Skip to main content

दिल्ली, बाई-ट्रेन

दो-दिवसीय दिल्ली  की यात्रा से वापसी के समय पांच  घंटे की यात्रा के पन्द्रह घंटे में पूरी होने पर प्रमोद तिवारी जी द्वारा लिखा गया ये लेख याद आया. इसे मैं साभार उनके ब्लॉग से लिया है.

शीघ्र ही मैं भी अपनी यात्रा का अनुभव आप सब से साझा करूँगा, तब तक इसका रसास्वादन करें.

धन्यवाद .

.....................................................................................................................................

मेरी दिल्ली जाने की तैयारी थी। न जाने कहाँ से मैने यह बात दुनिया लाल को बता दी। दुनिया लाल मेरे मित्र हैं। उन्होंने पूछा, 'काहे से जा रहे हो...?' मैंने बता दिया, बाई-ट्रेन। बस, फिर क्या था... पूरा इलाका जान गया कि मैं बाई-ट्रेन दिल्ली जा रहा हूँ।
मैं दूध लेने निकला था। चौराहे पर पन्ना लाल पनवाड़ी के पास रुक गया। उन्होंने एक जोड़ा पान मेरी ओर बढ़ा दिया। मैं पान दबाकर आगे बढऩे ही वाला था कि वह बोले, 'भैया! सुना है, आप बाई-ट्रेन दिल्ली जा रहे हो।' मैने कहा, 'हाँ ! लेकिन तुम्हें कैसे पता ...?'  वह बोले 'दुनिया लाल आये थे। कह रहे थे उन्होंने आपको बहुत समझाया... लेकिन आप माने ही नहीं।... क्या बात हो गई? जो आप बाई-ट्रेन दिल्ली जा रहे हो...?'  मैं इसके पहले भी दुनिया लाल की दोस्ती से कई बार मुसीबत में पड़ चुका था। इसलिए कुछ कहे बगैर मक्खन सिंह की दुकान की ओर बढ़ गया।
मक्खन सिंह मानो मेरा ही इंतजार कर रहे थे। देखते ही चहक उठे, 'सुना है आप कौनो मंजन वाली अंताक्षरी में भाग लेने दिल्ली जा रहे हो बाई-ट्रेन?'  मैने कहा 'ये सब तो ठीक है लेकिन तुम्हें कैसे पता...?'  मक्खन ने बताया 'दुनिया लाल आये थे कह रहे थे। जिन्दगी में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि आदमी जरा-जरा सी बात में बाई-ट्रेन दिल्ली जाने लगे।' मैं झुल्ला गया... अमां दिल्ली जाना है। बाई-ट्रेन न जाऊँ  तो क्या स्कूटर स्टार्ट कर दूं...? फिर लगा मक्खन से उलझना बेकार है। जो कहना है दुनिया लाल से कहूंगा। मैं दुनिया लाल के घर की ओर लपक लिया। रास्ते में चचा राम केवल अपना सेलून खोल चुके थे। मैने सोंचा कटिंग करा लूं। सो, कुर्सी पर बैठ गया। चचा ने खटखटाई और शुरू हो गए।...'अखबार की खबर थी कि अटल जी दिल्ली-लाहौर बस चलवा रहे हैं।...' हाँ, मैने सहमति में अपना सिर हिला दिया। चचा का हौसला बढ़ा। वह बोले, 'फिर आप क्यों बाई-ट्रेन दिल्ली जा रहे हो...? दुनिया लाल की आप न माने लेकिन अटल जी का इशारा तो समझें...।'  मैं समझ गया दुनिया लाल आज कल में ही चचा से सिर घुटवा कर गए हैं। ...गंजा कहीं का।
अब मेरा बर्दाश्त जवाब देने लगी थी। मैं सीधे दुनिया लाल के घर की ओर लपका।...अबे! तूने पूरे मोहल्ले में यह क्या रब-रब फैला रक्खी है। दुनिया लाल बोले, यार मैं तेरा दोस्त हूँ, कोई दुश्मन नहीं। तू देख, पिछले एक हफ्ते में कानपुर-दिल्ली लाइन में क्या कुछ नहीं हुआ। लूट हुई, जहर खुरानी हुई ,  पटरी टूटी, डिब्बे उतरे, लोग जख्मी हुए, जान पर बन आई, ऐसे में मेरा क्या फर्ज है। आज तुझे मेरी बात समझ में नहीं आ रही। कल जब तेरी औलादें बाई-ट्रेन दिल्ली जाएंगी तब समझ में आयेगी। मैं दुनिया लाल की बातों से 'कनफ्यूज' हो गया। अब सोंचता हूँ, बाई-बस ही निकल जाऊँ।
प्रमोद तिवारी

-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
"सहारा समय" साप्ताहिक में यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है.

Comments

  1. वाह रे...... दुनियालाल ,, कह ही दिया आखिर में .

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

प्रेम न किया, तो क्या किया

     ..... "प्रेम" और "रिश्तों" के तमाम नाम और अंदाज हैं, ऐसा बहुत बार हुआ कि प्रेम और रिश्तों को कोई नाम देना संभव न हो सका. लाखों गीत, किस्से और ग्रन्थ लिखे, गाए और फिल्मों में दिखाए गए. इस विषय के इतने पहलू हैं कि लाखों-लाख बरस से लिखने वालों की न तो कलमें घिसीं और ना ही उनकी स्याही सूखी.        "प्रेम" विषय ही ऐसा है कि कभी पुराना नहीं होता. शायद ही कोई ऐसा जीवित व्यक्ति इस धरती पे हुआ हो, जिसके दिल में प्रेम की दस्तक न हुयी हो. ईश्वरीय अवतार भी पवित्र प्रेम को नकार न सके, यह इस भावना की व्यापकता का परिचायक है. उम्र और सामाजिक वर्जनाएं प्रेम की राह में रोड़ा नहीं बन पातीं, क्योंकि बंदिशें सदैव बाँध तोड़ कर सैलाब बन जाना चाहती हैं.     आज शशि कपूर और मौसमी चटर्जी अभिनीत और मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर का गाया हुआ हिन्दी फिल्म "स्वयंवर" के एक गीत सुन रहा था- "मुझे छू रही हैं, तेरी गर्म साँसें.....". इस गीत के मध्य में रफ़ी की आवाज में शशि कपूर गाते हैं कि - लबों से अगर तुम बुला न सको तो, निगाहों से तुम नाम लेकर बुला लो. जिसके ...

गयासुद्दीन गाजी के पोते थे पंडित जवाहर लाल नेहरू

    जम्मू-कश्मीर में आए महीनों हो गए थे, एक बात अक्सर दिमाग में खटकती थी कि अभी तक नेहरू के खानदान का कोई क्यों नहीं मिला, जबकि हमने किताबों में पढ़ा था कि वह कश्मीरी पंडित थे।  नाते- रिश्तेदार से लेकर दूरदराज तक में से कोई न कोई नेहरू खानदान का तो मिलना ही चाहिए था। नेहरू  राजवंश कि खोज में सियासत के पुराने खिलाडिय़ों से मिला लेकिन जानकारी के नाम पर मोतीलाल नेहरू  के पिता गंगाधर नेहरू का नाम ही सामने आया। अमर उजाला दफ्तर के नजदीक बहती तवी के किनारे  पहुंचकर एक दिन इसी बारे में सोच रहा था तो ख्याल आया कि जम्मू-कश्मीर वूमेन कमीशन की सचिव  हाफीजा मुज्जफर से मिला जाए, शायद वह कुछ मदद कर सके। अगले दिन जब आफिस से हाफीजा के  पास पहुंचा तो वह सवाल सुनकर चौंक गई। बोली पंडित जी आप पंडित नेहरू के वंश का पोस्टमार्टम करने  आए हैं क्या? कश्मीरी चाय का आर्डर देने के बाद वह अपने बुक रैक से एक किताब निकाली, वह थी रॉबर्ट  हार्डी एन्ड्रूज कि किताब "ए लैम्प फार इंडिया- द स्टोरी ऑफ मदाम पंडित।" उस किताब मे तथाकथित...

टोपी और बन्दर

            एक पुरानी दंतकथा है. बचपन में शायद पंचतंत्र में पढ़ी थी. अब तो बचपन में ये सब पढ़ा नहीं जाता. शायद अब तो वैसा बचपन भी नहीं आता. उसमें भी मशीन आ घुसी है. मशीनी और वर्चुअल स्पीडी खेलों वाले खिलौने तथा कार्टून फ़िल्में  आ चुके हैं जो कामिक्स बुक्स को भी खा चुकी हैं, इन्होंने देशी खिलौनों और  देशी नैतिक कथाओं वाले साहित्य को चलन से हटा दिया है.              मैं  भी, क्या ले बैठा ?? चलिए कोई बात नहीं, आपको सीधे कथा  सुनाता हूँ. एक व्यापारी था. व्यापारी था तो कुछ बेचता भी होगा न. हाँ, वो टोपियाँ बेचता था. एक बार वो कई डिजाइन की टोपियाँ सैम्पल में लेकर जंगल के रास्ते किसी दूर के बाज़ार में जा रहा था.पैदल चलने के कारण हुयी  थकान से उसने एक घने पेड़ के नीचे थोड़ी देर आराम करने की सोंची. जल्दी ही उसे झपकी लग गयी. जब उठा तो उसने देखा की उसके झोले में रखी सभी टोपियाँ गायब थीं. इधर-उधर देखने पर उसे पता चला की बंदरों ने उसकी टोपियाँ पहन ली है.उसने उनसे विनती की, रोया, गिडगिडाया, चीखा-च...