वास्तव में, हमारे जीवन में इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि कल विश्व ह्रदय दिवस था? यह भी कि ह्रदय के दिल कहलाने से क्या फर्क पड़ जाता है? शायद आपको सड़क-सुरक्षा को लेकर बरसों-बरस पहले दूरदर्शन पर आने वाले विज्ञापन की याद हो - जिसमें रेलवे के बंद क्रासिंग से निकलने पर दुर्घटना का शिकार हुए दिवंगत व्यक्ति की दीवार में माला के साथ टंगी फोटो के अन्दर से आत्मा कहती है- "भाई, फर्क तो पड़ता है" . सभी शहरों में कल इस अवसर पर हुए सेमिनारों की समाचार-पत्रों में खूब कवरेज आई है, जिसमें खराब जीवन-शैली के कारण होने वाली बीमारियों जैसे- मधुमेह, उच्च रक्तचाप और मोटापा के कारण ह्रदय-घात और ब्लाकेज की समस्या पर परिचर्चा हुयी. पूरी समस्या आर्थिक विकास के कारण जीवन स्तर में अनियंत्रित परिवर्तन के कारण खान-पान व जीवन-शैली में नक़ल के कारण ह्रदय की बीमारी आम हो गयी है. कचौड़ी, पकौड़ी, जलेबी,परांठे, कुल्चे,भटूरे आदि तो हम हजम कर लेते थे पर पिज्जा, बर्गर, नूडल्स, मोमोज और शराब-कोल्ड ड्रिंक्स जैसे अनावश्यक खाद्य पदार्थों को भोजन की थाली में जोड़ने के द...
मूलतया कनपुरिया - बेलौस, बिंदास अन्दाज़ के साथ एक खरी और सच्ची बात का अड्डा…