............."उंह ये भी कोई बात है, जिसे लिखे दे रहे हो!" ये कह चचा चकल्लसी ने मुँह फेर लिया।
मैं अपने प्रिय चचा को मनाने में लग गया। ठीक वैसे ही जैसे रूठे चाचा अपने भतीजे से उम्मीद करते हैं।
थोड़ा मान-मनौव्वल, थोड़ा मनुहार, थोड़ा खाना-पिलाना, थोड़ा गिफ़्ट-विफ़्ट और थोड़ा दाना-ख़ज़ाना आदि इत्यादि के बाद भारत में भतीजों से रूठे चाचा आख़िर मान ही जाते हैं।
अक्सर उनके मान जाने का यही ट्रेंड रहता है।
लेकिन जब बात उत्तरप्रदेश की एक राजनीतिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूठे चाचा की हो, तो मामला च्युंगम से भी ज़्यादा लचीला और रबर से भी ज़्यादा खिंचाव वाला होता जा रहा है।
यूँ तो उस पार्टी में बहुत से चाचा हैं- रूठे चाचा, ऐंठे चाचा, सगे चाचा, भगे चाचा और इन सब पर सबसे भारी हैं एक हीरोईनी के साथ वाले छंटे अंकल।
जब इन सबके कोप से ग्रसित भतीजे के बारे में सोंचता हूँ तो बहुत दया आती है और ख़ुद को केवल चचा चकल्लसी से घिरा पाकर ख़ुशक़िस्मत भी मानता हूँ।
जब इन सबके कोप से ग्रसित भतीजे के बारे में सोंचता हूँ तो बहुत दया आती है और ख़ुद को केवल चचा चकल्लसी से घिरा पाकर ख़ुशक़िस्मत भी मानता हूँ।
हाँ तो, मैं बात कर रहा था "रूठे चाचा" की।
वो आख़िर क्यों, कब और कैसे रूठे ये गहन जाँच का विषय है।
ना वो जाने ना हम?
चाचा अपने रूठने पर अक्सर कहते हैं की ये नेताजी के सम्मान की जंग है।
दूसरी तरफ़ नेताजी हैं, जिनको मैनपुरी, इटावा और औरैया आने पर ही याद आता है कि उनका सम्मान कम हो रहा है।
जबकि बेटाजी के साथ रहते समय सब भूल जाता है।
देश भर के विघ्न-संतोषी रूठे चाचा के दम पर भतीजे को निपटाने का ख़्वाब पाले हैं, जबकि सम्मान की चाहत में नेताजी कभी बेटाजी तो कभी चाचाजी के साथ होते रहते हैं।
आज टेलीविजन में समाचार देखकर आए चचा चकल्लसी बोले,"तूने टीवी देखा क्या?"
मेरे मना करने कर भिन्नाए हुए बोले,"आज दिल्ली में नेताजी के बेटाजी के साथ आने की घटना के बाद फिर रूठे चाचा सफ़ाई दिए पड़े हैं। आज फिर उन्होंने नेताजी के "सम्मान की जंग" की बात की। जबकि सवाल ये है कि वास्तव में नेताजी सम्मान चाहते भी हैं या नहीं? इससे बड़ा सवाल ये है कि चाचा को अपने सम्मान की फ़िकर करने से किसने रोका है? नेताजी अगर बेटाजी द्वारा दिए गए सम्मान से ख़ुश होकर उसी के घर रह गए तो उनके सम्मान को ज़रूर जंग लग जाएगा। वैसे भी रूठे वाले चाचा ने पार्टी ना बनकर बनाया तो मोर्चा ही है, जिसका मतलब जंग ही होवे है।"
..........आख़िर मैं क्या करता! इत्ता ज्ञानी चचा मिलता नहीं। सो, दही-जलेबी खिलाकर मना पाया।
काश, मेरी ही तरह रूठे चाचा को मनाने का रस्ता भी उनका भतीजा खोज लेता, तो चौके की बात चौबारे में ना जाती और सम्मान को जंग ना लगता और नाही सम्मान की जंग लड़नी पड़ती।
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