Skip to main content

भू-जल दिवस के सन्दर्भ में कैनविज़ टाइम्स में २० जुलाई को प्रकाशित लेख

































पानी रहेगा तो जिंदगी रहेगी

     यह हकीकत है कि उत्तर प्रदेश के शासन ने भूजल संरक्षण के लिए कागजों पर बहुत कुछ किया है। लेकिन समाज के साथ मिलकर उन्हें जमीन पर उतारने का काम अभी बहुत बाकी है। काश! हर बरस आने वाले भू-गर्भ जल दिवस पर हम प्रदेशवासी भी जाग जाते। काश! इसे हम महज एक आयोजन न मानकर संकल्प, समीक्षा और भू-गर्भ जल संरक्षण आदेशों व सुन्दर काम के सम्मान का मौका बना पाते। माइक संभालने की बजाय फावड़ा उठा पाते। किंतु यह हो नहीं पा रहा।
         जानने की बात है कि उत्तर प्रदेश देश का पहला प्रदेश है, जिसने मनरेगा के तहत तालाबों के नाम पर बन रही चारदीवारियों की बड़ी बेवकूफी सुधारकर उसे पानी आने के रास्ते की तरफ से पूरा खुला रखने का आदेश जारी किया। मनरेगा तालाबों के लिए जगह के चुनाव में समझदारी भरे निर्णयों का होना अभी बाकी है।

           उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश के राजस्व परिषद द्वारा जारी चारागाह, चकरोड, पहाड़,पठार व जल संरचनाओं की भूमि को किसी भी अन्य उपयोग हेतु प्रस्तावित करने पर रोक लगाने, अन्य उपयोग हेतु पूर्व में किए गये पट्टे-अधिग्रहण रद्द करने, निर्माण ध्वस्त करने तथा संरचना को मूल स्वरूप में लाने को प्रशासन की जिम्मेदारी बताने वाली अधिसूचना भी एक मिसाल ही है। शासन के दोहराये निर्देशों और अदालतों द्वारा बार-बार तलब किए जाने के बावजूद चुनौतियों से दूर ही रहने की प्रवृति और इच्छाशक्ति के अभाव ने शासन द्वारा उठाये ऐसे ऐतिहासिक कदम को भी कारगर नहीं होने दिया। इसका ठीकरा सिर्फ सरकार के सिर फोड़कर बचा नहीं जा सकता; समाज भी उतना ही दोषी है।

        यूं तो हर वर्ष 10 जून को भू-गर्भ जल दिवस मनाकर जनभागीदारी सुनिश्चित करने का शासनादेश है। किंतु क्या भू-गर्भ जल दिवस महज एक दिखावटी आयोजन भर होकर नहीं रह गया है? इस वर्ष तो प्रदेश सरकार ने हद ही कर दी। यह स्थिति तब पैदा हुयी जबकि प्रदेश में किसान और मजदूरों कि हित–रक्षक समाजवादी पार्टी के उस युवा मुख्यमंत्री के हाथों में कमान है जो पर्यावरण इंजीनियरिंग में उच्च शिक्षा  प्राप्त है। 20 जुलाई को होने वाले आयोजन और 16 से 22 जुलाई तक चलने वाले एक सप्ताह के सेमीनार, रैली सहित तमाम जागरूकता के अभियान महज दिखावटी और अनुपयोगी इस लिए साबित हो रहे हैं क्यों कि किसान इस समय इस सब को सुनने की फुर्सत में नहीं है. उसे अपने खेत और अपने परिवार के पेट कि फ़िक्र है. बाकी जनता को किसी तरह से पानी का मतलब सिखाना बेमानी है क्योंकि भू-गर्भ जल की वास्तविक जरूरत किसान और अशिक्षित मजदूर को ज्यादा है. विधायकों और सांसदों के पास यही वर्ग सबसे ज्यादा पेयजल के लिए हैंड-पम्पों और सिंचाई के लिए जल-आपूर्ति हेतु ट्यूब-वेळ की याचना करता मिलता है. अमीर तबका अपनी जरूरत धन के माध्यम से पूरी कर लेता है.
 
    उत्तर प्रदेश के भूगर्भ जल विभाग ने पिछले कई सालों में कई गर्व करने लायक शासनादेश भी जारी किए। किंतु यह उत्तर प्रदेश का दुर्भाग्य है कि उनके पालन के नाम पर गौरव लायक उसके पास कुछ भी नहीं है। हकीकत यह है कि अगर भूजल संरक्षण संबंधी उक्तशासकीय निर्देशों को मानने की समझदारी उत्तर प्रदेश के प्रशासन व समाज दोनों ने दिखाई होती, तो सच मानिए कि उत्तर प्रदेश के पानी और धरती दोनों का चेहरा बदल गया होता। धरती पर डराती सूखी लकीरे, हरे से भूरा होता भूगोल और बेपानी कटोरे न होते। नतीजा दुखद है कि पूरे उत्तर प्रदेश का पानी उतर रहा है।

       पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण उत्तर प्रदेश के हर इलाके में संकट की आहट साफ सुनाई दे रही है। बुंदेलखंड मे फिर आत्महत्याओं का दौर शुरू हो गया है।’’ कहीं रोटियां कम पड़ गई हैं पेट भरने के लिए। कहीं अनाज इतना हैं कि बोरे कम पड़ गये हैं संजोकर रखने के लिए।’’ यह कैसा विरोधाभास है! रोटी की कमी और बिन ब्याहे बेटी को घर बिठाकर रखने की बेबसी मौत का सबब बन रही है। पेड़ कटान और अनियंत्रित खदान है कि कोई रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा। सरकार के पास लड़की, जवान, बूढ़ा सभी को काम देने की दुनिया भर की योजनायें हैं। कौशल उन्नयन की राष्ट्रीय परिषद है। ग्रामीण और कुटीर उद्योगों के लिए खादी ग्रामोद्योग है, लेकिन बुंदेलखंड को मौत की बेबसी से उबारने के लिए क्या कुछ भी नहीं? पैकेज का पैसा भी लालच और नादानी के पानी में व्यर्थ ही बह रहा है।
       खैर! निर्णयों की ऐसी बेसमझी, हावी ठेकेदारी, विभागों के बीच तालमेल का अभाव, समग्र सोच और हर काम के लिए सरकार की ओर ताकने की लाचारी बदस्तूर जारी रही, तो फिर भूजल दिवस दिखावटी होकर रह जायेंगे और उत्तर प्रदेश सब कुछ होते हुए भी बेपानी। आखिर क्या नहीं है उ.प्र. के पास? अच्छा वर्षा औसत, गहरे एक्यूफर, तालाबों की बड़ी सूची, नदियों का विशाल संजाल, बागवानी और वानिकी की अकूत संभावनायें, क्रियान्वयन के लिए पहले से मौजूद केंद्र और राज्य स्तरीय योजनायें और बजट भी। सभी कुछ तो है। यूं भी आपात स्थितियां बजट और योजना देखकर नहीं आती। प्रदेश में तेजी से उतरता भूजल प्रमाण है कि भूजल के मामले में यह आपात स्थिति ही है। सरकार और आम-जनता को यह संकट साफ़-साफ़ महसूस कर लेना चाहिए.

       अतः समाज को भी चाहिए कि वह इस आपात स्थिति से निबटने के लिए किसी योजना और बजट का इंतजार न करे। उठाये फावड़ा-कुदाल और टोकरे। जुट जाये बारिश से पहले पानी के कटोरों को साफ करने में। पालों को पक्का करने में। ताकि अब जब भी बारिश की अगली ‘पहली फुहार’ आये, तो ये कटोरे प्यासे न रह जायें। हम इनकी प्यास का इंतजाम करें। हमारी प्यास का इंतजाम ये खुद बखुद कर देंगे। जरूरत है कि अच्छे आदेशों का पालन सुनिश्चित की जाये। हम खुद तय करें कि सामान्य और आपात स्थितियों में एक तय गहराई से नीचे पानी न निकालना है, न किसी को निकालने देना है। बस! फिर देखियेगा कि बारिश की हर बूंद संजोना एक दिन कैसे खुद-ब-खुद आवश्यक हो जायेगा। भूजल दिवस मनाना सफल हो जायेगा। क्या इस भूजल दिवस पर है कोई, जो इस पहल का पहरुआ बनकर आगे आये? या फिर सरकारी आयोजन की श्रंखलाओं में से एक यह भी बन जायेगा और आम जन-मानस इससे पूरी तरह अछूता रहकर इसे दूरी बनाकर अपने भविष्य को बर्बाद करता रहेगा.
......................................................................................................................................


खाली होने से पहले बचा लो
भारत की नदियों में बहने वाला सतही जल का अधो-भूजल के साथ गहरा रिश्ता रखता है. अधो-भूजल के  भण्डार जब खाली होते हैं तो नदियों की सतह पर बहने वाले जल का दर्शन नहीं होता.नदियाँ  अधो-भूजल भण्डार भरने पर छोटे-छोटे झरनों से निकलने वाली जल धाराओं  से निर्मित होती है. गंगा, यमुना, कृष्णा, गोदावरी, कावेरी आदि  सभी  नदियों में अब जहां अधो-भूजल का प्रवाह है, वहीँ वह नदी बची है. अन्यथा देश भर की सभी नदियाँ नाला बन गयी हैं या जल के प्रवाह के बिना सूखकर मर गयी हैं. हमारी सरकारों ने प्राकृतिक रूप से नदियों में मिलने वाले पर्यावरणीय प्रवाह में सीवेज और कल-कारखानों का अपशिष्ट मिलाने में कोई हिचक नहीं दिखाई है. जिसका परिणाम घातक साबित हो रहा है.
         अब इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में भारत में बहुत सी छोटी नदियाँ सूखकर मिट गयी हैं या फिर मिटा दी गयी हैं. उनके प्रवाह स्थल पर खेती, उद्योग और आवास अब जगह-जगह बनते जा रहे हैं. नदियों के मरने, मारने और सूखने की घटनाओं से अब भारतीय समाज और सरकारें चिंतित नहीं दिखती हैं. एक ज़माना था जब नदियों के प्रवाह को देखकर समाज उसके संरक्षण के सपने संजोता था. जहर और अमृत की धाराओं को अलग-अलग रखने की विधियां सोचकर उन्हें सम्हालकर रखता था. आजकल हममें अमृत-वाहिनी  नदियों में मैला और जहर मिलाने की हिचक तक मिट गयी है. अब नदियों में मैला  और जहर मिलाने वाले शहरी लोग और सरकारें बड़े बन गए हैं. अब इस कूड़ा और सीवेज प्रबंधन के नाम पर बहुत सारी विदशी आर्थिक ताकतें चोर दरवाजे से हमारे घरों में प्रवेश कर रही हैं. आज यह बढ़ता कूड़ा भी विदेशी उपभोगवादी संस्कृति के निरंतर बढ़ावा देने का परिणाम है जो आर्थिक उदारीकरण अपनाने का दुष्परिणाम है.
ऐसे समाज में जो "नीर, नारी और नदी"  का सम्मान करके दुनिया का गुरू बना हुआ था, उसे हमारे आधुनिक उदारीकरण व बाजारीकरण वाली सभ्यता ने समेट कर संहार कर दिया है. ऐसा लगता है की आज की सभ्यता भारतीय नदी संस्कृति को लील चुकी है. इसीलिए अब हम नदियों को नाला बनाने वाला हिंसक और भ्रष्टाचारी रास्ता अपना रहे हैं. इस रास्ते पर अब हमें आगे बढ़ने के बजाय भारतीय संस्कृति की सम्मान देने वाली नीर, नारी और नदी को पुनः-जीवित करने की जिजीविषा जुटानी पड़ेगी.
    उत्तर प्रदेश गंगा-जमुनी संस्कृति का जनक रहा है. इस राज्य को अपनी नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह  सुनिश्चित करने हेतु नदी भूमि का अतिक्रमण रोकना तथा प्रदूषण करने वाले नालों को नदी से दूर मोड़ना आवश्यक है.आज हमें नदियों के प्रवाह को बढ़ाने हेतु वर्षा जल सहेजकर वर्षा ऋतु में बहते जल को धरती के पेट में डालने का काम करना चाहिए. प्राकृतिक जल श्रोत जैसे तालाब, झीलों और पोखरों का प्रबंधन सही तरीके से करना होगा. मनरेगा की योजना के आने के बाद इन सभी जल-निधियों को संरक्षित करने के लिए धन की कमी नहीं रही है. बस जरूरत मन की है. इन भू-आकृतियों के माध्यम से पानी से भरा धरती का पेट लम्बे समय तक पानीदार बना रहेगा क्योंकि सूरज की किरणें भूजल की चोरी नहीं करती हैं और वाष्पीकरण नहीं होता. बल्कि भूजल से भरे हुए भंडारों का दबाव नदियों के प्रवाह में ऊर्जा पैदा करता है. यह ऊर्जा जब समुद्र में मिलती है तो समुद्र की ऊर्जा से नदी का जल-स्तर ऊपर आ जाता है. समुद्र की ऊर्जा व नदी के भूजल की ऊर्जा का योग नदी को प्राकृतिक बनाकर देता है. समुद्र और  नदी का करंट (ऊर्जा) मौसम का मिज़ाज़ ठीक करने व धरती का बुखार उतारने में भी मदद करता है.
     उत्तर प्रदेश की नदियों के प्रवाह को बनाकर रखने में नदियों के प्रवाह क्षेत्र में मोती रेत की गहरी तह बड़े स्पंज का काम करती थीं, लेकिन  नदियों में हो रहे खनन, उद्योग , खेती सभी कुछ भूजल के भंडारों का शोषण करने में जुटे हैं, जब भूजल के भण्डार शोषित हो जाते हैं तो अधो भूजल के करंट (ऊर्जा) मर जाते हैं. और नदी का यह रेत जो स्पंज की भूमिका निभाता था , वह भी अब नष्ट हो गया है. नदियों के भूजल के भंडारों का खाली होना  उत्तरप्रदेश की खेती और उद्योगों पर तो बुरा असर डालेगा ही साथ ही साथ यहाँ के समाज की  सेहत को भी बिगाड़ेगा.  नदियों के मरने और सूखने से भारत के मानव समाज की आर्थिकी और सेहत दोनों बिगड़ जायेगी. दुनिया के बाज़ार की  गिरावट हमें नदियों और खेती के कारण ही नहीं गिरा सकी थीं. लेकित जब नदियाँ बीमार होंगी तो हम भी बीमार होने से नहीं बच सकेंगे. इलाज में हमारी  आर्थिकी  बिगड़ेगी और हमारे काम छूटेंगे  . हमारे विकास की गति भोथरी हो जायेगी. हम उलटा सैकड़ा,  दहाई और इकाई पर आकर खड़े हो जाएंगे.
    नदियों का पर्यावरणीय प्रवाह ही हमारे जीवन के प्रवाह को बनाकर रखता है. हमारी जीविका, जीवन और जमीन भूजल के भण्डार और नदी के प्रवाह से जुड़े हैं. हमें अब नदियों के प्रवाह को सुनिश्चित करने वाली नदी नीति चाहिए. भूजल का भण्डार भूजल पुनर्भरण और नदियों के प्रवाह को बढाने वाला जल-संरक्षण का संस्कार तथा नदी के साथ सद्व्यवहार चाहिए.
     साथ ही साथ भूजल शोषण को रोकने वाला अधिनियम तथा मर्यादित जल उपयोग को व्यवहार में लाने वाला सामुदायिक दस्तूर चाहिए. भूजल पर अपनी आश्रितता में कमी लानी होगी. यह तभी होगा जब हम अपनी नदियों को साफ़-सुथरा बनाए रखें. उसमें मानवीय और औद्योगिक अपशिष्ट मिलाने से परहेज करें. तभी हमारी नदियाँ मरने से बचेंगी. भूजल के भण्डार बचेंगे और हमारा जीवन समृद्ध होगा.



Comments

Popular posts from this blog

प्रेम न किया, तो क्या किया

     ..... "प्रेम" और "रिश्तों" के तमाम नाम और अंदाज हैं, ऐसा बहुत बार हुआ कि प्रेम और रिश्तों को कोई नाम देना संभव न हो सका. लाखों गीत, किस्से और ग्रन्थ लिखे, गाए और फिल्मों में दिखाए गए. इस विषय के इतने पहलू हैं कि लाखों-लाख बरस से लिखने वालों की न तो कलमें घिसीं और ना ही उनकी स्याही सूखी.        "प्रेम" विषय ही ऐसा है कि कभी पुराना नहीं होता. शायद ही कोई ऐसा जीवित व्यक्ति इस धरती पे हुआ हो, जिसके दिल में प्रेम की दस्तक न हुयी हो. ईश्वरीय अवतार भी पवित्र प्रेम को नकार न सके, यह इस भावना की व्यापकता का परिचायक है. उम्र और सामाजिक वर्जनाएं प्रेम की राह में रोड़ा नहीं बन पातीं, क्योंकि बंदिशें सदैव बाँध तोड़ कर सैलाब बन जाना चाहती हैं.     आज शशि कपूर और मौसमी चटर्जी अभिनीत और मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर का गाया हुआ हिन्दी फिल्म "स्वयंवर" के एक गीत सुन रहा था- "मुझे छू रही हैं, तेरी गर्म साँसें.....". इस गीत के मध्य में रफ़ी की आवाज में शशि कपूर गाते हैं कि - लबों से अगर तुम बुला न सको तो, निगाहों से तुम नाम लेकर बुला लो. जिसके ...

दशानन को पाती

  हे रावण! तुम्हें अपने  समर्थन में और प्रभु श्री राम के समर्थकों को खिझाने के लिए कानपुर और बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाक़ों में कही जाने वाली निम्न पंक्तियाँ तो याद ही होंगी- इक राम हते, इक रावन्ना।  बे छत्री, बे बामहन्ना।। उनने उनकी नार हरी। उनने उनकी नाश करी।। बात को बन गओ बातन्ना। तुलसी लिख गए पोथन्ना।।      1947 में देश को आज़ादी मिली और साथ में राष्ट्रनायक जैसे राजनेता भी मिले, जिनका अनुसरण और अनुकृति करना आदर्श माना जाता था। ऐसे माहौल में, कानपुर और बुंदेलखंड के इस परिक्षेत्र में ऐसे ही, एक नेता हुए- राम स्वरूप वर्मा। राजनीति के अपने विशेष तौर-तरीक़ों और दाँवों के साथ ही मज़बूत जातीय गणित के फलस्वरूप वो कई बार विधायक हुए और उन्होंने एक राजनीतिक दल भी बनाया। राम स्वरूप वर्मा ने उत्तर भारत में सबसे पहले रामायण और रावण के पुतला दहन का सार्वजनिक विरोध किया। कालांतर में दक्षिण भारत के राजनीतिक दल और बहुजन समाज पार्टी द्वारा उच्च जातीय सँवर्ग के विरोध में हुए उभार का पहला बीज राम स्वरूप वर्मा को ही जाना चाहिए। मेरे इस नज़रिए को देखेंगे तो इस क्षेत्र में राम म...

जहाँ सजावट, वहाँ फँसावट

चेहरे पर चेहरा      मुझे अपनी जन्म और कर्मस्थली तथा उत्तर प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी कहलाने वाले कानपुर से प्रदेश की मूल राजधानी लखनऊ में बसे हुए तीन वर्ष होने को हैं। मूलतया पत्रकार होने के नाते मेरे देखने के नज़रिए में अन्य लोगों से पर्याप्त भिन्नता है। सम्भव है, मेरा मत और दृष्टिकोण लोकप्रिय और सर्वमान्य ना हो।     इसके बावजूद मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूँ कि आर्थिक-सामाजिक और व्यावहारिक आधार पर इन दोनों  शहरों की बनावट, बसावट, खान-पान, और बाशिंदों के व्यवहार में ज़मीन-आसमान का अंतर है। इन अंतरों के बारे में मैं सदा से स्पष्ट था। कानपुर की अपेक्षा लखनऊ घूमने और रहने के लिए निःसन्देह अधिक सुविधाजनक और चमकदार शहर है। इसके बावजूद कानपुर की संकरी और कम रोशनी वाली गलियों में दिल धड़कता है, जोकि उसकी जीवंतता का परिचायक है। कानपुर के बाशिंदों के चेहरे पर चमक मेहनत से कमाई की पूँजी की है जबकि लखनऊ के शहरी उधार और तिकड़म से चमक बनाए रखने में संघर्षरत हैं।       कानपुर के थोक के बाज़ारों में छोटी सी गद्दी में बैठकर करोड़ों का व्यापार करने वाले...