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“मूवमेंट” के लिए “मूव” तो करना ही होगा...

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तेरा क्या होगा "कटप्पा"

 ...... देश में शायद ही कोई होगा जिसने बाहुबली सीरीज की दोनों फ़िल्मों में से एक भी न देखी होगी और उसके कैरेक्टर "कटप्पा" को न जानता हो. वो एक वीर और साहसी योद्धा था, जो राज-सिंहासन से बंधा हुआ था. तमाम सक्षमता के बावजूद उसकी खुद की कोई महत्वाकांक्षा न थी. राजा के आदेश को पालन के लिए अपने प्रिय भांजे की हत्या जैसा जघन्य कृत्य करने में उसने सेकण्ड का भी समय न लगाया था. राजनीति को "कटप्पा" बहुत भाते हैं, जिसके पास खुद की इच्छा ना हो और राजगद्दी के लिए सबसे ज्यादा समर्पण हो. प्रभु राम के लिए बिना तर्क-वितर्क किये सर्वस्व न्योछावर करने का समर्पण रखने वाले प्रभु हनुमान, महाभारत काल में भीष्म पितामह ऐसी ही भूमिका में रहे हैं. आधुनिक राजनीति भी इस तरह के चरित्रों से भरी पड़ी है, जिनके बिना राज और दल संचालित किया जा सकना मुमकिन नहीं रहा है. ऐसा किरदार खोजना और उससे काम लेना भी एक चुनौती ही है. हाल में , प्रदेश के एक राजनीतिक दल के मुखिया के न रहने के बाद पारिवारिक एका हो गया है और मुखिया जी के "कटप्पा" ने उनके "बेटाजी" में मुखिया जी की छवि खोज कर कटप्प

प्रेम न किया, तो क्या किया

     ..... "प्रेम" और "रिश्तों" के तमाम नाम और अंदाज हैं, ऐसा बहुत बार हुआ कि प्रेम और रिश्तों को कोई नाम देना संभव न हो सका. लाखों गीत, किस्से और ग्रन्थ लिखे, गाए और फिल्मों में दिखाए गए. इस विषय के इतने पहलू हैं कि लाखों-लाख बरस से लिखने वालों की न तो कलमें घिसीं और ना ही उनकी स्याही सूखी.        "प्रेम" विषय ही ऐसा है कि कभी पुराना नहीं होता. शायद ही कोई ऐसा जीवित व्यक्ति इस धरती पे हुआ हो, जिसके दिल में प्रेम की दस्तक न हुयी हो. ईश्वरीय अवतार भी पवित्र प्रेम को नकार न सके, यह इस भावना की व्यापकता का परिचायक है. उम्र और सामाजिक वर्जनाएं प्रेम की राह में रोड़ा नहीं बन पातीं, क्योंकि बंदिशें सदैव बाँध तोड़ कर सैलाब बन जाना चाहती हैं.     आज शशि कपूर और मौसमी चटर्जी अभिनीत और मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर का गाया हुआ हिन्दी फिल्म "स्वयंवर" के एक गीत सुन रहा था- "मुझे छू रही हैं, तेरी गर्म साँसें.....". इस गीत के मध्य में रफ़ी की आवाज में शशि कपूर गाते हैं कि - लबों से अगर तुम बुला न सको तो, निगाहों से तुम नाम लेकर बुला लो. जिसके

मन और हम

  मान लीजिए कि आप चाय का कप हाथ में लिए खड़े हैं और कोई व्यक्ति आपको धक्का दे देता है । तो क्या होता है ?  आपके कप से चाय छलक जाती है। अगर आप से पूछा जाए कि आप के कप से चाय क्यों छलकी?  तो आप का उत्तर होगा "क्योंकि मुझे अमुक व्यक्ति (फलां) ने मुझे धक्का दिया." मेरे ख़याल से आपका उत्तर गलत है। सही उत्तर ये है कि आपके कप में चाय थी इसलिए छलकी।  आप के कप से वही छलकेगा, जो उसमें है। इसी तरह, जब भी ज़िंदगी में हमें धक्के लगते हैं लोगों के व्यवहार से, तो उस समय हमारी वास्तविकता यानी अन्दर की सच्चाई ही छलकती है।  आप का सच उस समय तक सामने नहीं आता, जब तक आपको धक्का न लगे... तो देखना ये है कि जब आपको धक्का लगा तो क्या छलका ? धैर्य, मौन, कृतज्ञता, स्वाभिमान, निश्चिंतता, मान वता, गरिमा। या क्रोध, कड़वाहट, पागलपन, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा इत्यादि. निर्णय हमारे वश में है। चुन लीजिए। सोशल मीडिया हो या रोज़मर्रा की ज़िन्दगी- हमारे अंदर का भाव परिवर्तित नहीं हो रहा है और इससे बड़ा सच ये है की परिवर्तित हो भी नहीं सकता है ।  मन किसी भी घटना पर प्रतिक्रिया देने में रहम नहीं करत

जहाँ सजावट, वहाँ फँसावट

चेहरे पर चेहरा      मुझे अपनी जन्म और कर्मस्थली तथा उत्तर प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी कहलाने वाले कानपुर से प्रदेश की मूल राजधानी लखनऊ में बसे हुए तीन वर्ष होने को हैं। मूलतया पत्रकार होने के नाते मेरे देखने के नज़रिए में अन्य लोगों से पर्याप्त भिन्नता है। सम्भव है, मेरा मत और दृष्टिकोण लोकप्रिय और सर्वमान्य ना हो।     इसके बावजूद मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूँ कि आर्थिक-सामाजिक और व्यावहारिक आधार पर इन दोनों  शहरों की बनावट, बसावट, खान-पान, और बाशिंदों के व्यवहार में ज़मीन-आसमान का अंतर है। इन अंतरों के बारे में मैं सदा से स्पष्ट था। कानपुर की अपेक्षा लखनऊ घूमने और रहने के लिए निःसन्देह अधिक सुविधाजनक और चमकदार शहर है। इसके बावजूद कानपुर की संकरी और कम रोशनी वाली गलियों में दिल धड़कता है, जोकि उसकी जीवंतता का परिचायक है। कानपुर के बाशिंदों के चेहरे पर चमक मेहनत से कमाई की पूँजी की है जबकि लखनऊ के शहरी उधार और तिकड़म से चमक बनाए रखने में संघर्षरत हैं।       कानपुर के थोक के बाज़ारों में छोटी सी गद्दी में बैठकर करोड़ों का व्यापार करने वाले लाला भी चाट-बताशे का भरपूर मज़ा लेते हैं और दो-प

"ब्रीफकेस" पर ब्रीफ-नोट

     ......अब "ये" पूरी तरह से उपेक्षित हैं. कभी ये देश के दिलों की धड़कन हुआ करते थे. नामी-गिरामी कम्पनियां अपने ब्रांड को लोकप्रिय कराने के लिए नामचीन हस्तियों से इनका प्रचार कराती थीं और ये हिन्दी फिल्मों और आमजन के जीवन का अटूट हिस्सा रहे थे. हर घर में पाए जाने वाले "ब्रीफकेस" प्रत्येक फिल्म में विलेन और हीरो के साथ ही पुलिस के हाथों आने और नहीं आ पाने की जद्दो-जहद में कहानी की मजबूत कड़ी बनते थे. तस्करी और नाजायज माल की हेरा-फेरी में मुख्य वाहक माने जाने वाले इन ब्रीफकेसों पर स्मार्ट होती इक्कीसवीं सदी का कहर उन पर ऐसा कुछ हुआ कि अब इनकी रातों की सुबह नहीं होती.        सामान्यतया घरों में महत्वपूर्ण दस्तावेज और प्रमाणपत्र रखने के साथ ही बेशकीमती आभूषण और महंगे कपड़े रखने के काम में आने वाले "ब्रीफकेस" प्रशासनिक और कारपोरेट एक्जीक्यूटिव क्लास के अधिकारियों के हाथों में शोभायमान होते रहे हैं. डिजिटल होती दुनिया में महंगे मोबाइल, लैपटाप और टैब जैसे गैजेट्स उपयोग में आने के बाद इस एलीट वर्ग में भी इसकी विशेष उपयोगिता नहीं रह गयी है. सामान्यतया सभी घरों म

दशानन को पाती

  हे रावण! तुम्हें अपने  समर्थन में और प्रभु श्री राम के समर्थकों को खिझाने के लिए कानपुर और बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाक़ों में कही जाने वाली निम्न पंक्तियाँ तो याद ही होंगी- इक राम हते, इक रावन्ना।  बे छत्री, बे बामहन्ना।। उनने उनकी नार हरी। उनने उनकी नाश करी।। बात को बन गओ बातन्ना। तुलसी लिख गए पोथन्ना।।      1947 में देश को आज़ादी मिली और साथ में राष्ट्रनायक जैसे राजनेता भी मिले, जिनका अनुसरण और अनुकृति करना आदर्श माना जाता था। ऐसे माहौल में, कानपुर और बुंदेलखंड के इस परिक्षेत्र में ऐसे ही, एक नेता हुए- राम स्वरूप वर्मा। राजनीति के अपने विशेष तौर-तरीक़ों और दाँवों के साथ ही मज़बूत जातीय गणित के फलस्वरूप वो कई बार विधायक हुए और उन्होंने एक राजनीतिक दल भी बनाया। राम स्वरूप वर्मा ने उत्तर भारत में सबसे पहले रामायण और रावण के पुतला दहन का सार्वजनिक विरोध किया। कालांतर में दक्षिण भारत के राजनीतिक दल और बहुजन समाज पार्टी द्वारा उच्च जातीय सँवर्ग के विरोध में हुए उभार का पहला बीज राम स्वरूप वर्मा को ही जाना चाहिए। मेरे इस नज़रिए को देखेंगे तो इस क्षेत्र में राम मनोहर लोहिया, मुलायम सिंह यादव