Skip to main content

पत्रकार प्रमोद तिवारी की फेसबुक और जीमेल आई.ड़ी. का पासवर्ड चोरी "इक आग लगा ली है, इक आग बुझाने में......"

               कानपुर के वरिष्ठ पत्रकार ,कवि और कानपुर में अन्ना अनशन के समय के सबसे बड़े आन्दोलन स्थल के व्यूह्कार प्रमोद तिवारी के साथ एक हादसा घट गया है. आज की तकनीकी की दुनिया में उनकी कोई चूक उन्हें कितनी महेंगी पड़ेगी ये उन्हें उम्मीद न थी. पिछले दिनों जब वो कवि-सम्मलेन के सिलसिले में कानपुर से बाहर गए हुए थे तब ये घटना घटी. यद्यपि वो इंटरनेट की दुनिया को बनावटी और नकली दुनिया मानते हैं परन्तु इस दुनिया के द्वारा की गयी उनके साथ इस हसीन शरारत को लेकर वो काफी तनाव में हैं. वो सोच नहीं पा रहे हैं की उनके साथ ये और ऐसा हादसा क्यों , कैसे और किसने किया है ??
              हुआ यूं की जब वो पिछले सप्ताह  कवि-सम्मलेन में कानपुर से बाहर गए हुए थे तो उस रात वो  मुझ सहित तमाम दोस्तों को देर रात आनलाइन दिखे. सभी जानते हैं की वो देर रात कम्प्युटर पर काम नहीं करते हैं. शक होने पर जब बात की गयी तो दूसरी तरफ से बात नहीं की गयी. दुसरे दिन भी सुबह बहुत जल्दी उनकी आई.डी. आनलाइन हो गयी. बात का जवाब फिर नहीं मिला. दिनभर की व्यस्तता के बाद शाम को जब बात हुयी तो उन्होंने बताया की शायद किसी ने उनका पासवर्ड जानकर फेसबुक आई.डी. चलाई थी. इस दौरान उस फर्जी व्यक्ति ने  प्रमोद तिवारी कवि बनकर उनके साथ जुडी तमामों महिला मित्रों से अश्लील और अभद्र बातें की.ये उन्हें फेसबुक में जाने के बाद जल्दी ही पता चल गया. पहले उन्हें किसी कम मेच्योर व्यक्ति की ये शरारत जान पड़ी. इस शरारत पर उन्हें कुछ लोगों पर शक था. पर इसी बीच जब तक वो पासवर्ड बदल पाते तब तक दूसरी तरफ से पासवर्ड बदल दिया गया.
              इसके बाद उन्होंने अपने एक करीबी तकनीकी विशेषज्ञ से इस बारे में सलाह ली पासवर्ड बदलवाया और घर आ गए. एक दिन बाद उन्हें पता चला की फेसबुक की आई.डी. का पासवर्ड  फिर बदल गया है. जब दुबारा उन्होंने जीमेल की आईडी  पर रिकवरी के लिए जाना चाहा तो जान पाए की किसी ने जीमेल का पासवर्ड भी बदल दिया था.ये बात जानकर वो  अत्यंत परेशान हुए. यद्यपि वो इस फेसबुक सहित इंटरनेट की दुनिया को निरी झूठी मानते हैं पर इस झूठी दुनिया में घटी इस दुर्घटना का कष्ट उन्हें हुआ. वो अक्सर कहते हैं की क्या असली दुनिया में दुश्मन कम हैं जो इस नकली दुनिया में हम और दुश्मन बना बैठें. मुझे उनका एक शेर याद आता है - मैं झूम के गाता हूँ, कमज़र्फ जमाने में, इक  आग लगा ली है इक आग बुझाने में. मुझे ये पंक्तियाँ सर्वथा सही लगती हैं क्योंकि अब उन्होंने अपने साथ हुयी इस दुर्घटना को मुद्दा बनाने का मन बना लिया है. जल्द ही कोई मासूम चेहरे का महान साइबर अपराधी प्रमोद तिवारी "ए सिम्पिल पोएट, टिपिकल जर्नलिस्ट" के साथ किये गए जुर्म की सज़ा में पुलिस की गिरफ्त में होगा.सूत्रों का मानना है की उनका कोई अत्यंत करीबी इसमें लिप्त होगा. परन्तु संभव है की इसमें भी दिग्विजय सिंह की साजिश हो. अन्ना आंदोलन में मुख्य भूमिका अदा करने के कारण भी उनके साथ ऐसा हो सकता है.

Comments

  1. comic tragedy event....nice writing sir......Ashish Prakhar

    ReplyDelete
  2. ऐसा भी होता है पता नहीं था, तो अब कैसे पासवर्ड प्रोटेक्ट करेगें

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

प्रेम न किया, तो क्या किया

     ..... "प्रेम" और "रिश्तों" के तमाम नाम और अंदाज हैं, ऐसा बहुत बार हुआ कि प्रेम और रिश्तों को कोई नाम देना संभव न हो सका. लाखों गीत, किस्से और ग्रन्थ लिखे, गाए और फिल्मों में दिखाए गए. इस विषय के इतने पहलू हैं कि लाखों-लाख बरस से लिखने वालों की न तो कलमें घिसीं और ना ही उनकी स्याही सूखी.        "प्रेम" विषय ही ऐसा है कि कभी पुराना नहीं होता. शायद ही कोई ऐसा जीवित व्यक्ति इस धरती पे हुआ हो, जिसके दिल में प्रेम की दस्तक न हुयी हो. ईश्वरीय अवतार भी पवित्र प्रेम को नकार न सके, यह इस भावना की व्यापकता का परिचायक है. उम्र और सामाजिक वर्जनाएं प्रेम की राह में रोड़ा नहीं बन पातीं, क्योंकि बंदिशें सदैव बाँध तोड़ कर सैलाब बन जाना चाहती हैं.     आज शशि कपूर और मौसमी चटर्जी अभिनीत और मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर का गाया हुआ हिन्दी फिल्म "स्वयंवर" के एक गीत सुन रहा था- "मुझे छू रही हैं, तेरी गर्म साँसें.....". इस गीत के मध्य में रफ़ी की आवाज में शशि कपूर गाते हैं कि - लबों से अगर तुम बुला न सको तो, निगाहों से तुम नाम लेकर बुला लो. जिसके ...

दशानन को पाती

  हे रावण! तुम्हें अपने  समर्थन में और प्रभु श्री राम के समर्थकों को खिझाने के लिए कानपुर और बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाक़ों में कही जाने वाली निम्न पंक्तियाँ तो याद ही होंगी- इक राम हते, इक रावन्ना।  बे छत्री, बे बामहन्ना।। उनने उनकी नार हरी। उनने उनकी नाश करी।। बात को बन गओ बातन्ना। तुलसी लिख गए पोथन्ना।।      1947 में देश को आज़ादी मिली और साथ में राष्ट्रनायक जैसे राजनेता भी मिले, जिनका अनुसरण और अनुकृति करना आदर्श माना जाता था। ऐसे माहौल में, कानपुर और बुंदेलखंड के इस परिक्षेत्र में ऐसे ही, एक नेता हुए- राम स्वरूप वर्मा। राजनीति के अपने विशेष तौर-तरीक़ों और दाँवों के साथ ही मज़बूत जातीय गणित के फलस्वरूप वो कई बार विधायक हुए और उन्होंने एक राजनीतिक दल भी बनाया। राम स्वरूप वर्मा ने उत्तर भारत में सबसे पहले रामायण और रावण के पुतला दहन का सार्वजनिक विरोध किया। कालांतर में दक्षिण भारत के राजनीतिक दल और बहुजन समाज पार्टी द्वारा उच्च जातीय सँवर्ग के विरोध में हुए उभार का पहला बीज राम स्वरूप वर्मा को ही जाना चाहिए। मेरे इस नज़रिए को देखेंगे तो इस क्षेत्र में राम म...

जहाँ सजावट, वहाँ फँसावट

चेहरे पर चेहरा      मुझे अपनी जन्म और कर्मस्थली तथा उत्तर प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी कहलाने वाले कानपुर से प्रदेश की मूल राजधानी लखनऊ में बसे हुए तीन वर्ष होने को हैं। मूलतया पत्रकार होने के नाते मेरे देखने के नज़रिए में अन्य लोगों से पर्याप्त भिन्नता है। सम्भव है, मेरा मत और दृष्टिकोण लोकप्रिय और सर्वमान्य ना हो।     इसके बावजूद मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूँ कि आर्थिक-सामाजिक और व्यावहारिक आधार पर इन दोनों  शहरों की बनावट, बसावट, खान-पान, और बाशिंदों के व्यवहार में ज़मीन-आसमान का अंतर है। इन अंतरों के बारे में मैं सदा से स्पष्ट था। कानपुर की अपेक्षा लखनऊ घूमने और रहने के लिए निःसन्देह अधिक सुविधाजनक और चमकदार शहर है। इसके बावजूद कानपुर की संकरी और कम रोशनी वाली गलियों में दिल धड़कता है, जोकि उसकी जीवंतता का परिचायक है। कानपुर के बाशिंदों के चेहरे पर चमक मेहनत से कमाई की पूँजी की है जबकि लखनऊ के शहरी उधार और तिकड़म से चमक बनाए रखने में संघर्षरत हैं।       कानपुर के थोक के बाज़ारों में छोटी सी गद्दी में बैठकर करोड़ों का व्यापार करने वाले...