम कानपुर में एक जुलाई से सोलह जुलाई के मध्य प्रमोद तिवारी और उनकी टीम ने बखूबी किया.
प्रमोद जी अपने इस अनुभव के बारे में बताते है,25 जुलाई के आस-पास वो इंडिया अगेंट करप्शन के आफिस में मनीष सिसोदिया से मिलने गए थे. संयोग से वहाँ अरविन्द केजरीवाल भी मौजूद थे. दोनों ही लोग अपने साथियों के साथ 16 के आंदोलन की तैयारियों में लगे थे. बातचीत के दौरान दोनों ने कहा कि अन्ना के अनशन के सातवें दिन तक देश सड़क पर उतर आएगा. आम जनता का अन्ना के लिए सड़क पर उतर आना ही आंदोलन की ताकत है. प्रमोद जी आगे बताते है कि उन्होंने मनीष और अरविन्द केजरीवाल से अपने लायक कोई काम बताने को कहा तो उन्होंने कहा कि आप कानपुर सम्हालिए.कानपुर क्रांतिकारियों का शहर है. इसके बाद मुझे मनीष ने जन लोकपाल बिल संबंधी सामग्री दी. और मैं कानपुर के लिए वापस हो लिया, दिल्ली की तरह और दिल्ली से बड़ा कुछ करने के लिए.वापसी की ट्रेन यात्रा में ही वो क्रांतिकारी एस.एम्.एस जन्मा. शहर आकर गांधीवादी पद्मश्री साहित्यकार गिरिराज किशोर जी आशीर्वाद लेकर आंदोलन के रस्ते पर चल पड़ा.
        इस आंदोलन में- ‘मैं हूँ अन्ना’ और ‘हम हैं अन्ना’ के साथ अन्य कुछ नारे भी सुर्ख़ियों में रहे जैसे –“अन्ना तुम विश्राम करो, अब संघर्ष हमारा है”,”अन्ना ने सन्देश दिया, जीवन को उद्देश्य दिया”, “गांधी तुमको नहीं देखा, तेरी ताकत देख ली”. इस प्रकार इस क्रान्ति के पहले भी एक ऎसी वैचारिक क्रान्ति हुयी जिसकी तपिश से देश-दुनिया अछूती नहीं रही. दुधमुहें बच्चों से लेकर घरेलू महिलाओं और बूढ़े स्त्री-पुरुषों ने मैं हूँ अन्ना और हम हैं अन्ना लिखी गांधी टोपियों को सर पर धारण किया. कानपुर के टोपी बाज़ार में एक अगस्त को केवल आठ गांधी टोपियां थी. फिर अचानक इस नारे ने ऐसा जादू किया. होर्डिंग , पोस्टर और स्टीकरों ने सोलह के बहुत पहले ऐसा प्रभाव डाला ,कानपुर ही नहीं पूरे देश में गांधी टोपी अन्ना-टोपी बन गयी. जब कानपुर की इस आंदोलन में इस सफलता के बारे बात की तो प्रमोद जी ने कहा – मैं जान गया था अन्ना की बरसात होने होने वाली है , इसीलिए आंदोलन के पानी को एक जगह इकट्ठा करने के लिए फूलबाग , गांधी प्रतिमा तक ढाल तैयार कर दिया था, बस. रही बात नारों के देश-व्यापी हो जाने की तो देश सदा अच्छी बातों को ग्रहण करने के लिए तैयार रहता है.

Comments

  1. Thanks you very much "Arvind Ji" for this great job.

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