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गंगा के नाम पर सेमिनार या बाजार

कानपुर. जैसा की होता ही है सभी के अर्जुन की ही तरह से अपने-अपने लक्ष्य होते हैं और उनकी प्राप्ति के अपने तरीके होते हैं.आई.आई.टी. में 7 दिसंबर को आयोजित सेमिनार के भी अलग ही राग-ढंग थे.सबसे पहले तो सेमिनार का आयोजक कानपुर नगर निगम अपने सभागारों में सेमिनार न बुला कर आई.आई.टी. में सेमिनार क्यों करा रहा था यह स्पष्ट नहीं हो पाया. गंगा के नाम पर होने वाले इस सेमिनार में आये वक्ताओं के आने-जाने और खाने सहित सभी प्रकार के खर्चे सरकारी खजाने से जब कानपुर नगर निगम कर रहा था तो कानपुर के मेयर जो कि राष्ट्रीय गंगा रिवर बेसिन ऑथोरिटी के पदेन सदस्य हैं , को क्यों नहीं बुलाया गया.क्या कारण राजनैतिक थे ? उनके दल कि सरकार का केंद्र या प्रदेश में न होना ही उनकी अयोग्यता थी.रही बात स्थान चयन कि तो क्या आई.आई.टी. में ही बोला जाने वाला सच होता है या फिर आई.आई.टी. देश से अलग एक और विशिस्ट संगठन है ? इसी सेमिनार में हिस्सा लेने आये वैज्ञानिक,प्रोफ़ेसरऔर समाजसेवी डा. राजा वशिस्ठ त्रिपाठी ने बीच सेमिनार में ही प्रश्न खड़ा किया कि यदि यह सेमिनार गंगा के राष्ट्रीय स्वरुप को स्थापित करने के उद्देश्य से हो रहा है तो आज इसमें 50 हज़ार से अधिक कि संख्या होनी चाहिए थी. और नहीं तो कम-से-कम आई.आई.टी. कानपुर के सभी टेक्नोक्रेट्स को इसमें भाग लेना चाहिए था. विश्व में सबसे योग्य इंजिनीअर देने का गौरव प्राप्त संस्थान देश और खासकर कानपुर कि समस्याओं से पूरी तरह अनदेखी कर रहा है. गंगा सफाई के कार्यक्रम के ज्ञान को आम लोगों तक न पहुंचा कर फिर से ठेकेदारों और दलालों को सुरक्षित काम करने कि गारंटी दी जा रही है.बंद ए.सी.कमरों में बनने वाली अन्य लोक कल्याणकारी योजनाओं की ही तरह गंगा सफाई योजना का भी हश्र होने का उन्होंने अंदेशा जताया . उन्होंने मुखर होकर आयोजन स्थल को गंगा के किनारे होने कि मांग की.
सेमिनार 'अविरल और निर्मल गंगा के विभिन्न द्रष्टिकोण' मुद्दे पर 'गंगा बचाओ आन्दोलन' के द्वारा आयोजित था. अविरल और निर्मल गंगा को एक नारे का नाम देने वाले सुन्दर लाल बहुगुणा की साथी श्रीमती रामा राउत जोकि एन.जी.आर.बी.ए. में एक्सपर्ट मेंबर भी हैं ने गंगा नदी के लिए अपनी दस सूत्रीय मांगों को सेमिनार में प्रस्तुत करते हुए और सुझाव और प्रस्तावों की मांग की. ये सभी वे प्रस्ताव थे जो की लगभग दो साल पहले ही प्रस्तुत किये जा चुके थे. उस प्रारंभिक बैठक में भाग ले चुके वरिस्ठ पत्रकार ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह ने इस बीच कुछ नया नहीं होने का असंतोष जताते हुए गंगा की तलहटी पर छोटी नदिओं और झील-तालों के रख-रखाव को शामिल करने की मांग रखी.उन्होंने कुम्भ जैसे आयोजनों के इको-फ्रेंडली कराये जाने की मांग की. उनकी मांगों को एन.जी.आर.बी.ए. की अगली बैठक में प्रस्तुत किया जयेगा.अब तो कनपुरिया भाई लोगों को लगा की हमारी भी बन आई.बिना किसी योग्यता और ज्ञान के उन्हें लगा की गंगा की कार्ययोजना में शामिल हो जाने यही अन्त्तिम मौका है. कानपुर नगर निगम के धन से ही कूड़ा उठाने का जिम्मा उठाये एक संगठन का प्रमुख सुझाव न बता कर अपनी विशेषज्ञता का बखान करता रहा. गंगा एक्शन प्लान 1 और 2 की असफलता का एक भाग रहे एक स्वयंसेवी संगठन का मुखिया अपने बेहतर मीडिया मैनेजमेंट के दम पर अपनी निराशापूर्ण बातों के साथ एकमात्र आशा जगाने वाला बनकर बोला की गंगा कभी साफ़ नहीं हो सकती. श्रीमती राउत से उसने कहा उसने पिछले 25 सालों से काम करके देख लिया है. उसे नकारते हुए श्रीमती राउत ने कहा की यदि केंद्र ने हमारे अनुसार काम किया तो पांच सालों में गंगा पवित्र बन सकती हैं मात्र दलाली के दम पर कायम ये महानुभाव गंगा और पर्यावरण के पत्रकारों के भी बड़े ख़ास हैं. डा. त्रिपाठी ने ऐसे तत्वों की सफाई की भी बात कही उन्होंने कहा जब भारत सरकार स्वयम गंगा अभियान में प्राथमिकता दे रही है ऐसे नकारात्मक सोच वालों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए .अभी तक खर्च किये गए 1100 करोड़ से अधिक रुपयों का कोई हवाला नहीं है.इसी प्रकार से लगता है की आगे भी काम कराया जाने वाला है. उन्होंने जोर देकर कहा ऐसे ही संगठन देश को पीछे ले जाने में लगे हैं जिनकी सोच ही गंगा जैसी पौराणिक और प्राकृतिक महत्व की नदी के नाम पर धन को लूटने की रही है. भारत सरकार से शिकायत कर ऐसे संगठनों की जांच कराइ जाएगी जो पिछले लम्बे अरसे से गंगा और सफाई के नाम पर सरकारी धन ऐंठ रहे हैं.
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे विश्व के मूर्धन्य पर्यावरणविद व गांधीवादी डा. एस.एन. सुब्बाराव ने कार्यक्रम के औचित्य और कार्यप्रणाली से असंतोष जताते हुए कहा 'गंगा बचाओ आन्दोलन' के द्वारा आमंत्रित इस सेमिनार में आन्दोलन के लिए कोई कार्य-योजना नहीं है. आने-जाने के लिए व्यय किया गया धन पूरी तरह से अपव्यय है. अच्छा होता की हजारों-हज़ार युवाओं के साथ गंगा के लिए काम करना प्रारंभ किया गया होता. कहीं भी प्रतीकात्मक रूप से ही नालों का डाइवर्जन या फिर वृहद वृक्ष-आरोपण का काम प्रारंभ किया गया होता. उनकी हताशा में सेमिनार का बाजारवादी रुख हावी था. शुल्क स्वरुप रुपये लाकर ही सेमिनारों का हिस्सा बनने वाली वंदना शिवा अपनी चबा-चबा कर बोली जानेवाली अंग्रेजी के उद्बोधन में अपने तीर-तुक्के लगाती रहीं और कनपुरिया पत्रकारों ने अपने ही अर्थ लगाये.डा. विनोद तारे जिन्हें गंगा की उपनिषद लिखने का काम सरकार ने देते हुए तकनीकी प्रमुख बनाया है, वे एक इको-फ्रेंडली शौचालय बेचने में लगे रहे. इसे रेलवे और कुम्भ जैसे आयोजनों में प्रयोग में लाने की संभावनाएं तलाशी जा रही है. जबकि बहुत उपयोगी किन्तु अव्यवहारिक यह शौचालय अभी भी आई.आइ.टी. में ही लोकप्रिय और चलन में नहीं लाया जा सका है. सेमिनार में अपने प्रायोजक साथ लेकर आये चिदानंद मुनिजी महराज ने उत्तरांचल की सरकार के अथाह गुण-गान किये जबकि वो सरकार गंगा के पौराणिक और प्राकृतिक स्वरुप के साथ अधिकतम खिलवाड़ कर रही है.उनकी अपनी सीमायें और हित हैं जो उनके चेहरे पर झलके.
देश के एक बड़े हिंदी समाचार पत्र से अंग्रेजी जानने की योग्यता वाला पत्रकार अगले दिन वो सब वंदना शिवा के नाम से लिख बैठा जो डा. तारे ने कहा था.अपने ज्ञान के बोझ तले दबे जा रहे इन पत्रकार महोदय ने अपने उन साथी का लाभ करा दिया जो अंग्रेजी नहीं जानते पर पूरे शहर में पर्यावरण की रिपोर्टिंग के लिए जाने जाते हैं. उन्हीं की दुकान आजकल सजी हुई है. देश और शहर के सबसे बड़े अखबार के मालिक ने स्वयं ही उपस्थित होकर गंगा के प्रति अपनी संवेदना दिखाई थी तब तो रिपोर्टिंग अच्छी ही होनी थी. ख़बरों का स्तर अंतर-राष्ट्रीय हो गया पर मूल से भटक गया कारण ये था की लिखना ऐसा था की आका खुश रहें . इसी प्रकार एक तीसरे बड़े हिंदी के समाचारपत्र के पत्रकार महानुभाव दो कदम आगे निकलकर यहाँ तक लिख बैठे की गंगा नदी बेसिन ऑथोरिटी ने कानपुर की टेनरियों की सभी कारगुजारियों को क्लीनचिट दे दी है. भैया तब से टेनरी के मालिकों के खासुलखास बन गए हैं. पहला अपने अज्ञान से और दूसरा अपने प्री-प्लांड तरीके से असल में दोष दोनों विद्वानों का नहीं है. दोष है आज की प्रवृत्ति का. आज पत्रकारिता ए.टी.एम्. युगीन हो गई. समय देकर खबर समझने को अब अयोग्यता मान लिया गया है. न जानने और समझने के बावजूद अखबार तो रोज ही लिखा जाना है. इसलिए जो मन आये लिखो ऐसे प्रशासन ने सेमिनार इतनी दूर बुलाया था की कौन क्या कह रहा है कौन जाने? और सबसे बड़ी बात ये की विरोध कौन करेगा? कुछ शहरी स्वयंसेवी संगठनों ने इसी वजह से कमान अपने हाथों में ले रखी है.बड़े अखबार और उनके पत्रकार उनके खैरख्वाह बन बैठे हैं. अगले दी अखबार पढ़ते हुए मेरे बेटे ने पूंछा की ऐसे में क्या होगा गंगा मैया का? प्रश्न मौजू था पर जवाब भविष्य के गर्भ में है.

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